वैशाख अमावस्या, कलियुग वर्ष ५११६
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साधनाके लिए अनुकूल राष्ट्र बनाने हेतु यंत्रयुगका विनाश होना आवश्यक है । ऐसा कहा गया है कि कृतयुगके संधिकालमें भगवान कल्किका अवतार होगा । यदि आजके विज्ञानयुगका विचार किया गया, तो भगवान कल्किका वाहन जीप तथा मोटार देना चाहिए था एवं शस्त्र बंदुकके समान होने चाहिए थे ! कुछ लोगोंको ऐसा प्रतीत होगा कि पूर्वके ऋषिमुनियोंको आधुनिक समयका ज्ञान न होनके कारण उन्होंने भगवान कल्किको प्राचीन समयके अनुसार अश्व वाहनवाला तथा धनुष्य-तलवार धारण किया हुआ बताया होगा ! परंतु ऐसा नहीं है । वास्तवमें प्राचीन समयमें आजके आधुनिक समयके शस्त्रसे प्रचंड क्षमतावाले शस्त्र उपयोगमें लाए जाते थे । वर्तमान समयमें वे लुप्त हो गए हैं । ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अनेक शस्त्र-अस्त्र थे । से सभी अस्त्र मंत्रात्मक थे । गायत्री मंत्रके अनुलोम-विलोमसे ये दिव्यास्त्र बनते थे । अकेले पाशुपत अस्त्रसे भगवान शिव सृष्टिका संहार कर सकते थे । उन्होंने इस अस्त्रको अर्जुनको देते समय इसका उपयोग विशेष रूपसे सीमित सीमातक ही करनेके लिए कहा था । हिंदु धर्ममें दिव्यास्त्रोंका जो महत्त्व है, वह अब अमरिकादि सभी पाश्चात्त्य देशोंके ध्यानमें आ रहा है, परंतु वे भारतको मूर्ख बनाकर आधुनिक शस्रोंका विक्रय कर व्यापार कर रहे हैं । हमें ध्यानमें रखना चाहिए कि यदि भगवान कल्की अश्व वाहन एवं धनुषबाण धारण कर आनेवाले हैं, तो कृतयुगके संधिकालमें आजके इस यंत्रयुगका निश्चित रूपसे विनाश होगा ।
राजा धर्माचरण करनेवाला क्यों रहे, इस संदर्भमें बताते हुए पूज्य शंकराचार्यजीने कहा, ‘‘यदि राजा संयमी एवं धर्माचरणी है, तो पृथ्वीका विस्तार होता है; जबकि राजा अधर्मी एवं दुराचारी हो, तो पृथ्वी सिकोड जाती है । जिसप्रकार सर्प बिलमें प्रवेश करनेके पश्चात सिकोड जाता है एवं बिलके बाहर आनेपर लंबा होता है । धर्मग्रंथमें कहा गया है कि ७ द्वीपोंसे पृथ्वी उत्पन्न हुई है । वर्तमान समयकी अधर्मी राजनीतिके कारण आज पृथ्वीका केवल एक ही द्वीप शेष है ।
अपनी साधनाके विषयमें बताते हुए पू. शंकराचार्यजीने कहा, ‘‘मैं बचपनसे भगवानकी पूजा होनेपर भगवानसे ‘ हे भगवन, मुझे धन न दे, अपितु निर्धन बना दे, यही मांग करता था । उस समय मुझे उसका अर्थ भी नहीं समझता था । आज भी मैं श्वास लेता हूं, तो समाजहितके लिए एवं ईश्वरको अभिषेकके रूपमें एक जलका थेंब भी अर्पण करता हूं चढाता हूं, तो राष्ट्रके हितके लिए !
देवताओंके भी स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर होते हैं, उदा. देवताओंका सूक्ष्मदेह तंत्र है , मंत्र कारणदेह है तथा यंत्र (उदा. श्रीयंत्र) है । सृष्टि पूर्ण नियमबद्ध होती है । जो लोग सृष्टिको व्यापकतासे देखनेवाले लोगोंको सृष्टिके नियम ध्यानमें आते हैं, जैसे प्राचीन समयमें ऋषिमुनी रचना करते थे एवं आधुनिक समयमें न्यूटनसमान वैज्ञानिक गुरुत्वाकर्षणका नियम ध्यानमें आया । पृथ्वी, जल, वायु तथा आकाश इन सभी तत्वोंमें विद्यमान व्यापक सिद्धान्तका शोधन करना ही तंत्र है । इन तंत्रोंको गणितके स्वरूपमें प्रस्तुत करना होता है एवं गणितके आधारपर आगे यंत्रोंकी निर्मिती होती है ।
राजतंत्र एवं व्यासपीठके शुद्धिकरण हेतु गुरुकी आज्ञासे साधना करना आवश्यक- पू. (डॉ.) चारुदत्त पिंगले
पुरी पीठद्वारा आयोजित रतनपुर, छत्तीसगडके ‘साधना एवं राष्ट्ररक्षा’ शिविरमें ‘शासनतंत्र एवं व्यासपीठका शुद्धिकरण एवं सामंजस्यका स्वरूप’ विषयपर सूत्र प्रस्तुत करने हेतु पुरी पीठके जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वतीजीने हिंदू जनजागृति समितिके पू.(डॉ.) चारुदत्त पिंगलेको आमंत्रित किया । श्री पिंगलेजीने मार्गदर्शन करते हुए कहा, ‘‘धर्मका विस्मरण होनेके कारण जिस समय हम केवल भौतिक स्थितिका विचार करते हैं, उस समय राजतंत्रका अधःपतन देखना पडता है । उसीप्रकार साधना एवं इंद्रियनिग्रह करनेकी अपनी अनिच्छाके कारण स्वार्थी तत्त्व व्यासतंत्रमें प्रवेश करते हैं एवं व्यासपीठका अधःपतन होता है । हमने यदि पूज्य शंकराचार्यजी समान गुरुके मार्गदर्शनमें साधना कर नियमित प्रसार किया, तो दोनोंका ही शुद्धिकरण हो सकता है ।’’
वर्तमान समयके लोकतंत्रकी प्रमुख त्रुटि यह है कि निर्णयप्रक्रिया ही बहुमतपर आधारित है । धर्म-अधर्मपर नहीं । इसलिए संसदमें जानेवाले प्रतिनिधि मतोंके आधारपर निर्णय लेते हैं । वे निश्चित रूपसे धर्मसे अथवा व्यासपीठसे सम्मत होंगे, ऐसा नहीं है । इसलिए हमें शंकराचार्यजीके मार्गदर्शनमें जनहितकारी पितृशाहीका समर्थन कर समाजकी पारलौकिक उन्नतिके लिए कार्यरत व्यक्तिके हाथमें राजतंत्र सौंपना चाहिए ।
जिसप्रकार आद्य शंकराचार्यजीने चार पीठोंको स्थापित कर व्यासपीठका शुद्धिकरण किया, उसीप्रकार आज गोवर्धनपीठ समान ज्ञानी एवं गुरुबलसे कार्यरत पीठके मार्गदर्शनमें व्यासपीठके शुद्धिकरण कार्य करना चाहिए ।
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात