‘डॉ. डेव्हिड फ्रॉली’ अर्थात ‘आचार्य वामदेवशास्त्री !’
एक चिरंतन सत्य ! जो अमरिका स्थित एक मूल ईसाई व्यक्ति की समझ में आता है; वह भारत के कोई भी हिन्दु लेखक अथवा नागरिक इनकी समझ में, क्यों नहीं आता ?
लेखक : डॉ. डेव्हिड फ्रॉली (आचार्य वामदेवशास्त्री) का संक्षेप में परिचय
डॉ. डेव्हिड फ्रॉली ये मूल रूप से अमरिकावासी हैं तथा उन्होंने आचार्यपद (आचार्य वामदेवशास्री) धारण किया है। उन्होंने वेद, सनातन धर्म, योग, आयुर्वेद एवं वैदिक भविष्य शास्र आदि विषयोंपर ३० से भी अधिक ग्रंथोंका लेखन किया है। वे अमरिका के ‘सांता फे’ में स्थित वैदिक अध्ययनपर आधारित एक संस्था के संस्थापक एवं निर्देशक हैं। इस संस्थाद्वारा ‘योगिक तत्त्वज्ञान’, ‘आयुर्वेद एवं वैदिक भविष्य शास्र’ इन विषयोंपर शिक्षा दी जाती है।
१. यदि किसी ने ‘हिन्दु धर्म’ का स्वीकार किया तो उसका मजाक उडाया जाना
‘मैं हिन्दु हूं’, ऐसा यदि किसी ने कहा, तो पश्चिमी देशों में एवं भारत में भी उसकी ओर तुच्छता की दृष्टि से देखा जाता है !
यदि वह व्यक्ती किसी पश्चिमी देश की हो और उसने ‘हिन्दू धर्म’ का स्वीकार किया हो, तो उसकी ओर देखने का दृष्टिकोन और ही अधिक तुच्छतापूर्ण होता है; परंतु उसी व्यक्ति ने यदि कहा कि, मैने ‘बौद्ध’ अथवा ‘इस्लाम’ पंथ का स्वीकार किया है, तो उसकी ओर कोई ऐसी तुच्छतापूर्ण दृष्टि से नहीं देखता !
भारत में भी किसी ने ‘बौद्ध’ अथवा ‘इस्लाम’ पंथ का स्वीकार किया, तो उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती एवं कोई भी उसे तुच्छतापूर्ण दृष्टि से नहीं देखता !
२. ‘हिन्दू धर्म’ का अनन्य साधारण महत्त्व समझ में आनेपर डॉ. डेव्हिड फ्रॉलीद्वारा ‘हिन्दू धर्म’ का स्वीकार किया जाना !
वर्ष १९६० के पश्चात अनेक पश्चिमी लोग ‘हिन्दु धर्म’ की ओर खींचते चले आये, मैं उन्हीं में से एक हूं !
मैने ‘वेद एवं योग’ का अध्ययन किया तथा हिन्दु देवताओंका पूजन करना आरंभ किया।
एक ओर, भारत में हिन्दुओंका बडी मात्रा में ‘बलपूर्वक धर्मांतरण’ हो रहा था, तो दुसरी ओर मैं, एक मात्र, विधिपूर्वक ‘हिन्दू धर्म’ का स्वीकार कर रहा था !
३. योग की ‘हिन्दुत्वता’ को नकारनेवाले; परंतु ‘योगाभ्यास’ करनेवाले ईसाई पंथी !
पश्चिमी देशों में जो जो लोग ‘योग’ सिखाते हैं; उनमें से अधिकांश लोगोंने स्वयं संस्कृत नाम धारण किए हैं, फिर भी वो स्वयं को ‘हिन्दू’ नहीं मानते !
‘हिन्दुत्व’ को सामाजिक स्तरपर ‘पिछडा हुआ’ समझा जाता है एवं ‘हिन्दू धर्म’ की सीख परिपूर्ण नहीं है, ऐसा दुष्प्रचार किए जाने के कारण ऐसा होता है !
योगाभ्यास करनेवाले अधिकांश छात्र स्वयं को एक ‘विशिष्ट गुरु’ अथवा ‘संप्रदाय’ के अनुयायी कहलवा लेते हैं।
अन्य लोगोंको ‘योग’ तो विविध धर्मों में स्थित ‘आंतराष्ट्रीय सीख’ की परंपरा लगती है तथा ‘हिन्दु धर्म’ उनमें से ही एक है, ऐसी उनकी धारणा है; परंतु ये सब लोग ‘योगाभ्यास’ के माध्यम से प्रमुख रूप से हिन्दु धर्म में स्थित ‘वेद, गीता एवं योगसूत्र इन में घुल मिल गई कल्पनाएं एवं प्रथाएं’ इनका ही पालन करते हैं !
‘हिन्द् धर्म’ की इस ‘अनन्य साधारण देन’ का उनको लाभ तो मिलता है; परंतु उसका स्वीकार करने में वो हिचकिचातें हैं !
४. ‘ईसाई विचारधारा एवं विधी’ इनकी अपेक्षा ‘हिन्दु धर्म’ के ‘कर्मसिद्धांत, पुनर्जन्म एवं मोक्षप्राप्ती’ यह बातें अधिक ही लुभावनेवाली !
कुछ लोगोंका यह मानना है कि, ‘योग’ का स्वीकार कर ईसाई पंथीय ‘अधिक अच्छे ईसाई’ होते हैं; किंतु मुझे तो ‘ईसाईयोंकी विचारधारा, उनके विधि एवं उनकेद्वारा धर्मांतरण हेतु किए जानेवाले प्रयास’ इनका स्वीकार करना असहनीय हुआ !
