वैशाख कृष्ण पक्ष ७, कलियुग वर्ष ५११६
"मानवाधिकार" का अर्थ क्या है ? आतंकवादी बनकर समाजजीवन उद्ध्वस्त करनेवालोंको खुली छूट देनेका अधिकार ???
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भाजपाके शासनकालमें पंजाब स्थित जालंधर नगरके तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण अडवाणीने ‘शहीद परिवार निधि’-द्वारा आयोजित एक कार्यक्रममें भाषण दिया था । आतंकवादियोंसे लडनेवाले अनेक सुरक्षा सैनिकोंके विरुद्ध मानव अधिकार उल्लंघनके अपराधमें देशभरमें अभियोग चलाए जा रहे हैं, प्रशासन अति गंभीरतासे उन्हें इन अभियोगोंसे मुक्त करनेका विचार कर रहा है, ऐसा उन्होंने कहा । अडवाणीकी इस घोषणाका पुलिस, सुरक्षादल, निमलश्करी सैनिक तथा सैनिकोंद्वारा स्वागत किया जाना स्वाभाविक है ।
१० वर्ष पूर्वके दशकमें पंजाबमें खलिस्तानी आतंकवादियोंने जनताको त्रस्त कर दिया था । प्रतिदिन नियमित रूपसे लगभग ४० हत्याएं हो रही थीं । जिस सुवर्ण मंदिरने सिक्खोंको इस्लामके विरुद्ध लडनेकी प्रेरणा दी, वह अमृतसरका सुवर्ण मंदिर ही आतंकवादियोंका अड्डा बन गया । कर्नल जर्नेलसिंह भिंदरावालेने सुवर्ण मंदिरका बुरा हाल बना दिया । एक समय भारतकी पश्चिमोत्तर सीमाका प्रहरी बना पंजाब ही कहीं भारतसे अलग तो नहीं हो जाएगा ? ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी । पंजाबसमेत पूरे देशमें कहीं सिक्ख विरुद्ध सिक्खेतर हिंदु, ऐसा विभाजन तो नहीं होगा ? ऐसा लगने जैसी स्थिति थी ।
खलिस्तानवादियोंके नामपर पाकस्थित मुसलमानोंद्वारा हो हल्ला !
खलिस्तानकी मांग करनेवाले सिक्ख मुट्ठीभर ही थे; किंतु सिक्खोंके वेशमें पाकिस्तानी मुसलमान घुसपैठ कर रहे थे । भारतने पाकिस्तानसे पूर्व बंगाल अलग किया । उस समय उसका बदला लेने हेतु पाकने पंजाबको भारतसे अलग करनेका षडयंत्र रचा था । सुरक्षा दलोंने भी अभूतपूर्व कार्य किया । उस कालावधिमें पंजाबके अमृतसर, जालंधर, लुधियाना आदि नगरोंमें सायं ६ बजेके पश्चात कोई भी नहीं दिखता था । खलिस्तानके नामपर गुंडागर्दी करनेवाले भिंद्रनवालेके गुंडे तथा सिक्खोंके वेशमें पाकिस्तानी मुसलमान किसीके भी घरपर रात-बेरातको दस्तक देते, दरवाजा तोडते, जिस लडकीको चाहे उठा ले जाते, उसके साथ बलात्कार कर उसे रास्तेपर फेंक देते । सच्चा सिक्ख ऐसा अधर्मी कृत्य कभी नहीं करेगा, जनताको इसकी निश्चिति थी ही । सुरक्षादलोंने उस कसौटीकी कालावधिमें अभूतपूर्व साहसका प्रदर्शन किया । अमेरिकाने रूसके विरुद्ध अफगानिस्तानमें लडने हेतु ए.के. ४७ स्वयंचलित बंदूकें पाकको दी थीं । उन बंदूकोंको लेकर आज पाकस्थित मुसलमान जम्मू-कश्मीरमें कुछ स्थानीय मुसलमानोंको साथ लेकर सरेआम हिंदुओंकी हत्या कर रहे हैं । १० वर्षपूर्व पंजाबमें ऐसी ही हत्याएं हो रही थीं । ऐसे भीषण संघर्षमें पंजाब पुलिस तथा सुरक्षा सैनिक स्वचालित आधुनिक हथियार न होते हुए भी अपने जीवनको दांवपर लगाकर लड रहे थे ।
मानवाधिकार संगठन : अमेरिकाद्वारा पोषण किए गए हिंदुविरोधी प्रगतिशील !
