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शनिशिंगणापुर प्रकरण में न्यायालय में पुनर्याचिका प्रविष्ट करेंगे – श्री. सुनील घनवट, हिन्दू जनजागृति समिति

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हिन्दुआें के मंदिरों में महिलाआें को प्रवेश नहीं करने दिया जाता, यह आरोप ही मूलतः अनुचित है । हिन्दुआें के सर्व मंदिरों में महिलाआें को प्रवेश दिया जाता है । केवल कुछ विशिष्ट परंपराआेंवाले मंदिर इसका अपवाद हैं । कर्मकांड की उपासना में देह से संबंधित नियम और व्यक्ति के स्वास्थ्य को देखते हुए बनाए गए हैं । वे केवल कर्मकांड से संबंधित ही होते हैं । उपासनाकांड के अनुसार महिलाएं कोई भी उपासना कर सकती हैं । आज की याचिका पर न्याय करते हुए न्यायालय ने कहा है कि जिन मंदिरों में पुरुषों को प्रवेश दिया जाता है, वहां महिलाआें को भी प्रवेश दिया जाए; परंतु शनि के चबूतरे पर वर्ष २०१० से पुरुष एवं महिलाएं, दोनों का प्रवेश प्रतिबंधित है । इसलिए इस चबूतरे पर महिलाआें के साथ ही पुरुषों को भी प्रवेश नहीं दिया जा सकता । शनिमंदिर में केवल महिलाआें का प्रवेश प्रतिबंधित है, यह अनुचित जानकारी दी जा रही है । मूलतः शनिमंदिर में सभी को प्रवेश दिया जाता है तथा चबूतरे पर महिला एवं पुरुष, दोनों का ही प्रवेश प्रतिबंधित है । ऐसा होते हुए भी यह ध्यान में आ रहा है कि इस प्रकरण में न्यायालय को भ्रमित किया जा रहा है । इसलिए शनिशिंगणापूर प्रकरण हम में न्यायालय में पुनर्याचिका प्रविष्ट करेंगे एेसा मत हिंदु जनजागृती समितीके महाराष्ट्र संघटक श्री. सुनील घनवट ने एक प्रसिद्धीपत्रकाद्वारा व्यक्त किया है ।

समितीने इस पत्रक में कहा है की,

१. शासन ने न्यायालय में हिन्दू प्लेसेस ऑफ पब्लिक वर्शिप एक्ट १९५६ कानून का संदर्भ दिया है । उसमें कहा गया है कि केवल मंदिर में प्रवेश करने दिया जाए । इसका अर्थ यह नहीं है कि गर्भगृह में प्रवेश करने दिया जाए । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि यह कानून तत्कालीन अस्पृश्यता निवारण हेतु बनाया गया था । इसमें कहीं भी स्त्री अथवा पुरुष के लिंगभेद के आधार का उल्लेख नहीं है । डॉ. बाबासाहब आंबेडकर रचित संविधान में धारा १४, १५ और २१ में स्पष्ट रूप से स्त्री और पुरुष दोनों लिंगों का स्पष्ट वर्णन किया गया है । वैसा इस कानून में दिखाई नहीं देता ।

२. उच्च न्यायालय का यह न्याय अंतिम न्याय न माना जाए । क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के सैकडों न्यायों में परिवर्तन किया है तथा उच्च न्यायालय के अन्य पीठों ने भी उसके विरोध में न्याय किए हैं । इसलिए हम इस संदर्भ में पुनर्याचिका प्रविष्ट कर रहे हैं । संविधान की धारा २६ के अनुसार हमें धर्मसंबंधी व्यवहारों की व्यवस्था देखने की स्वतंत्रता प्राप्त है । इसके अंतर्गत मंदिरों के नियम निश्‍चित करने का अधिकार भी दिया गया है । इसलिए हमें ऐसा प्रतीत होता है कि इस निर्णय से संविधान द्वारा हमें दिए गए धार्मिक अधिकार को पैरों तले रौंदा जा रहा है ।

३. शरीयत के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में प्रविष्ट की गई याचिका के संदर्भ में मुसलमान स्पष्ट कहते हैं कि भारतीय संविधान ६० वर्ष पूर्व बना है । हमारा धर्मग्रंथ कुरान सैकडों वर्ष पूर्व का है, इसलिए वर्तमान कानून को हमारे धार्मिक कानून में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है । इस विषय में कोई एक शब्द नहीं बोलता । जिस प्रकार राज्य शासन ने शनिमंदिर के संदर्भ में तत्परता से न्यायालय में स्त्री-पुरुष समानता की भूमिका प्रस्तुत की है, उसी प्रकार क्या अब शासन हाजी अली की दरगाह में प्रवेश प्राप्त करने के लिए संघर्ष करनेवाली मुसलमान महिलाआें को न्याय देने के लिए न्यायालय में भूमिका प्रस्तुत करेगा ? ऐसा होने पर ही खरे अर्थ से धर्मनिरपेक्षता और समानता पर राज्य शासन बोल सकता है ।

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