आषाढ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी, कलियुग वर्ष ५११६
हम संतोंके गुट नहीं हैं, ऐसे वक्तव्य देनेवाले राजनेताओंद्वारा श्रद्धालुओंको फसाया नहीं गया, तो ही आश्चर्य !
विठ्ठलभक्तों, इस संदभर्मं कांग्रेसके राजनेताओंको तथा जनप्रतिनिधियोंको, वे जहां भी मिलें, उन्हें फटकारें !
श्रीक्षेत्र पंढरपुर (महाराष्ट्र्) – श्रीक्षेत्र पंढरपुरमें संतपीठ स्थापित करना चाहिए, ऐसा अधिनियम पारित हुए चार दशक पूरे हो चुके हैं । ऐसा होते हुए भी यह संतपीठ अभीतक केवल कागदपर सीमित है । अनेक समितियां, न्यायालयीन वाद तथा विचारविमर्श हुए; किंतु संतपीठ स्थापित करना असंभव हीरहा है । अतः संतसाहित्यके अभ्यासी तथा वारकरियोंद्वारा ऐसी मांग की गई है कि राज्यशासनको संतपीठ स्थापित करनेके संदर्भमें गंभीरतासे ध्यान देकर अधिनियमकी कार्यवाही करनी चाहिए ।
१. पंढरपुर मंदिरके अधिनियमानुसार यह उल्लेख है कि राज्यशासनको पंढरपुरमें जगद्गुरु संत तुकाराम महाराज संतपीठ स्थापित करना चाहिए; किंतु राजनेताओंकी उदासीनताके कारण ४० वर्षोंके उपरांत भी संतपीठ स्थापित करना सभंव नहीं हुआ है ।
२. मध्यावधिमें यह संतपीठ पैठणमें स्थापित करनेका निाqश्चत हुआ था; किंतु नियोजित क्षेत्र वनविभागका होनेके कारण केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालयद्वारा स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई ।
३. पैठणमें प्रारंभके स्तरपर एक अट्टालिकाका (इमारतका) निर्माणकार्य कर किसी व्यक्तिकी नियुक्ती की गई थी; किंतु प्रत्यक्षमें संतपीठ अस्तित्वमें ही नहीं आया ।
४. इस संदर्भमें राज्यशासनने केवल अस्थायी स्वरूपकी समितियां स्थापित की थीं । इस समितिमें बाळासाहेब भारदे, डॉ. यू.म. पठाण, डॉ. सदानंद मोरे, प्राचार्य राम शेवाळकर, डॉ. निर्मलकुमार फडकुले, अधिवक्ता शशिकांत पागे, उल्हास पवार समाविष्ट थे ।
५. इस समितिद्वारा नियोजित संतपीठका प्रस्तुतीकरण किया गया था ।
६. इस माध्यमसे संतोंके सर्व विचार दूरतक पहुंचेंगे, ऐसा विचार था; किंतु यह कहना पडता है कि शासनने अपने ही पारित किए गए अधिनियमका पालन नहीं किया ।
७. डॉ. सदानंद मोरेने यह मांग की है कि यह संतपीठ पंढरपुरमें ही होना चाहिए ।
स्रोत : दैनिक सनातन प्रभात