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साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का नाटक !

भाऊ तोरसेकर, ज्येष्ठ पत्रकार, मुंबई.

आजकल साहित्य अकादमी अथवा अन्य पुरस्कार लौटाने का फैशन सा हो गया है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसके पीछे एक सोची-समझी राजनीतिक रणनीति है । इसका प्रारंभ लोकसभा निर्वाचन के पहले से ही हो गया था । अनंतमूर्ती नामक कन्नड साहित्यिक ने कहा था, कि ‘मोदी प्रधानमंत्री हो जाएंगे, तो भारत छोडकर भागना पडेगा’ । इसे अब दो वर्ष बीत गए हैं । आजकल चल रहा पुरस्कार लौटाने का यह नाटक, इसी नाटक का अगला भाग है; परंतु इन पुरस्कारों की महिमा भी कितनी है ? इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सत्ताधारी दल में अपराधीभावना उत्पन्न करने का षड्यंत्र ही इसके पीछे है । यदि हम भूले नहीं है, तो यही नाटक १३ वर्ष पहले अटलबिहारी बाजपेयी के संदर्भ में भी हुआ था । गुजरात दंगे का निमित्त कर इतना दबाव लाया गया कि मोदी को उस पद से हटाने के विचार बाजपेयी के मन में चल रहे थे । उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री लालकृष्ण अडवाणी भी कुछ असमंजस में पड गए थे; परंतु गुजरात में पार्टी से ही मोदी को इतना समर्थन प्राप्त हुआ था कि उन्हें हटाना पार्टी के दिग्गज्जों को भी संभव नहीं हुआ । केवल बाळासाहेब ठाकरे अकेले मोदी का समर्थन करने के लिए सार्वजनिकरूप से आगे आए थे । शिवाजी पार्क की सभा में उन्होंने चेतावनी भी दी थी कि, ‘मोदी को हटाया न जाए’ । आगे चलकर भाजपावालों के मन में गुजरात दंगे को लेकर उनमें अपराध की भावना निर्माण करने का वैचारिक होमहवन निरंतर चलता ही रहा । अंत में इससे देश को नया प्रधानमंत्री मोदी के रूप में मिला । गुजरात दंगे के निमित्त अनेक आरोप और अभियोग प्रविष्ट हुए थे । जबकि आजतक एक भी प्रसंग में कुछ प्रमाणित नहीं हुआ और अंत में तिस्ता सेटलवाड तथा अन्य लोगों को ही दुम दबाकर भागना पडा ।

१. संत कबीर-तुलसीदास आदि ने पुरस्कार प्राप्त कर प्रतिष्ठा संपादित नहीं की थी !

वर्तमान में एक के पश्‍चात एक साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की होड लगी है । ऐसी अपेक्षा की जा रही थी कि इससे जनमानस में बडी प्रतिक्रिया उभर आएगी; परंतु वैसा कुछ नहीं हुआ । पहले दो-तीन पुरस्कार लौटानेपर कुछ नहीं हुआ; इसलिए और लोग आगे आए । माध्यमों के पुरोगामियों ने बहुत ढोल पीटे; परंतु सामान्य मनुष्य को साहित्य अकादमी का अर्थ क्या है ? अथवा उसका पुरस्कार क्या होता है ? आदि की महिमा ही पता नहीं होगी, तो केवल ढोल पीटने से क्या मिलेगा ? ‘बडे लोगों की बातें, हमें उसका क्या ?’ ऐसा कहकर उसकी ओर लोग देखते भी नहीं । लोग जिनका साहित्य पढते हैं अथवा जिनका सम्मान करते हैं, उन्हें कभी अकादमी के पुरस्कार नहीं मिले थे । संत कबीर-तुलसीदास आदि की ख्याति इसलिए थी कि लोगों ने उनका साहित्य पढा, समझा और आत्मसात किया । उनकी अप्रसन्नता राज्यकर्ताआें को हिला देती थी, क्योंकि उन्होंने किसी राजा, सरदार के पुरस्कार प्राप्त कर प्रतिष्ठा संपादित नहीं की थी । लोकमान्यता ही उनकी खरी शक्ति थी; इसलिए उन्होंने न हीं कभी पुरस्कार लिए अथवा न हीं उनपर पुरस्कार लौटाने की नौबत कभी आई । आज ऐसे महानुभाव जीवित भी नहीं हैं; परंतु उन्हें माननेवाले भक्त करोडों की संख्या में देश में हैं ।

२. पूर्वनिर्धारित साहित्य पुरस्कार, बडे लोगों का खेल !