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इन शूर सैनिकोंको हतोत्साहित करने हेतु अमेरिकाने यहांके हिंदुविरोधी प्रगतिशील लोगोंसे हाथ मिलाकर ‘मानवाधिकार’, यह नई पहचान दिलानेवाला शब्द अनुमोदित किया । `मानवाधिकार’ का अर्थ क्या है ? आतंकवादी बनकर समाजजीवन उद्ध्वस्त करनेवालोंको खुली छूट देनेका अधिकार ! ये आतंकवादी बमविस्फोट करते, २५-३० बंदूकधारियोंकी टोली घरघरमें घुसाकर निःशस्त्र नागरिकोंपर गोलियां चलाती । इस हिंसाको रोकने हेतु पुलिस तथा सुरक्षा सैनिक गोलियां चलाते । उस गोलीबारीमें जैसे सूखेके साथ गीला भी जलता है, वैसे कभी कभी निरपराध व्यक्ति भी बलि चढ जाते थे अथवा बलि चढे आतंकवादी निरपराध थे, भिंद्रनवालेके दलाल(एजेंट) ऐसा नाटक करते थे । तुरंत अमेरिकाके ये प्रगतिशील मानवाधिकारवाले न्यायालय पहुंचते थे । न्यायालय पहुंचनेवालोंमें अधिकतर अधिवक्ता होते थे । पुलिस अधिकारी तथा सुरक्षा सैनिकोंके विरुद्ध मानवाधिकारका उल्लंघन किया, ऐसा परिवाद प्रविष्ट करना ही उनका काम था । उस अधिकारीके पीछे न्यायालयकी तिथियोंका झंझट आरंभ हुआ कि उन्हें बडी परेशानी होने लगी । जिनके विरुद्ध अभियोग प्रविष्ट होते थे, उन्हें बचाने हेतु प्रशासन आगे नहीं आता था । न्यायालयके चक्कर लगाना, अधिवक्ताओंकी फीस देना, ये सारी बातें उन्हें स्वयं ही करनी पडती थीं । उनका अपराध क्या था ? जनताकी रक्षा की ! स्त्रीकी मर्यादा बचाई ! सिक्खोंके वेशमें आए पाकस्थित मुसलमान गुंडोंको जानसे मार दिया, यह ! पंजाबमें शांति प्रस्थापित हुए भी १० वर्ष हो गए; किंतु उस समयके अभियोग अभी भी चल रहे हैं । अकेले पंजाबमें ऐसे प्रलंबित अभियोगोंकी संख्या ६०० है । सालोंसाल लगनेवाले न्यायालयके चक्करोंकी परेशानी, प्रत्येक समय दी जानेवाली अधिवक्ताओंकी फीस, न्यायालयमें उपस्थित रहने हेतु ली जानेवाली छुट्टी, इन सभी कारणोंसे धोखादायक आतंकवादियोंको निष्प्रभ करनेवाली पुलिस एवं सैनिकोंकी नाकमें दम आता है । ‘नहीं करेंगे समाजकी रक्षा, नहीं चाहिए शौर्यपदक, नहीं चाहिए पाकसे लडते समय दिखाई राष्ट्रभक्ति’, ऐसा उन्हें लगता है । इसी बातको सुरक्षा दलोंका नीतिधैर्य नष्ट करना, कहते हैं । अडवाणीने ६०० अभियोग ही नहीं, अपितु जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, मिजोरममें लडते समय सुरक्षा सैनिकोंके विरुद्ध जो मानवाधिकार अभियोग चल रहे हैं, उन अभियोगोंको निरस्त करनेका विचार प्रकट किया था ।
लडनेवाले अजीतसिंह संधू : कथित मानवाधिकारकी बलि !
