भाद्रपद शुक्ल पक्ष दशमी, कलियुग वर्ष ५११६
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१६ साल की हो चुकी शीमा कहती है कि जब वह ११ साल की थी तो उसके पिता ने स्कूल की पढ़ाई छुड़ा दी। वह आगे बताती है कि उसके पिता ने एक बूढ़े शख्स से उसकी शादी की योजना बनानी शुरू कर दी। शीमा कहती है कि उसके पिता खुद कहते थे कि यह उसकी सुरक्षा के लिए अहम है। कट्टर मुस्लिम परिवार में पैदा हुई शर्मिली सी शीमा इसे मान लेती अगर उसे युवाओं के हक की बात करने वाले समूह का समर्थन नहीं मिलता। किशोरी अभिजन यूनिसेफ का ब्रेन चाइल्ड है। इस प्रोजेक्ट के तहत नौजवानों को कई मुद्दों पर शिक्षित किया जाता है, जिनमें लिंग भूमिका, लिंग भेदभाव, कम उम्र में शादी, प्रजनन, स्वास्थ्य, निजी स्वच्छता और बाल मजदूरी रोकने जैसे मुद्दे हैं।
अब शीमा को अपने अधिकार पता हैं, शीमा अपने अधिकारों को पाने के लिए मेहनत के साथ लड़ाई लड़ रही है। अन्य महिलाओं के साथ मिलकर १६ करोड़ आबादी वाले इस देश में शीमा लिंग भेदभाव के बारे में पारंपरिक विचार को बदलने की कोशिश कर रही हैं। किशोरियों के सशक्तिकरण के अलावा जमीनी स्तर पर चल रही अन्य योजनाओं के तहत समुदाय को महिला अधिकारों के बारे में बताया जा रहा है। इसमें ऐसे समूह भी शामिल हैं जो इंटरएक्टिव थिएटर का सहारा लेते हैं। नाटकों में स्थानीय समस्या को स्थानीय स्तर पर संबोधित करने की कोशिश की जाती है। लोकप्रिय लोक कथाओं, पारंपरिक गीतों और नृत्यों का इस्तेमाल करते हुए कलाकार अभिभावकों, स्थानीय अधिकारियों और समुदाय के प्रभावशाली सदस्यों के सामने संवेदनशील मुद्दों को रखते हैं। ‘एनजीओ द सेंटर फॉर मास एजुकेशन इन साइंस’ (सीएमईएस) ने रंगपुर जिले के एक ग्रामीण इलाके में हाल में ही एक कार्यक्रम पेश किया जिसमें उसने दहेज प्रथा को खत्म करने की अहमियत बताई और सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की वकालत की।
यहां की हजारों महिलाएं दहेज से जुड़ी हिंसा के साये में जिंदगी बिताती हैं। एनजीओ बांग्लादेश महिला परिषद के मुताबिक साल २०११ में ३३० महिलाओं की दहेज हिंसा के कारण मौत हुई। २०१० में १३७ महिलाओं की मौत इसी कारण हुई थी। एनजीओ का कहना है कि २०१३ में दहेज से जुड़ी हिंसा के ४३९ केस सामने आए। मुंह मांगा दहेज न देने पर कई बार महिलाओं की हत्या हो जाती है या फिर महिलाएं खुदकुशी कर लेती हैं। सीएमईएस के मोहम्मद रशीद का मानना है कि लोगों को शिक्षित करके ही प्रथाओं के प्रभाव को खत्म किया जा सकता है। रशीद कहते हैं, "जागरूकता अभियान में अभिभावकों, शिक्षकों, समुदाय और धार्मिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों को शामिल करके हम सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम रहे हैं।"
संवेदना नहीं, शरीर चाहिए।।।
जबरदस्ती
बहुत छोटी उम्र में ही ये लड़कियां देह व्यापार में धकेल दी जाती हैं। कई गरीब, गांव के लोग अपनी लड़कियों को को बेच देते हैं। उन्हें इसके लिए २० हजार टका मिल जाते हैं। कुछ मामलों में शादी का लालच देकर बिचौलिये इन्हें चकलाघरों में बेच देते हैं।
बच्चियों के लिए इंजेक्शन
कम उम्र की बच्चियों में स्टेरॉयड काम नहीं करते, खासकर १२ से १४ की उम्र वाली लड़कियों में। बांग्लादेश के एक चकले की मालिक रोकेया बताती हैं कि इनको इंजेक्शन दिए जाते हैं।
बाल देह व्यापार
बांग्लादेश में बच्चियों का देह व्यापार एक गंभीर समस्या है। संयुक्त राष्ट्र के बाल कोष के मुताबिक २००४ में यौन शोषण का शिकार होने वाली बच्चियों की संख्या १० हजार थी। अनौपचारिक अनुमानों के मुताबिक यह संख्या २९००० बताते हैं।
गाय के स्टेरॉयड सेक्सकर्मियों के लिए
लड़कियों को भरा पूरा दिखाने के लिए ओराडेक्सॉन नाम का स्टेरॉयड इस्तेमाल किया जाता है। सामान्य तौर पर ये स्टेरॉयड किसान अपनी गायों को हृष्ट पुष्ट बनाने के लिए करते हैं।
दवा की लत
गैर सरकारी संगठन एक्शनएड के मुताबिक ओराडेक्सॉन बांग्लादेश के ९० फीसदी चकलाघरों में इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें १५ से ३५ साल की औरतें इस्तेमाल करती हैं। एनजीओ के मुताबिक बांग्लादेश में करीब २०००० लड़कियां देह व्यापार में हैं।
शिकायतें
एक्शनएड ने २०१० में इन लड़कियों को चेताने के लिए अभियान शुरू किया ताकि इन्हें दवा के बुरे असर और खतरे का पता चले। ये स्टेरॉयड शुरू करते ही महिलाओं का वजन बढ़ने लगता है। लेकिन इससे डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, दाने और सिरदर्द होता है।
एड्स का खतरा
स्थानीय अखबार अक्सर बांग्लादेश की यौन कर्मियों में एड्स की खबरें छापते हैं लेकिन इस बारे में कोई शोध नहीं किया गया है कि कितनी महिलाएं इससे पीड़ित हैं। सेक्स वर्करों का कहना है कि ग्राहक अक्सर कंडोम का इस्तेमाल नहीं करना चाहते और इससे इन लड़कियों में बीमारी की आशंका बढ़ जाती है।
कट्टरपंथियों के शिकार
दक्षिणी बांग्लादेश में पिछले साल इस्लामी कट्टरपंथियों ने एक चकलाघर पर हमला किया। ३० सेक्स कर्मी घायल हुए। इस तरह के हमले बांग्लादेश में आम हैं।
स्त्राेत : डब्लू।डि।