नक्सलवादको कैसे रोका जाए ?

वैशाख कृष्ण पक्ष अष्टमी, कलियुग वर्ष ५११६

नक्सलवादको रोकने हेतु एकत्रित आनेकी आवश्यकता  !

देशमें नक्सलवादियोंने शस्र हाथमें  लेकर पिछडे अथवा अत्यधिक पिछडे क्षेत्रमें उनका आतंक उत्पन्न करना आरंभ रखा है । वास्तवमें समस्या यह है कि नक्सलवादको कैसे रोका जाए ? इस समस्याके विषयमें सत्ताधारी पक्षमें एकमत नहीं है । ‘तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम् के बौद्धिक अहंकारके कारण नक्सलवादी आहत हुए हैं । इसीलिए दंतेवाडासमान घटनाएं हो रही हैं ।’ ऐसी आलोचना कांग्रेस पक्षद्वारा ही की गई ।

नक्सलवादियोंद्वारा साधारण व्यक्तियोंका भी शोषण !

एक समय था, जब नक्सलवादके विषयमें समाजमें अत्यधिक सांत्वना थी । ऐसा माना जाता था कि नक्सलवादी वनवासी एवं जंगलमें रहनेवाले नागरिकोंके कल्याणकी चिंता करते हैं । उन्हें  अधिक रोजगार एवं प्रत्यावर्तन मिलने हेतु प्रयास करते हैं । यह वस्तुस्थिति थी । इन निर्धन वनवासियोंका शोषण करनेवाले कंत्राटदार, तेंदुपत्ता संग्रहित करनेहेतु वनवासियोंका शोषण करनेवाले लोग एवं भ्रष्टाचारमें लिप्त शासकीय तंत्रोंको पाठ पढाने हेतु नक्सलवादी  अग्रेसर थे । वे अपनी पद्धतिसे न्याय करते थे । उनकी इस न्याय करनेकी पद्धतिके कारण शासकीय तंत्र तथा उद्योगपती  हडबडा गए थे । तेंदुपत्ता (बिडी बनाने हेतु प्रयुक्त किए जानेवाले पान) संकलनको अच्छा मूल्य एवं मजदूरी मिलने लगी । इस मजदूरीमें वृद्धिके कारण उनके जीवनमें आशाके किरण दिखाई देने लगे परंतु यह कुछ वर्षतक ही टिका । तत्पश्चात नक्सल-वादियोंने इन वनवासियोंका भी शोषण करना आरंभ किया । उन्हें विकाससे वंचित रखनेमें स्वयंको धन्य समझने लगे । क्या इस कारण मार्गका निर्माणकार्य होना संभव है ? तो आए, अडचनें उत्पन्न करें ! क्या  पूल बांधा जा रहा है ? पुलको उडा दें, ऐसे धंदे चालू हो गए । तदुपरांत नक्सलवादी समाजमें अपनी  दहशत उत्पन्न करनेके लिए प्रयास करने लगे ।  

नक्सलवादियोंको  राजाश्रय !

नक्सलवादी उनके विरुद्ध शासन एवं पुलिसकी सहायता करनेवाले लोगोंको लक्ष्य करने लगे । ऐसे लोगोंकी सीधी हत्या करनेके स्थानपर वे लोगोंमें दहशत उत्पन्न हो, इस पद्धतिसे उनकी हत्या करते थे । दूसरी ओर पुलिस कुछ वनवासियोंपर नक्सलवादियोंको सहायता करनेके संदर्भमें बलप्रयोग करते थे । इसप्रकार वनवासियोंका दोहरा शोषण आरंभ हो गया । और तो और ‘वर्ष २०३० तक भारतमें लोकतंत्रको समाप्त कर देंगे’ ऐसी दर्पोक्ती नक्सलवादी करने लगे अर्थात कांग्रेसने नक्सलवादियोंके विषयमें अपनाई ढुलमुल नीति उनको सहायता करनेवाली सिद्ध हुई । मध्यकालावधिमें आंध्रप्रदेशमें इन नक्सलवादियोंको बहुत सुविधाएं प्राप्त हुइं ! आम तौर पर जंगलमें छिपकर रहनेवाले ये लोग बाहर आए । उन्हें सुरक्षा मिली । वे सीधे राजभवन पहुंचें; परंतु उनका आतंकवाद रुका नहीं, अपितु उनका उग्रवाद चरमसीमातक बढ गया ।

‘आपरेशन ग्रीन हंट’ का जन्म !

इस प्रकार सशस्त्र क्रांति करने एवं इसी समय वनवासियोंको भी दहशतकी छायामें रखनेके विषयमें नक्सलवादियोंमें विवाद चालू हो गए । नक्सलवादियोंके संस्थापक अलग हो गए, जबकि किसनजीसमान (आग्यावेताळी) नेतृत्त्व सामने आया, जो वनवासियोंके विषयमें भी क्रूर मानसिकता रखता था ।शासकीय तंत्रका छोटेसे छोटा खिला उखाडकर निकाल देना चाहिए ऐसा उनका मत था । इसलिए पुलिस एवं शासकीय तंत्रोंपर आक्रमण करना चालू हो गया । केवल पुलिस दलमें होनेके कारण बिलकुल गर्भवती महिलाकी भी हत्या करनेतक उनकी क्रूरता पहुंच गई । इसका प्रतिकार करना चाहिए यह भावना शासकीय स्तरपर बढकर इससे ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ चालू हो गया ।

सैनिकोंके मनोधैर्यपर परिणाम करनेवाले पुराने शस्त्र

‘आपरेशन ग्रीन हंट’ का हेतु था ‘नक्सलवादियोंको झुकाना’ । शास्त्रको शस्त्रसे उत्तर देनेके लिए वे सिद्ध थे;  परंतु इस ‘आपरेशन ग्रीन हंट’ से तथाकथित मानवतावादियोंके पेटमें दर्द उत्पन्न हुआ । प्रत्यक्षमें जिन्होंने नक्सलवादी क्रूरताका अनुभव किया था, वे लोग नक्सलवादको समाप्त ही करना चाहते थे । पुलिस तंत्र इस कार्यमें अकार्यक्षम थी । इसलिए कि उनमें किसीको भी इस प्रकार शस्त्रसे लडाई करनेका प्रशिक्षण नहीं दिया गया था । जिसका प्रतिकार करना है, वह आधुनिक शस्त्र लेकर सामने खडा है । मात्र हम पुराने जमानेके शस्त्र उपयोगमें ला रहे हैं । इससे एक भयगंड भी उत्पन्न होता है । इसलिए पुलिस तंत्र इन नक्सलवादियोंकी व्यवस्था करने अवश्य जाते थे, परंतु प्रत्यक्षमें व्यवस्था करनेके स्थानपर ‘हम आए हैं, हमें सुरक्षित जाने दें’, यह विचार अधिक रूपसे रहता था । नक्सलवादियोंसे लडते समय आधुनिक शस्त्रसिद्धता एवं लडनेकी मानसिकताकी आवश्यकता थी; परंतु हमारे सैनिक असतर्कताके कारण उनके जालमें फंसते थे ।

नक्सलवादको रोकने हेतु एकत्रित आनेकी आवश्यकता है !

नक्सलवादियोंको रोकने हेतु भारतको पक्षीय राजनीतिके ऊपर उठकर एकमन एवं एकविचारसे लडाई करनी पडेगी, जिसके लिए सभीको एकत्रित होनेकी सच्चे अर्थसे आवश्यकता है ।

 – सुधीर पाठक (संदर्भ : साप्ताहिक विवेक विचार, मई २०१०)

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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