इन अभियोगोंके कारण कोई पराक्रमी अधिकारी भी कितना विवश होता है, स्वतंत्र हिंदुस्थान हेतु यह लांछन सिद्ध हुआ उदाहरण ही है जिला पुलिस प्रमुख अजीतसिंह संधूकी असमय मृत्यु । पुलिस अधिकारी अजीतसिंह संधूने सिक्खोंके वेशमें पाक आक्रमणकर्ताओंको नष्ट करनेका बीडा उठाया था । अमृतसर जिला स्थित तरणतारणके एक क्षेत्रमें उनका अड्डा था । अमृतसरसे अटारी नामका सीमावर्ती गांव एकदम निकट है । अमृतसर पंजाबकी राजधानी है । उसे नियंत्रणमें लेकर सारा प्रशासन ही अपाहिज बनानेकी पाककी योजना थी । संधूने जीवनको दांवपर लगाकर यह षडयंत्र निरस्त कर दिया । उस समय महाराष्ट्रमें ‘संताजी-धनाजी’ का नाम लेते ही औरंगजेबके सैनिक जैसे कांप उठते थे, उसी प्रकार संधूका नाम सुनते ही भारतविरोधी गुंडे ढीले पड जाते थे । संधूको मिटाने हेतु मानवाधिकारके पदाधिकारियोंने उनके विरुद्ध अभियोग प्रविष्ट किए तथा न्यायालयने भी तत्परतासे उनको स्वीकार किया । संधूके विरुद्ध मानवाधिकारका उल्लंघन करनेके विषयमें १-२ नहीं, अपितु पूरे ४० अभियोग प्रविष्ट किए गए । एक अभियोगका हवाला देकर न्यायालयने उन्हें पुलिस कस्टडीमें भेजा । केवल मंत्री ही नहीं, अपितु न्यायालय भी कितने नीतिभ्रष्ट हो गए हैं, इनकी वार्तासे आज हम सभी भली भांति परिचित हो गए हैं । पुलिस कस्टडीमें संधूको, उन्होंने जिनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही की थी, उन्हीं मुसलमान आतंकवादियोंकी कोठरीमें रखा गया ! संधूने उस स्थितिमें भी न डरकर कस्टडीके दिन बिताए । वे बाहर आए । अपने परिवारके साथ रहे । एक दिन १० मिनटमें आता हूं, ऐसा बताकर जो घरसे गए, सो कभी वापिस नहीं आए । चंडीगढ-अंबाला रेल मार्गपर एक मोटरमैनको टुकडियोंर्में उनकी लाश दिखी । संधूकी हत्या हुई, ऐसा लगता है । वह आत्महत्या भी हो सकती है; किंतु आत्महत्या करनेवाला स्वयं अपने टुकडे रेल स्थानकपर क्यों फेंकेगा ? आतंकवादियोंको नष्ट करनेवाले पंजाबके पुलिस महासंचालक के. पी. एस. गिलने कहा, पूर्णतया स्वार्थी होनेवाले मानवाधिकारवालोंको न्यायसंस्थाकी पूरी जानकारी होती है । साथ ही प्रसारमाध्यमोंको कैसे लुभाना है, वे यह भी जानते हैं । वे न्यायिक प्रक्रियाका विकृतीकरण कर उसे अपने स्वार्थ हेतु उपयोगमें लाते हैं । यही मानवाधिकारवाले संधू जैसे अधिकारीके विरुद्ध आंदोलन चलाते हैं । पुलिसके विरुद्ध चल रहे अभियोगमें उन्हें बचाने हेतु उत्तम अधिवक्ता तथा प्रचुर धनकी आवश्यकता होती है; किंतु प्रशासन उनके लिए कुछ भी नहीं करता । पुलिस कस्टडीमें संधूपर आक्रमण करनेवालेका क्या हुआ, वह पता नहीं । हो सकता है कि उन्हें पदोन्नति दी गई हो अथवा उनका सम्मान किया गया हो । जोश मलिहाबादीके अनुसार संधू जैसे बहादुर वीर कहते होंगे, इस नामर्द देशमें मैंने क्यों जनम लिया ? आतंकवादी तथा खलिस्तानकी लडाई हार गए; मानवाधिकारके शस्त्रोंसे उन्होंने संधू जैसोंके विरुद्ध लडाई आरंभ रखी है ।
देशाका कैवारी (मित्र) मानवाधिकारवालोंका शत्रू !
