क्या सोच रहे हैं बंगाल के मुसलमान ?

चैत्र शुक्ल पक्ष ६, कलियुग वर्ष ५११५

पश्चिम बंगाल के सियासी मामलों में मुसलमानों की भूमिका अहम रही है। राज्य की लगभग 28 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी ने जिसकी झोली भर दी, सत्ता उसे ही गले लगाती रही है।

पहले सीपीएम की अगुवाई वाले वाममोर्चा को कोई तीन दशकों तक उनका साथ मिलता रहा, पर मोहभंग होने के बाद उन्होंने ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस को राज्य की सत्ता सौंप दी। अब लोकसभा चुनावों के मौक़े पर मुसलमान एक बार फिर दोराहे पर हैं।

'वोटबैंक' लुभाने की कवायद

मुस्लिम वोटों की अहमियत के मद्देनज़र प्रमुख राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों ने इस 'वोटबैंक' को लुभाने की कवायद शुरू कर दी है राज्य के बांग्लादेश से लगे सीमावर्ती इलाक़ों में मुस्लिम वोट ही किसी उम्मीदवार की हार-जीत तय करते हैं

लोकसभा की 42 में 10 से ज़्यादा सीटों पर यह तबक़ा उम्मीदवारों की किस्मत का फ़ैसला करने में सक्षम है।

भारतीय जनता पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय सचिव अरशद आलम कहते हैं, "ये चुनाव ऐतिहासिक हैं। नरेंद्र मोदी के नाम पर अल्पसंख्यक भी समर्थन दे रहे हैं। लोग भाजपा नहीं बल्कि मोदी को वोट देंगे।"

उनका दावा है कि इस बार राज्य में कम से कम 10-15 फ़ीसदी मुसलमान मोदी का समर्थन करेंगे।

आलम कहते हैं, ''चुनाव के समय पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि पूरे देश में मुसलमानों के प्रति सियासी दलों का प्यार उमड़ने लगता है। उन्हें नहला-धुलाकर सजाया जाता है। लेकिन चुनाव बीतते ही उन्हें क़ब्रिस्तान में दफ़ना दिया जाता है। लेकिन अब मुसलमान सचेत हो चुका है।"

मोदीखाने में मोदी

कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम मोहम्मद नुरु उर रहमान बरक़ती, आलम के दावे को नकारते हुए कहते हैं । "मोदी फ़ैक्टर यहां मोदीखाने में है उसका इस राज्य में कोई असर नहीं है दो-चार मीर जाफ़र अगर उनके साथ हों भी, तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता

शाही इमाम का मानना है, "बंगाल में मुसलमानों का झुकाव ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की तरफ़ है। ममता ने यहां आलिया विश्वविद्यालय खोला है। उर्दू को सरकारी भाषा का दर्जा देकर लोगों को नौकरियां दे रही हैं।"

क्या पहले अन्ना हजारे का हाथ पकड़ने और फिर उनसे नाता टूटने से ममता की छवि ख़राब नहीं हुई है ?

इस सवाल पर बरक़ती कहते हैं, "कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। अन्ना ने धोखा दिया। वे धोखेबाज़ साबित हुए। ममता तो रैली में मौजूद थीं। अन्ना का भागना तृणमूल के लिए अच्छा ही हुआ ।"

मदरसों की हालत

ऑल इंडिया शाह साईं कमेटी के अखिल भारतीय अध्यक्ष और राष्ट्रीय जनता दल के पूर्व विधायक मोहम्मद असीरुद्दीन कहते हैं, "मुसलमानों की हालत पहले से बेहतर हुई है लेकिन उतनी अच्छी नहीं है। बंगाल में अब भी मुर्शिदाबाद ज़िले में ग़रीबी के चलते एक माँ अपने बेटे को बेच देती है। अब मुसलमानों ने तालीम का महत्व समझा है और उनका इस ओर झुकाव बढ़ा है।"

वह कहते हैं, "राज्य में मदरसों की हालत खराब है। मुसलमानों के लिए विश्वविद्यालय या मेडिकल कालेज नहीं हैं जबकि पड़ोसी आंध्र प्रदेश में हमारे लिए काफ़ी शैक्षणिक संस्थान हैं।''

उनका मानना है, "नई सरकार ने वादे तो बहुत किए हैं, लेकिन मुसलमान सबको देख रहा है। आज का मुसलमान इतना सक्षम है कि जो पार्टी उसके हित नहीं साधेगी, वह उसका समर्थन नहीं करेगा।"

एक अन्य संगठन तंज़ीम एम्मा मसाजिद पश्चिम बंगाल के महासचिव मोहम्मद अली जौहर फ़ुरकानी को अफ़सोस है कि किसी भी सरकार ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया है।

सियासी दलों पर नज़र

फ़ुरकानी कहते हैं, "ममता सरकार ने उर्दू को सरकारी भाषा के तौर पर मान्यता तो दे दी है, मगर उसे रोज़ी-रोटी से नहीं जोड़ा है। महानगर में बीएड की पढ़ाई के लिए कोई स्कूल नहीं है जबकि शिक्षा के क्षेत्र में नौकरी हासिल करने के लिए यह अनिवार्य है।"

उनका मानना है, ''तमाम मुसलमान अब सियासी दलों पर नज़र रखे हैं। जो बेहतर पार्टी होगी, उसी का समर्थन किया जाएगा।''

आल इंडिया कौमी तंज़ीम की कोलकाता शाखा के महासचिव मुफ़्ती ख़ालिद आज़म हैदरी कहते हैं कि मुसलमान बंगाल समेत पूरे देश में हमेशा धर्मनिरपेक्ष दलों का ही समर्थन करते आए हैं।

उनका आरोप है कि 34 साल के वाममोर्चा के शासन में मुसलमानों का नुक़सान ही हुआ है, वक्फ़ की संपत्ति का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं है।

हैदरी कहते हैं, "तालीम और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बंगाल में मुस्लिम आबादी बेहद पिछड़ी है। जो पार्टी इसमें सुधार की ठोस योजना के साथ आएगी, हम उसी का समर्थन करेंगे।"

'कथनी-करनी में अंतर'

खालिद आजम हैदरी कहते हैं कि 
मुसलमान धर्मनिरपेक्ष दलों का समर्थन करते हैं ।

सलमानों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले पूर्व आईपीएस अधिकारी इस्लाम अपने कार्यकाल में काफ़ी विवादास्पद रहे हैं।

मुसलमानों की उपेक्षा और वोट बैंक के तौर पर उनके इस्तेमाल करने की सियासी रणनीति पर कई किताबें लिखकर पहले बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार और फिर ममता बनर्जी का कोपभाजन बने इस्लाम इस साल 28 फरवरी को ही सेवानिवृत्त हुए हैं।

वे कहते हैं, "बंगाल में तमाम सियासी दल अब भी उच्चवर्गीय मानसिकता से मुक्त नहीं हैं। तमाम बड़े पदों पर उच्च वर्ग के लोग बैठे हैं। नेताओं की कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। बाहर तो वे जात-पात को नहीं मानने का दिखावा करते हैं, लेकिन घर में इसे मानते हैं। उनका कहना है कि जब तक सियासी दलों के नेता इस मानसिकता से मुक्त नहीं होते, तब तक मुसलमान यहां वोट बैंक ही बने रहेंगे।

इस्लाम मानते हैं कि अब यह तबक़ा अपने हितों और अधिकारों के प्रति सचेत हो रहा है। लेकिन इस बदलाव में काफी वक्त लगेगा।

स्त्रोत : बीबीसी हिंदी

Leave a Comment

Notice : The source URLs cited in the news/article might be only valid on the date the news/article was published. Most of them may become invalid from a day to a few months later. When a URL fails to work, you may go to the top level of the sources website and search for the news/article.

Disclaimer : The news/article published are collected from various sources and responsibility of news/article lies solely on the source itself. Hindu Janajagruti Samiti (HJS) or its website is not in anyway connected nor it is responsible for the news/article content presented here. ​Opinions expressed in this article are the authors personal opinions. Information, facts or opinions shared by the Author do not reflect the views of HJS and HJS is not responsible or liable for the same. The Author is responsible for accuracy, completeness, suitability and validity of any information in this article. ​