गिरिराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में सर्वोच्च केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग। केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ है करीब २२ हजार फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी आेर है २१ हजार ६०० फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है २२ हजार ७०० फुट ऊंचा भरतकुंड। न सिर्फ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है यहां- मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ का अब अस्तित्व नहीं रहा लेकिन अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी आज भी मौजूद है। इसी के किनारे है केदारेश्वर धाम। यहां सर्दियों में भारी बर्फ और बारिश में जबरदस्त पानी रहता है।
यह उत्तराखंड का सबसे विशाल शिव मंदिर है, जो कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग के हैं। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह अपेक्षाकृत प्राचीन है जिसे ८०वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में अर्धा के पास चारों कोनों पर चार सुदृढ पाषाण स्तंभ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। अर्धा, जो चौकोर है, अंदर से पोली है और अपेक्षाकृत नवीन बनी है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तंभों पर टिकी है। विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण मूर्तियां हैं, जो अत्यंत कलात्मक हैं।
८५ फुट ऊंचा,१८७ फुट लंबा और ८० फुट चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें १२ फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को ६ फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा किया गया है। यह आश्चर्य ही है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी। खासकर यह विशालकाय छत कैसे खंभों पर रखी गई। पत्थरों को एक-दूसरे में जोडने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मजबूती और तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।
मंदिर का निर्माण इतिहास
पुराण कथा अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है।
यह मंदिर मौजूदा मंदिर के पीछे सर्वप्रथम पांडवों ने बनवाया था, लेकिन वक्त के थपेड़ों की मार के चलते यह मंदिर लुप्त हो गया। बाद में 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने एक नए मंदिर का निर्माण कराया, जो 400 वर्ष तक बर्फ में दबा रहा।
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था। माना जाता है कि एक हजार वर्षों से केदारनाथ पर तीर्थयात्रा जारी है। कहते हैं कि केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। बाद में अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका जीर्णोद्धार किया था।
मंदिर के कपाट खुलने का समय
दीपावली महापर्व के दूसरे दिन (पड़वा) के दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 माह तक दीपक जलता रहता है। पुरोहित ससम्मान पट बंद कर भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ में ले जाते हैं। 6 माह बाद मई माह में केदारनाथ के कपाट खुलते हैं तब उत्तराखंड की यात्रा आरंभ होती है।
6 माह मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता है, लेकिन आश्चर्य की 6 माह तक दीपक भी जलता रहता और निरंतर पूजा भी होती रहती है। कपाट खुलने के बाद यह भी आश्चर्य का विषय है कि वैसी ही साफ-सफाई मिलती है जैसे छोड़कर गए थे।
ASI ने उजागर किया ये राज…
आस्था के प्रतीक केदारनाथ मंदिर के कुछ महत्वपूर्ण राज पहली बार उजागर हो पाए हैं। हालही में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआई) को मंदिर के ११ -१२वीं सदी के प्रमाण मिले हैं।
केदारनाथ मंदिर की दीवारों पर गोदे गए अक्षरों (पुरालेखों) के अध्ययन के बाद विभाग इस निष्कर्ष पर पहुंचा है। मंदिर की दीवारों पर प्रारंभिक नागरी व नागरी में लिखे अक्षर मिले, जो ११ -१२वीं सदी में ही लिखे जाते थे।
जून २०१३ की आपदा में केदारनाथ मंदिर के भीतर जमकर मलबा भर गया था। एएसआइ को मलबे की सफाई के दौरान मंदिर की दीवारों पर जगह-जगह अक्षर (पुरालेख) गुदे हुए मिले, जिनके अध्ययन के लिए मैसूर से विभाग की इफिग्राफी ब्रांच के विशेषज्ञ बुलाए गए थे।
इफिग्राफी ब्रांच के निदेशक डॉ. रविशंकर की ओर से अध्ययन रिपोर्ट पूरी कर विभाग के महानिदेशक व क्षेत्रीय कार्यालय, देहरादून को भेजी गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरालेख प्रारंभिक नागरी व नागरी में दर्ज हैं, जिससे माना जा सकता है कि मंदिर ११ -१२वीं सदी में अस्तित्व में आया।
विशेषज्ञों ने चिंता भी जाहिर की कि पुरालेखों में किसी तारीख का उल्लेख नहीं मिला। न ही किसी राजवंश का नाम दीवारों में दर्ज पाया गया। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी पता चला कि पुरालेख मंदिर में आने श्रद्धालुओं या आमजन के थे। इनकी लिखावट आड़ी-तिरछी पाई गई, क्योंकि किसी राजा या खास पुरालेख में बनावट आदि का विशेष ख्याल रखा जाता था। पुरालेखों में दान देने, भगवान को नमन करने व मंदिर तक सकुशल पहुंचने आदि का जिक्र मिला।
मंदिर की दीवारों पर गोदे गए अक्षरों के अध्ययन के बाद इपिग्राफी (पुरालेख) विशेषज्ञों ने निकाला निष्कर्ष निकाला कि प्रारंभिक नागरी व नागरी ये अक्षर (पुरालेख) टंकित किए गए हैं।
बेहद खराब हो चुके हैं पुरालेख रिपोर्ट में इपिग्राफी विशेषज्ञों ने चिंता जाहिर की कि पुरालेखों की दशा रखरखाव के अभाव व मौसम की विषम परिस्थितियों के चलते बेहद खराब स्थिति में पहुंच गई है।
नियंत्रण के अभाव में दीवारों पर कुछ जगह पुरालेख एक दूसरे के ऊपर भी दर्ज हैं। जिससे ऐसे अक्षरों को पढ़ पाना संभव नहीं हो पाया।
अब तक मंदिर निर्माण की मान्यताएं-एक मान्यता के अनुसार केदारनाथ मंदिर को आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने बनाया। जबकि राहुल सांकृत्यायन लिखित अभिलेखों में मंदिर को १२ -१३वीं शताब्दी का बताया गया।
वहीं, ग्वालियर में मिली एक राज भोज स्तुति में मंदिर को १०७६ -९९ काल का माना गया। पांडव या उनके वंशज जन्मेजय के समय भी मंदिर निर्माण की बात सामने आती है।
स्त्रोत : नई दुनिया
शंकराचार्य रचित द्वादश ज्योतिलींग स्त्रोत्र मे *हिमालये तु केदारम् *बताया गया है ईसलीये शिवलींग पर शिवालय बनवाना और पुनः निर्माण का समय अलग अलग हो सकता है. ? ॐ नमः शिवाय ? ? ? ? ?. ? जय हिंद ?