पहले से ही अधिकतर साहित्यिकों में ऐसे लोगों की भर्ती दिखाई देती है कि वे किसी न किसी राजनेता के निकटवर्ती होते हैं । जिनकी पुस्तकों को खरीदनेवाले पर्याप्त पाठक नहीं मिलते; सरकारी पैसों पर उनकी पुस्तक सस्ते में बिकने की सुविधा कर दी गई है । इस संदर्भ में दो दशक पहले ‘आऊटलुक’ इस अंग्रेजी साप्ताहिक ने प्रदीर्घ लेख लिखकर पर्दाफाश किया था । अपने ही निकटवर्ती लेखकों को, साहित्यिकों को पुरस्कार देने के लिए किस प्रकार पंच अथवा ज्युरी चुने जाते हैं और अनिवार्यता से उसी साहित्यिक को पुरस्कार मिलते हैं । इसका कहीं अधिक बोलबाला नहीं हुआ । इसलिए कि प्रसिद्धिमाध्यम के बडे लोग ही इनके सहयोगी हैं । अब लगता है कि ये लोग अपना ही वस्त्रहरण करवाने के लिए उतावले हो गए हैं ।

३. ‘आऊटलुक’ साप्ताहिक के लेख में साहित्य अकादमी पुरस्कार किस प्रकार केवल पुरोगामी लेखक अथवा साहित्यिकों के लिए ही आरक्षित होते हैं, इसका विवरण !

जिस अशोक बाजपेयी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का नाटक चालू किया, उसके जैसा नौटंकी तो राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में दूसरा नहीं हुआ । मध्यप्रदेश सरकार में सनदी अधिकारी होते समय उन्होंने साहित्य अकादमी जैसी एक ललित कला अकादमी भोपाल में आरंभ की । इसमें सरकारी पैसा बहाकर लेखक और साहित्यिकों को ‘मेजवानी’ देने की सुविधा की जाने से वह अकादमी बहुत चर्चा में आई थी । काव्यसम्मेलन अथवा साहित्यिक समारोह आयोजित कर देशभर के साहित्यिकों को उसमें लाने का व्यय राज्यसरकार के खाते से करना और अपना नाम साहित्यिक के रूप में लगाना । ऐसा धंदा करनेवाले व्यक्ति को भारत सरकार का सांस्कृतिक कार्यसचिव होते समय अकादमी पुरस्कार कैसे मिला ? इस विषय को लेकर ‘आऊटलुक’ ने वह प्रदीर्घ लेख लिखा था । इस व्यक्ति को समकालीन हिन्दी काव्यलेखक ऐसी मान्यता प्राप्त करवा देने के लिए ऐसे पंच नियुक्त किए गए जिनका हिन्दी भाषा के काव्य से कोई संबंध नहीं था । जो एक हिन्दी भाषी उसमें था, उसने वाजपेयी के नाम को विरोध किया और बहुमत से अशोक वाजपेयी को अकादमी पुरस्कार मिला । इतनी चालाकी और छलकपट कर जो पुरस्कार प्राप्त किया, उसकी पवित्रता और महानता कितनी होगी ? आज वही व्यक्ति दादरी अथवा अन्य कुछ कारणवश अकादमी पुरस्कार लौटाने का तमाशा करता है, तब हंसी आती है । ऐसा यह एक ही पुरस्कार नहीं है ! साहित्य अकादमी अथवा विविध क्षेत्रों के पुरस्कारों का पूरा पोस्टमार्टेम ‘आऊटलुक’ के इस लेख में किया गया है । साहित्य अकादमी पुरस्कार किसप्रकार केवल पुरोगामी लेखक अथवा साहित्यिकों के लिए ही आरक्षित होता था, इसका विस्तृत विवरण भी उसमें मिल सकता है ।

४. जो पुरस्कार आवेदनपत्र भरकर अथवा लॉबिंग कर प्राप्त किए जाते हैं, उन्हें नकारने का अधिकार होता है कहां ?

संक्षेप में, आज जो कोई ऐसे पुरस्कार लौटाते समय उदात्तता का बडा नाटक कर रहे हैं, मूलतः लेखक के रूप में उनकी श्रेणी क्या है ? कटोरा लेकर प्राप्त पुरस्कार लौटाने के महान त्याग का नाटक करने में कोई लाभ नहीं है; क्योंकि जनमानसपर इसका कौडीमात्र भी परिणाम नहीं होनेवाला । जो पुरस्कार आवेदनपत्र अथवा लॉबिंग कर प्राप्त किए जाते हैं, उन्हें नकारने का अधिकार कहां होता है ? इससे हम मोदी का अथवा उनकी राजनीति का भरपूर तिरस्कार करते हैं, यह दर्शाने के लिए उठाया यह अस्त्र ऐसे पुरोगामी कलाकारों की भूमिका अधिक स्पष्ट करता है । अन्यथा उन्होंने तिरस्कार को छिपाकर पुरस्कार नकारने का फंडा क्यों ढूंढा होता ?

– भाऊ तोरसेकर, ज्येष्ठ पत्रकार, मुंबई.

स्त्रोत : जगत पहारा

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