भाद्रपद शुक्ल पक्ष दशमी, कलियुग वर्ष ५११६
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जालंधर (पंजाब ) : ''जयदेव जयदेव जय मंगलमूर्ति हो श्रीमंगल मूर्ति दर्शनमात्रे मनन कामना पूर्ति जयदेव जयदेव''….इन दिनों देश भर के कोने-कोने से इस भजन के बोल हमारे कानों में गूंज रहे हैं और हम भी जब ऐसी जगह जहां गणपति जी का पंडाल सजा हो से गुजरते हैं तो साहसिक ही ये भजन गुणगुनाने लगते हैं।
अब आप कहेंगे कि अरे भाई गणपति जी धरती पर आए हैं…ये दिन गणपति जी के ही तो चल रहे हैं। आम से लेकर कई बड़ी हस्तियां तक अपने घरों में गणपति की स्थापना करते हैं। कोई तीन, पांच, सात या फिर ग्यारह दिन के लिए गजानान को अपने घर रखता है।
हमने अक्सर देखा और सुना भी है कि लोग जब गणपति जी का विर्सजन करने जाते हैं तो वे रो पड़ते हैं कि इतने दिन घर रखने के बाद हम अपने घर के सदस्य को पानी में विर्सजित कर आए लेकिन इन सबके बीच एक सवाल मन में आता है कि क्या हमारी भगवान में आस्था और भक्ति इस बात की हमें इजाजत देती हैं कि हम भगवान को एक ऐसी नदी में बहा आते है जहां से शायद हम अपने नाक बंद करे बिना गुजरते भी न हों। मेरे सवाल तीखे जरूर हैं लेकिन सोचने वाले हैं कि हम जिस भगवान को इतने मान-सम्मान के साथ घर लाते हैं, उनके लिए घर में तरह-तरह के पकवान बनते हैं और फिर आखिर में एक गंदे पानी में जहां न जाने कितने जानवर और कितना कूड़-कर्कट होता है वहां विर्सजित कर आते हैं।
हम आपको तस्वारों के जरिये कुछ ऐसा ही दिखाना चाहते हैं कि ये कैसी पूजा है। भगवान की कुछ दिन की पूजा के बाद हम उन्हें कहां छोड़ रहे हैं इससे हमें कोई लेना-देना नहीं लेकिन हां ढोल और बाजों के साथ हमने उन्हें पानी में बहाना है। चाहे फिर गणपति जी सीधे गिरे या उल्टे भई हमने तो विर्सजन कर दिया। हमारी श्रद्धा क्या बस इतनी है…पंडाल सजाया, रात को लोग इकट्ठे हुए…पूजा-आरती की और प्रसाद लेकर घरों में। जरा सोचिएगा जरूर।
स्त्राेत: पंजाब केसरी