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शंकराचार्य परंपराके पुरी पीठकी ओरसे पंधरावें ‘साधना व राष्ट्ररक्षा’ शिविरको आरंभ

वैशाख कृष्ण पक्ष १२, कलियुग वर्ष ५११६

राष्ट्रकार्य संपन्न करने हेतु साधना निश्चित रूपसे आवश्यक है ! – जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती


रतनपुर (छत्तीसगड) :  छत्तीसगड राज्यके सिद्धपीठ रतनपुरके श्री महामाया मंदिरके प्रांगणमें श्री शंकराचार्य परंपराके पुरी पीठकी ओरसे आयोजित पंधरावें ‘साधना व राष्ट्ररक्षा’ शिविरको आज आरंभ हुआ । पुरी पीठके जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वतीने यहां आयोजित ‘साधना व राष्ट्ररक्षा’ शिविरके उद्घाटनके सत्रमें मार्गदर्शन करते हुए बताया, ‘‘ मानवका आकर्षण अपने मूल स्वरूपकी ओर होता है । साधनाके माध्यमसे इस मूल स्वरूपको प्राप्त करनेपर कामिनी, धन तथा अहंकारकी चाह नष्ट होकर सच्चा समाजहितका कार्य करना संभव है । श्रीराम स्वयं अवतार होते हुए भी उनके मंत्रीमंडलमें २२ से २७ मंत्री जीवनमुक्त थे । उस समय रामराज्य था । इसलिए राष्ट्रकार्य साध्य करने हेतु साधना करना आवश्यक है ’’ । यह शिविर २५ से २७ अप्रैल ऐसे तीन दिनतक चलेगा तथा इसमें स्वयं जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती महाराज मार्गदर्शन करेंगे । शिविरमें पूरे देशसे साधक, भक्त एवं विविध संगठनोंके प्रतिनिधि ऐसे कुल मिलाकर ३०० लोग उपस्थित हैं । नेपालके राजगुरु श्री माधव भट्टराय, तथा हिंदू जनजागृति समितिके राष्ट्रीय मार्गदर्शक पू. डॉ. चारुदत्त पिंगले एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री. रमेश शिंदे भी इस शिविरमें उपस्थित हैं ।

सवेरे १० बजे जगद्गुरु शंकराचार्यने देवी-देवताओंकी पूजा कर अखंड हनुमान चालीसा पठन करना आरंभ कर दिया । तत्पश्चात श्री महामाया देवीका दर्शन कर जगद्गुरु शंकराचार्य शिविरस्थलपर उपस्थित हुए । तदुपरांत उद्घाटन सत्रमें ‘जीवनका उद्देश्य एवं साधन-साध्य विवेक’ इस विषयपर दिव्य मार्गदर्शन करते समय श्री शंकराचार्यजीने कहा, ‘‘ आस्तिक हो अथवा नास्तिक, मानव हो अथवा प्राणी, नर हो अथवा नारी सबका खिंचाव सत्-चित्-आनंदकी प्राप्ति एवं मृत्युंजयी बननेकी ओर ही होता है । जिसप्रकार मनुष्यको यदि प्यास लगी, तो पानी प्यास बुझाता है; परंतु पानीको यदि प्यास लगी, तो उसे ‘ तुझमें ही प्यास बुझानेकी क्षमता है ’, यह उसका मूल स्वरूप ध्यानमें लाकर देना पडेगा । उसीप्रकार मानवको उसका मूल ईश्वरस्वरूप ध्यानमें लाकर देना चाहिए । हम ‘ मैं हूं ’, यह अनुभूति निरंतर लेते रहते हैं । इसलिए निश्चित रूपसे कह सकते हैं कि मेरी मृत्यु नहीं हुई, तथा कल मृत्युदेवताके साक्षात् दिखनेपर भी उसे देखनेवाले हम साक्षी होते हैं अर्थात उस समय भी अपना अस्तित्व रहता ही है; इसीलिए हमें आज भी मृत्यु नहीं; एवं भविष्यमें भी मृत्यु नहीं है । परंतु तब भी मृत्युका विचार मानवके लिए अत्यधिक कष्टदायी होता है; इसलिए अपना यथार्थ  स्वरूप जाननेपर मृत्युपर विजय पाना संभव है ।’’

भगवद् गीतामें भगवानने कहा है, ‘ जीव मेरा ही अंश है । ’ यहां ‘ ही ’ प्रत्यय नास्तिक मानसिकताके विचारोंका निर्मूलन करने हेतु प्रयुक्त किया गया है । नास्तिकतावादी शरीरको ही आत्मा मानते हैं । शरीर भौतिक है । तब भी हमें यह ध्यानमें रखना चाहिए कि हम भौतिक नहीं है । ईश्वर सनातन है, जबकि मानव नश्वर है, यह बताते हुए, ‘ हम ईश्वरके अंशसमान हैं । अंश नहीं ’, यह सूत्र सिद्ध करने हेतु उदाहरण देते समय पूज्य शंकराचार्यजीने कहा, ‘ नभोमंडलमें दिखनेवाला नभसूर्य होता है । उसका पानीमें प्रतिबिंब दिखाई देता है, जिसे जलमें सूर्य कहते हैं । वह ठीक वैसा ही दिखता है, परंतु तब भी वह नभसूर्य नहीं है, परंतु जलसूर्यका मूल रूप नभसूर्य ही है ’, यह ध्यानमें लेना चाहिए ।

मानवका सच्चा खिंचाव ईश्वरकी ओर ही रहता है, यह सूत्र बताते हुए पू. शंकराचार्यजीने कहा, ‘‘ हमें जब गहरी नींद आती है, तब हमें मृत्युकी स्थितिका अनुभव होता है । इस समय धन, कामिनी, प्राण, मन, चित्त, अहंकार सभीका हमें विस्मरण होता है । विश्वसुंदरीको भी अपना रूप भूले बिना गहरी निद्रा आना संभव नहीं है; इसका अर्थ यही है कि गहरी नींदके समय जो जो विषय हम भूलते हैं, उनकी ओर हमारा सच्चा आकर्षण रहता ही नहीं । हम जिस विषयमें आनंद ढुंढनेका प्रयास करते हैं, वह उस विषयमें नही, अपितु हमारे अंदर ही रहता है । इसलिए हम सच्चिदानंद, मृत्युंजयी तथा ज्ञानस्वरूप हैं । शास्त्रोंके आचरणका महत्त्व बताते हुए शंकराचार्यजीने कहा कि नल-दमयंती कथामें नलके शरीरमें प्रवेश करने हेतु कलीको प्रतीक्षा करनी पडी । अंततः मूत्रविसर्जनके पश्चात पांवका थोडासा अंश धोनेका शेष रह गया था । इसलिए कलीने नलके शरीरमें प्रवेश किया । इससे उन्होंने कहा कि इतनी छोटीसी त्रुटीके कारण कली शरीरमें प्रवेश करता है, तो आजका आचरण देखनेपर सभी लोग कलीके प्रभावमे क्यों हैं, समझमें आना संभव है तथा यदि विद्यमान शासन रहा, तो आगामी कालावधिमें सभी लोग चलते-फिरते कली ही बनेंगे ।’’

कला एवं विद्यामें अंतर स्पष्ट करते हुए श्री शंकराचार्यने कहा, ‘‘ जहां वाणीको प्रधानता है, वह विद्या होती है, एवं जहां वाणीका उपयोग नहीं होता, वहां कला होती है ।’’ ३२ विद्या एवं ६४ कलाओंमें तज्ञ ही जगद्गुरु बनना संभव है । ब्राह्मण होनेपर भी उसे चप्पल सीनेकी कला आनी चाहिए । इस विषयकी परिसमाप्ति करते समय शंकराचार्यजीने कहा, ‘‘ निष्काम कर्म, उपासना, समाजहित तथा ज्ञान मानवकी मुक्तिके सोपानमार्ग है ।’’

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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