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भारतका जनतंत्र तथा चुनाव – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

फाल्गुन शुक्ल पक्ष दशमी, कलियुग वर्ष ५११५

१. हिंदुस्थानमें स्वतंत्रताका मूल्य आत्महत्याकी स्वतंत्रताकी अपेक्षा अधिक न होना !

जनतंत्र अर्थात जनतंत्र शासन, जनस्वंतत्रता, हिंदुस्थानमें स्वतंत्रताका मूल्य आत्महत्याकी स्वतंत्रताकी अपेक्षा अधिक नहीं है ।

२. चुनावमें लाखों रुपयोंका व्यय देखते हुए किसी भी पक्षका भी चुनाव लडेंगे, ऐसा कहना हास्यास्पद है !

चुनावके लिए लगभग लक्षावधिकी अनामत राशि (डिपोजिट) चाहिए । इसके अतिरिक्त पत्रक, वाहन, ध्वनिवर्धक (लाऊडस्पीकर) इस प्रकारके विभिन्न प्रबंध आवश्यक होते हैं ।
आज जनताको शरीर ढंकनेके लिए वस्त्र नहीं, आवास नहीं, पेटभर अन्न नहीं, रुग्ण बच्चोंके लिए औषध नहीं, चिकित्सा नहीं, तो वास्तविक अर्थमें जनतंत्र कहां है ?

३. जनतंत्रके नामपर भयानक स्वैराचार एवं भ्रष्टाचारने अपनी सीमा पार की है ।

नगर, गांव, घर इसकेद्वारा निर्धन जनता प्रलोभनोंका शिकार होकर मतदान करती है । कुछ राशि व्यय करनेके पश्चात गरीब जनताका मत प्राप्त होता है । जनतंत्रके नामपर इस प्रकार भयानक पतन, भयानक अनैतिकता, दुराचार एवं भ्रष्टाचारने अपनी सीमा पार की है ।

४. चुनाव अतिधनवान उद्योगपतियोंका खेल है तथा इन उद्योगपतियोंको करोडों रुपए व्यय कर विधायक एवं संसद सदस्य विक्रय करते हैं ।

चुनावके लिए विदेशी एवं देशी इस प्रकार असंख्य उद्योगपति, पूंजीपति, अगणित बडी अंतरराष्ट्रीय कंपनियां प्रचुर राशिका वितरण करती हैं । उस राशिका लाभ वे अंतमें प्राप्त भी करते हैं । उसी प्रकारका उनका आंतरिक व्यवहार रहता है । ये उद्योगपति करोडों रुपएं व्यय कर विधायक एवं संसद सदस्य विक्रय करते हैं । अब्जावधि रुपए व्यय कर यदि एक प्रांतका शासन भी सत्तामें आया, तो भी उसकी हानि नहीं होती ।

५. संत एवं सत्पुरुषोंको भारतकी मिट्टीकी गंधवाली शुद्ध दार्शनिक, धार्मिक राज्यघटना सामने लाकर इस अस्तव्यस्त जनतंत्रकी पोल खोलनी चाहिए !

समाचारपत्रिका पढनेके पश्चात भयंकर वास्तविकता सामने आएगी । आज सर्वनाशका समय आया है । इस स्थितिमें हमें निराश न होकर निर्भय, विद्वान, पंडित, संत एवं सत्पुरुषोंको इस तामसकी पोल खोलनी चाहिए । भारतकी मिट्टीका गंधवाली दार्शनिक, धार्मिक, राजनीतिक तत्त्वज्ञान अभिव्यक्त करनेवाली राज्यघटना स्थापित कर इस भयंकर भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, अस्तव्यस्त जनतंत्रकी पोल खोलनी चाहिए ।
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (साप्ताहिक सनातन चिंतन, २०.८.२००९)

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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