अडवाणीके मानवाधिकार उल्लंघनके अभियोगोंसे सुरक्षा अधिकारियोंको मुक्त करनेके घोषित किए विचारपर तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए । अडवाणीने जालंधरकी सभामें घोषणा करते ही प्रगतिशील तथा अमेरिकाके समर्थकोंने उनके विरुद्ध बाते बनाना आरंभ कर दिया है । केंद्रीय विधी मंत्रालयके अधिकारीका हवाला देकर ऐसी कार्यवाही करना, संविधानकी कक्षामें नहीं आता, जैसी वार्ताएं फैलाई । अडवाणी अथवा वाजपेयीजीको अब किसीकी भी परवाह न कर क्रियाशील बनना चाहिए । हम अति निःपक्षपाती है, ऐसा दिखानेका केंद्रप्रशासनको शौक है । इस आत्मघाती शौकका भी प्रशासनको बलि नहीं चढना चाहिए । कर्नल अनिल आठल्ये निवृत्त लष्करी अधिकारी हैं । उन्होंने कश्मीरमें अतिरकीयोंके विरुद्ध कार्यवाहीमें हिस्सा लिया था । मानवाधिकारवाले तथा उनके कृत्य आठल्येजीने निकटसे देख हैं । वे लिखते हैं, – युरोप-रशियामें साम्यवादकी समाप्तीके पश्चात कई तथाकथित प्रगतिशील बेकार हो गए थे । शीतयुद्धके पश्चात युरोप स्थित देशोंको जीने हेतु एक नया उदि्दष्ट आवश्यक था । इन बेकार प्रगतिशीलवालोंके सामने अपने सुखदायी अस्तित्वका भी प्रश्न था । इन सभीके परिणास्वरुप मानवी अधिकारका यह नया तंत्र आरंभ हुआ ।
कर्नल आठल्ये द्वारा लिखित ‘लेट द जेह्लूम स्माईल अगेन’(Let The Jhelum Smile Again) यह पुस्तक आदित्य प्रकाशनने प्रसिद्ध किया है ।
उसमें मानवी अधिकारके संबंधमें कश्मीरमें इन ७ वर्षांमें ५३० परिवाद प्रविष्ट किए गए । उनमेंसे ४९२ परिवादोंमें प्रमाण ही नहीं थे, अर्थात् वे झूठी थीं । २२ घटनाओंमें दंडात्मक कार्यवाही की गई । ५२ सैनिकोंको दंड हुआ । बडतर्फी, सक्तमजुरी ऐसा दंडका स्वरूप था । ये सभी आंकडे लष्करी मुख्यालयने २६ दिसंबर १९९६ को अधिकृत पद्धतिसे दिए थे । मानवाधिकारवालोंने एक भी आतंकवादीके विरुद्ध मानवाधिकार उल्लंघनका कोई भी परिवाद प्रविष्ट नहीं किया ।
मानवाधिकारवालोंकी दृष्टीसे हुरियत कान्फरन्ससे लेकर लष्कर-ए-तोयबा तक सभी इस्लामी संगठनोंके हाथोंमें मानवी हक सुरक्षित होने चाहिए ! दुर्भाग्यसे आज देशका मित्र, मानवाधिकारवालोंका शत्रू, ऐसी स्थिति है ।
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात