मनुष्यको यदि स्वाभिमान न हो तो उस कारण होनेवाली उसकी हानि एवं अवनति !

वैशाख कृष्ण पक्ष त्रयोदशी, कलियुग वर्ष ५११६

. . . ऐसा न हो, इस हेतु स्वाभिमान जगाएं तथा सीना तानकर जीना सीखें !


वर्तमानमें अपने देशमें सर्वधर्मसमभावकी हवा चल रही है । इस देशमें अठारह (अनेक) जाति, अनेक पंथ तथा संप्रदाय हैं । साथ ही विविध देशोंके लोग भी यहां रहते हैं । भारत देश आरंभसे ही सहिष्णुता हेतु प्रसिद्ध है । इसी गुणके कारण मूल रूपसे हिंदु राष्ट्र होते हुए भी यह देश विविध जाति एवं धर्मके लोगोंको स्वयंमें समाते रहा है । किंतु सबको समाते हुए यहांका समाज अपना स्वत्व अर्थात स्वाभिमान भूल रहा है । इसके परिणामस्वरूप व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवनमें तथा संपूर्ण विश्वमें किसी भारतीयकी ओर तुच्छ दृष्टिसे देखा जाता है, उसकी मानहानि की जाती है । इसका कारण भारतीयोंकी पराभूत मानसिकतामें है । 

अत: कोई बिनाकारण अपना अपमान करे, कोई बुरी बात कहे, कोई बिनाकारण कष्ट दे, तो कोई भारतीय उसका विरोध नहीं करता तथा उसका प्रत्युत्तर भी नहीं देता । इसका कारण उसके स्वाभिमानकी पराकोटिका अभाव ही है । किसी भी मानवमें स्वाभिमान न हो, तो उसकी बडी हानि होती है, उसका जीवन दिशाहीन होकर भटकता है तथा अंतमें उसकी अवनति होती है । वर्तमानमें संपूर्ण भारतीय समाज तथा भारत देश भी स्वाभिमानशून्यताके कारण अवनतिकी ओर अग्रसर है । इसका अंतिम चरण सर्वनाश ही होगा । 

  यह सब न हो, इस हेतु इस लेखमें स्वाभिमानका अर्थ क्या है, उसे स्वयंमें कैसे उत्पन्न कर सकते हैं, स्वाभिमान न होनेके कारण होनेवाली हानि, उसका जतन करने हेतु आवश्यक सूत्रोंकी चर्चा करते हैं । 

१. स्वाभिमानका अर्थ क्या है ?

स्वाभिमान यह शब्द स्व तथा अभिमान इन दो शब्दोंसे बना है । इसका अर्थ है स्वविषयमें उचित पद्धतिसे संवेदना विकसित कर उसका सार्थ अभिमान अनुभव करना । 

२. स्वयंमें स्वाभिमान कैसे उत्पन्न कर सकते हैं ? 

स्वयंमें स्वाभिमान उत्पन्न होने हेतु सर्वप्रथम, हम कौन हैं, कहां रहते हैं, अपना धर्म कौनसा है, उस धर्मके तत्त्व कौनसे हैं, अपनी मातृभाषा कौनसी है, इन सभीका विस्तारसे चिंतन करना आवश्यक है । ऐसा चिंतन करनेपर ही हममें उन सूत्रोंके प्रति अभिमान उत्पन्न हो सकता है । यह बात हम उदाहरणोंके द्वारा समझ लेते हैं । 

२ अ. मातृभूमि भारत : हम भारतमें रहते हैं, यदि हम भारतका इतिहास पढें, तो हमें अपनी भारतमाताके प्रति अगाध प्रेम उत्पन्न होगा तथा इस भारतभूमिमें हमारा जनम होनेके कारण हमें अभिमान अनुभव होगा । 

२ आ. हिंदु धर्म : मैंने महान हिंदु धर्ममें जनम लिया है, अत: हिंदु धर्मके तत्त्व कौनसे हैं, तथा इस महान धर्मपर अबतक कितने आघात हुए, उन्हें निरस्त करने हेतु कितने धर्मभास्करोंने प्रयास कर अपना जीवन अर्पण किया, अपने धर्मपर इतने आघात क्यों होते हैं ? उन्हें रोकने हेतु मैं क्या प्रयास करूं, ऐसा विचार करनेके पश्चात अपना धर्म कितना महान है, इसका हमें साक्षात अनुभव होगा, तथा हमें भी वैसा करना चाहिए, ऐसा लगेगा । धर्मके तत्त्व आचरणमें लानेसे हमें ईश्वरकी अनुभूति आएगी तथा उसपर अपनी श्रद्धा दृढ होगी एवं हममें धर्माभिमान उत्पन्न होगा । 

३. स्वाभिमान न होनेके कारण होनेवाली हानि

अंग्रेज यहांसे चले गए, किंतु उनका ‘सूट-बूट-टाई’, आज भी ये वस्त्र धारण करनेवाले तथा अभीतक दास्यतामें ही रहनेवाले भारतीय ! : मनुष्यको जब अपना स्वधर्म, स्वराष्ट्र, स्वभाषा आदिके प्रति अभिमान नहीं लगता, उस समय अधिक मात्रामें उसकी हानि होती है । ऐसे व्यक्तिके जीनेका कोई आधार ही नहीं, ऐसा इसका अर्थ होता है, अर्थात उसकी पाटी (स्लेट) खाली होती है । वह नई बातें सहजतासे स्वीकार करता है । उसमें स्वत्व एवं सात्त्विकता न होनेके कारण वह अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित निश्चित नहीं कर पाता । अत: सुधारके नामपर वह अन्य धर्म अथवा संस्कृतिकी बुरी बातें ही स्वीकार करना आरंभ करता है तथा तदनुसार आचरण करना अर्थात मैं भी बडा सुधारवादी बन गया, उसे ऐसा दुराभिमान हो जाता है ।

ऐसा करते हुए अपना धर्म तथा संस्कृति भूल जानेके कारण अपनी अवनति हो रही है, यह उसकी समझमें ही नहीं आता है । इसका एक उदाहरण है, अंग्रेज यहांसे गए; किंतु उनका सूट-बूट-टाई, कई भारतीय आज भी यह पोशार्क भारतीय धारण करते हैं । ऐसा पोशाक धारण करना अर्थात स्वयंकी समृद्धि, उच्च रहन-सहन तथा आधुनिकताका प्रदर्शन करना, ऐसा उन्हें लगता है; किंतु ऐसा करनेसे हम अपनी महान संस्कृति छोडकर पाश्चात्त्य संस्कृतिके अनुसार पोशाक धारण कर हम दूसरोंके तलवे चाट रहे हैं तथा अभीतक दास्यभावमें ही घूम रहे हैं, इसका होश उन्हें नहीं रहता । इससे अपनी पोशाकके कारण होनेवाले अध्याति्मक लाभसे भी हम वंचित रहते हैं, यही भारतीयोंकी होनेवाली अवनति है ।

अपनी पोशाक, केशरचना, अलंकार आदि सब सात्त्विक कैसे हैं, यह ध्यानमें आनेपर अपनी संस्कृतिके प्रति अपना अभिमान और बढेगा । 

४. स्वधर्म तथा स्वराष्ट्रका अभिमान न होनेके कुछ उदाहरण

४ अ. अपने ही हाथों अपने स्वधर्म एवं स्वराष्ट्रका अपमान करनेवाले गायक-गायिका ! : एक बार भारतके २ गायक-गायिका पाकिस्तान गए थे । उनके मुसलमान मित्रकी पहचानसे वहांकी आकाशवाणीपर उनका (गानेका) कार्यक्रम हानेवाला था; किंतु पाकिस्तानमें भारतीय गायकोंको गानेकी अनुमति न होनेके कारण उनके मुसलमान मित्रने उनके मुसलमान होनेकी बात बताने हेतु उन्हें मुसलमानोंकी पोशाक पहननेको कहा । उसपर उन दोनोंने वैसा किया, अर्थात उस गायिकाने कुंकुम नहीं लगाया तथा बुरखा पहन लिया । यह केवल स्वधर्म तथा स्वराष्ट्रका अभिमान न होनेका नहीं अपितु स्वधर्म तथा स्वराष्ट्रका अपमान करनेका निदर्शक है । इससे अन्य देशोंमें अपना तो अपमान होता ही है; साथमें अपने अनुचित कृत्यसे हम धर्महानि करते हैं तथा अपने ही हाथों अपने स्वधर्म एवं स्वराष्ट्रका अपमान करते हैं । यह महापाप है । 

४ आ. अंग्रेजीमें शिक्षा लेनेवाले सहस्रों भारतीय ! : आज लाखों भारतीय अंग्रेजीमें शिक्षा लेते हैं । इससे उन्हें भोगवादी पाश्चात्त्य संस्कृतिका आकर्षण बढनेसे वे अपना धर्म, संस्कृति तथा मातृभाषा भूल रहे हैं । अत: इन्हें उनका अभिमान लगना बहुत दूरकी बार्त है । 

४ इ. धर्मपालन न करनेवाली स्त्रियां एवं लडकियां : आज अनेक स्त्रियां एवं लडकियां पाश्चात्त्य संस्कृतिका आचरण करती हैं । इससे केश काटना, कुंकुम न लगाना, चूडियां न पहनना, विशेष कर मंगलसूत्र भी न पहनना आदि स्वधर्मके विरुद्ध भयावह कृत्य वे कर रही हैं । 

४ ई. नमस्कार न कर हस्तांदोलन करनेवाले राजनैतिक नेता ! : अपने प्रधानमंत्री अथवा कोई भी राजनैतिक नेता जब विदेश जाते हैं, उस समय वहांके राजनैतिक नेताओंसे हस्तांदोलन करते हैं । हम अपनी भारतीय तथा हिंदु संस्कृतिके अनुसार दोनों हाथ जोडकर नमस्कार करें, ऐसा उन्हें नहीं लगता । इसीसे उनकी स्वाभिमानशून्यता प्रकट होती है तथा वे स्वयंके साथ अपने देश एवं धर्मको गर्दन झुकानेपर बाध्य करते हैं । 

४ उ. ‘बुफे’ भोजन : अपनी संस्कृतिके अनुसार हम लकडीके आसनपर भोजन करने बैठते हैं । तत्पश्चात हमने टेबल-कुर्सीपर (पटल-आसंदीपर) बैठकर भोजन करनेकी पद्धति स्वीकार की । अब तो विवाहमें ‘बुफे’ पद्धति आ गई है । उसमें हम हिंदु धर्मीय पांवमें चपलें पहनकर ही भोजन परोसते तथा भोजन करते हैं । ‘ उदरभरण नोहे जाणिजे यज्ञकर्म ।’ यह शिक्षा हम कितनी सरलतासे भूल कर त्वरित कुसंस्कार सीख गए । धर्माभिमान न होनेके कारण ही यह सब हो रहा है । 

५. स्वधर्म तथा स्वराष्ट्रका अभिमान होनेके उदाहरण

५ अ. विदेशमें विश्वबंधुत्वका पाठ पढानेवाले तथा सभीको महान हिंदु धर्मका दर्शन करानेवाले स्वामी विवेकानंद ! : स्वामी विवेकानंदने विदेशमें अपने भाषणका, ‘ भाई-बहनों ’, ऐसा आरंभ कर अपने विश्वबंधुत्वकी शिक्षा देनेवाले सभीको महान हिंदु धर्मका दर्शन कराया तथा विश्वमें हिंदु धर्म तथा भारतका महत्त्व बढाया । उनका वेष भी भारतीय पद्धतिका था । 

५ आ. पूर्वके हिंदु राजा तथा छ. शिवाजी महाराजका वेष हिंदु पद्धतिका था । लो. तिलकका पोशाक भी पूर्णतया हिंदु पद्धतिका था । धोती, लंबा कुरता, उपवस्त्र तथा सिरपर पुणेकी पगडी ऐसी जबरदस्त पोशाकसे उन्होंने हिंदु संस्कृतिका दर्शन कराया । 

६. स्वाभिमान जतन करने हेतु करनेयोग्य प्रयास 

६ अ. नित्य मातृभाषामें ही बात करें, अपने सारे दैनंदिन व्यवहार इसी भाषामें करें । अन्य लोगोंको भी इससे अवगत कराएं । 

६ आ. अपनी पोशाक भी भारतीय तथा हिंदु संस्कृतिके अनुसार हो । कहीं भी जाएं, हमें अपनी पोशाक धारण करनेमें लज्जा न आए । 

६ इ. राष्ट्रके प्रति अभिमान उत्पन्न होने हेतु महान राष्ट्रीय युगपुरुष छ. शिवाजी महाराज, स्वा. सावरकर, पूर्वके हिंदु राजाओंके चरित्र पढें तथा भारतके गौरवशाली इतिहासका नित्य स्मरण करें । 

ई. हम कहीं भी जाएं, अन्य लोगोंको हमसे हमारी महान संस्कृतिके ही दर्शन हों । 

७. हिंदुओ, अन्य लोगोंका अंधानुकरण कर आप अपने देश-धर्मको भूलेंगे, उस समय आप सच्चे अर्थमें स्वतंत्र न रहकर तथा स्वत्व छोडनेके कारण आप नित्य ही पराभूत मानसिकतामें रहेंगे एवं आप अपना आत्मविश्वास खो बैठेंगे ! : हिंदुओ, सदैव यह ध्यानमें रखें कि जिस समय आप अन्य लोगोंका अंधानुकरण कर अपने देश-धर्मको भूलेंगे, उस समय सच्चे अर्थमें आप स्वतंत्र न रहेंगे । आपने कितना धनार्जन किया, सुख-सुविधाओंका उपभोग लिया, इसके पश्चात भी आप पिछडे हुए ही रहेंगे तथा सदा दूसरोंके उपकारोंके नीचे दबकर रहना पडेगा । स्वत्व छोडनेसे आप नित्य पराभूत मानसिकतामें रहेंगे तथा आप अपना आत्मविश्वास खो बैठेंगे । आप एक दिशाहीन, भटके हुए, उच्च नैतिक मूल्य नष्ट होनेसे ध्येयहीन तुच्छ जीवन जीते रहेंगे ।

इससे अपना घर, परिवार, समाज, राष्ट्र तथा अंतमें संपूर्ण विश्वमें कोई भी आपका सम्मान नहीं करेगा ।

आपका अस्तित्व भी शेष नहीं रहेगा ।

ऐसा न हो, इस हेतु स्वाभिमान जगाएं तथा सीना तानकर जीना सीखें ! 

– श्रीमती राजश्री खोल्लम (२१.४.२०१०)

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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