वैशाख शुक्ल पक्ष अष्टमी, कलियुग वर्ष ५११६
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भारत में निर्वासित जीवन गुजार रही बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन ने कायदे की बात की है। उन्होंने ट्वीट करके पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से पूछा कि उन्हें अगर बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों की इतनी फिक्र है तो उन्हें उनकी (तसलीमा) की चिंता क्यों नहीं। उन्हें ममता दी कोलकाता में रहने की अनुमति क्यों नहीं देती। इसलिए क्योंकि वो भारत में नियम-कानून के आईं हैं। तसलीमा का सवाल बेहद वाजिब है। ममता बैनर्जी ने हाल ही में असम में साम्प्रदायिक दंगे भड़कने के बाद तमाम तरह के बयान दिए थे जिससे साफतौर पर लगा कि वो मुसलमानों को अपने पक्ष में करना चाहती है। ममता और उनकी पार्टी के नेताओं को तसलीमा के सवालों के जवाब देने होंगे। तसलीमा भारत में मुस्लिम कठमुल्ला संगठनों के भय के कारण अज्ञात स्थान पर रहती हैं।
आपको याद होगा कि उन्होंने कोलकाता लौटने की उम्मीदें छोड़ ही दी हैं। कोलकाता में उनकी किताबें उपलब्ध है लेकिन उन्हें इधर आने की अनुमति नहीं है। वर्ष २०१२ में कोलकाता पुस्तक इसी मेले में उनकी किताब ‘निर्बासन’ का लांच रद्द कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में हालात बिल्कुल नहीं बदले हैं और उन्हें वापसी की कोई उम्मीद नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘ पश्चिम बंगाल में हालात बांग्लादेश जैसे हैं। बंगाल सरकार ने मेरे प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। तसलीमा का सबसे बड़ा कसूर यह है कि उस ने बंगलादेश में हिन्दुओं पर होते रहे अत्याचार पर भी आवाज उठाई, जिन के लिए विश्व भर में कोई नहीं बोलता! स्वयं हिन्दू भी नहीं। बंगलादेश, फिजी हो या स्वयं भारत के कश्मीर या नगालैंड प्रांतों में, हिन्दुओं के लिए बोलने वाला कोई नहीं। मुस्लिम कट्टरपंथ और मुस्लिम उदारवादियों के बीच भी अपनी स्त्रियों की स्थिति पर जो असहमति हो, किंतु गैर-मुसलमानों पर वे प्रायः एकमत दिखते हैं। पूरे मुस्लिम इतिहास में इस पर कोई मुस्लिम स्वर नहीं उठा कि इस्लाम ने सदियों से गैर-मुसलमानों के साथ क्या-क्या अत्याचार किए। यही बात उठाकर तसलीमा ने अपने को उन कथित उदारवादी मुस्लिमों के लिए भी त्याज्य बना लिया जो आधुनिक, सेक्यूलर कहलाते हैं।
इस से पहले तसलीमा को भारत में रहने का वीसा भी पुनः किसी तरह मिला। कारण वही मजहबी कट्टरपंथियों का विरोध। स्थाई वीसा का उनका आवेदन वर्षों से अनिश्चित अवस्था में पड़ा है। इस बीच उलेमा का एक वर्ग उन्हें निकालने की माँग करते हुए दबाव डाल रहा है। यहाँ तक कि चार वर्ष पहले में हैदराबाद में उन पर जानलेवा हमला किया गया। तब आंध्र विधान सभा के तीन विधायकों ने अफसोस जताया कि वे नसरीना को मार डालने से चूक गए। उन विधायकों और हमलावरों को कोई सजा नहीं मिली! पेशेवर आतंकवादियों के लिए भी ‘मानव अधिकार’ के जोशीले भाषण देने वाले हमारे रेडिकल बुद्धिजीवियों ने उस पर भी एक शब्द नहीं कहा। उन्हें भारत में रहने की अनुमति मिल जाने के पीछे भी विदेशी बौद्धिकों के आग्रह का अधिक योगदान है, हमारे लोग तो चुप से ही रहे।
एक अर्थ में तसलीमा रूपी यह अकेली, निर्वासिता नारी एक दर्पण है जिस में हम अपना चेहरा देख सकते हैं। हमारा सेक्यूलरिज्म, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कानून का शासन, मीडिया का अहंकार, न्यायाधीशों का रौब, इस्लामी कट्टरपंथियों का ‘मुट्ठी-भर’ होना, उदारवादी मुसलमानों का हवाई अस्तित्व, नारीवादियों की उग्र दयनीयता और मानवाधिकार आयोग के पक्षपात – सभी इस दर्पण में देखे जा सकते हैं। तसलीमा ने मुस्लिम स्त्रियों की दुर्गति पर निरंतर आवाज उठाई है। तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा’ में जो बातें कही गई गई हैं, वह अक्षरशः सत्य हैं। उस की पुष्टि ईरान की वफा सुल्तान की पुस्तक ‘ए गॉड हू हेट्स’, उगांडा की इरशद माँझी की पुस्तक ‘द ट्रबुल विद इस्लाम टुडे’, पाकिस्तानी फहमीना दुर्रानी की ‘माई फ्यूडल लॉर्ड’, सोमालिया की अय्यान हिरसी अली की ‘द केज्ड वर्जिन’ आदि से भी होती है। यह सभी विभिन्न देशों की मुस्लिम लेखिका हैं। उन सब के अनुभव और विचार उस से भिन्न नहीं, जो तसलीमा ने व्यक्त किए हैं। तो क्या ये सारी लेखिकाएं गलत हैं, और केवल इस्लामी कट्टरपंथी, हिंसक फतवे देने वाले सही हैं? दुनिया कब तक एक असहिष्णु विचारधारा की विश्व-व्यापी मनमानी बर्दाश्त करेगी?
स्त्रोत : Niti Central