उसकी अपेक्षा ‘हिन्दु धर्म’ में होनेवाले ‘कर्मसिद्धांत, पुनर्जन्म एवं मोक्षप्राप्ति के प्रयास’ यह मुझे अधिक ही भा गए !
इसके विपरीत, ईसाई पंथ में बताए गए ‘स्वर्ग-नरक, पाप, भोगोंसे मुक्ति (साल्व्हेशन)’ आदि कल्पनाएं अत्यंत साधारण ही लगीं; परंतु यदि मैने ऐसा कहा कि, ‘योग एवं ध्यानधारणा करने के साथ पूजाघर में ‘शिव एवं देवी’ की स्थापना करें’ तो भी आप एक ‘अच्छे ईसाई’ हो सकते हैं, तो इसे कोई भी ईसाई स्वीकार नहीं करेगा !
पश्चिमी देशों में ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें ‘हिन्दू धर्म’ का स्वीकार करने की इच्छा है; किंतु उन्हें, इसलिए आवश्यक सहाय्यता नहीं मिलती !
५. पश्चिमियोंका हिन्दुद्वेष !
यदि किसी ने, एक ईसाई अथवा मुसलमान को कहा कि, एक फलां फलां व्यक्ति ने ‘हिन्दु धर्म’ का स्वीकार किया है, तो वो उस पर ‘मूर्तिपूजा एवं अंधविश्वास’ का आरोप लगा कर हंसेगा !
अनेक विशेषज्ञ लोग ‘हिन्दुत्व की ध्यान-धारणा’ पर आधारित ‘गहन तत्त्वज्ञान’ को गौण मानकर धर्म में होनेवाली ‘अंध परंपरा’ओंका उपहास करेंगे; किंतु अन्य धर्मोंके संदर्भ में इस प्रकार का नकारात्मक विचार उनके मन को कभी स्पर्श करता ही नहीं !
अमरिका एवं इंग्लंड यहां के ‘हिन्दु’ समाज ने जो विकास किया है, उसके कारण ‘हिन्दु धर्म’ की, की जानेवाली आलोचना की धार थोडी बहुत अल्प हुई है; किंतु नष्ट नहीं हुई !
अमरिका स्थित हिन्दूओंको, आज भी उनकी ‘देवताओंकी मूर्तियां एवं उनकी त्वचा का रंग’ इसपर बहुत ही टिप्पणियां सुननी पडती हैं !
६. किसी भी विद्द्यापीठ में ‘हिन्दु धर्म शिक्षण’ देनेवाला विभाग ना होना, लज्जास्पद !
‘हिन्दु धर्म’ पुरे विश्व में तिसरे स्थान पर है, तथा उसका तत्त्वज्ञान ‘सर्वाधिक प्राचीन एवं व्यापक’ हो कर भी, भारत के किसी भी एक विद्द्यापीठ में ‘हिन्दु धर्म’ के विषय में शिक्षा देनेवाला विभाग अस्तित्व में नहीं है !
बनारस के हिन्दु विद्यापीठ में भी इस प्रकार की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है ! (हिन्दूओंके लिए यह स्थिति ‘लज्जास्पद’ ही है ! – संपादक, दैनिक सनातन प्रभात) पश्चिमी देशों में भी इंग्लैंड के ऑक्सफर्ड विद्यापीठ में होनेवाले ‘हिन्दु विभाग’ को छोडकर इस प्रकार की सुविधा अन्य कहींपर भी उपलब्ध नहीं है !
ऑक्सफर्ड विद्यापीठ के इस विभाग में कार्यरत अधिकांश कर्मचारी भी ‘अहिन्दु’ ही है !
७. ‘हिन्दु धर्म’ को मलीन बनानेवाले मिशनरी, साम्राज्यवादी, मार्क्सवादी राजनीतिज्ञ एवं प्रसारमाध्यमें !
‘हिन्दु धर्म’ को ‘मलीन बनाने के एवं दबाने के प्रयास’ अनंत काल से चलते आ रहे हैं, तथा वे आज भी विश्वस्तरपर हो रहे हैं !
अन्य धर्मिय ‘हिन्दु धर्म’ का स्वीकार ना करें; इसलिए उनको हतोत्साहित करने के एवं हिन्दूओंको अपना वर्चस्व प्रस्थापित करने से परावृत्त करने के लिए ‘हेतुपूर्वक एवं पूरे नियोजन’ के साथ योजनाएं बनाई जा रही हैं !
इसके पीछे मिशनरी, साम्राज्यवादी एवं मार्क्सवादी गुट सक्रिय हैं तथा उनको राजनीतिज्ञ एवं प्रसारमाध्यमोंसे सहायता भी मिल रही है !
प्राचीन काल से चली आ रही एवं विदेशोंसे आवश्यक धन की आपूर्ति के कारण हिन्दूओंको ‘भेदभाव’ का सामना करना पड़ रहा है। आज, जब हिन्दु इस ‘भेदभाव’ के विरोध में न्याय की मांग करते हैं, तो उनपर ‘असहिष्णुता की मुहर’ लगा कर उनको ही ‘निचा’ दिखाने के प्रयास चल रहें हैं !
सौभ्याग से धीरे-धीरे ही क्यों ना हो, ऋषिमुनियोंकी महान परंपरा प्राप्त इस ‘हिन्दु धर्म’ के प्रति में देश में ‘जागृति’ हो रही है !
‘हिन्दुत्व के प्रति आदर’ का अर्थ हमारी ‘प्राचीन आध्यात्मिक मूल्योंका एवं अध्यात्म में उच्चतम स्तर तक पहुंचनेकी क्षमता’ का, आदर करना है !
स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात