बीकानेर : मानव प्रबोधन प्रन्यास द्वारा स्वामी संवित् सोमगिरिजी महाराज के सान्निध्य में १८ घण्टे की ‘जीवन-विकास’ कार्यशाला का आयोजन किया गया जिसमें शहर के २५ चुनिन्दा शिक्षक एवं साधकों ने भागीदारी की। कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य भारतीय संस्कृति का पारमार्थिक दर्शन के लक्ष्य प्राप्ति के माध्यम स्वरूप व्यवहारिक दर्शन में न्यूनता आ गयी है जिसके कारण मनुष्य के जीवन का श्रेष्ठतम प्रकटन नहीं हो पा रहा है । इसी को परिष्कृत करने हेतु कार्यशाला का शुभारम्भ स्वामीजी द्वारा दीप प्रज्ज्वल और देवी सरस्वती के पूजन से हुआ। जीवन-विकास कार्यशाला में स्वामीजी के उद्बोधन सत्र के साथ-साथ सामूहिक ध्यान, समूह चर्चा, जिज्ञासा समाधान, अभिव्यक्ति, व्यक्तित्व आकलन आदि विभिन्न सत्र आयोजित किये गये।
‘सनातन धर्म और शिक्षा’ विषय पर समूह चर्चा में वर्तमान शिक्षा पद्वति और गुरुकुल दीक्षा पद्वति में तालमेल बैठा कर बालक को मानव मशीन के स्थान पर संस्कारयुक्त चरित्र निर्माण पर बल दिया गया। सनातन शिक्षा हमारे पूरे जीवन का नक्शा प्रस्तुत करती है, साथ ही इस बात पर भी जोर दिया गया कि यदि हमारा दर्शन जितना अधिक स्पष्ट होगा उतनी ही अधिक सूक्ष्म साधना की अनुभूति होगी । श्रेष्ठ व्यक्तित्व निर्माण के लिए किताबी शिक्षा के साथ-साथ वैदिक शिक्षा की आवश्यकता है।
स्वामीजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनुशासन यानि नियमबद्ध व्यवस्था का पालन करते हुए हम अपने मन को संयमित कर सकते हैं, एकाग्रचित्त कर सकते हैं और निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होते हैं। ईश्वर के नियम तन्त्र को ही धर्म कहते हैं। समाज में बढते नकारात्मक भावों को नष्ट करने के लिए मैं कौन हूँ ? को पहचानना अत्यन्त आवश्यक है और अपनी सकारात्मक ऊर्जा में निरन्तर वृद्धि करनी है यह तभी सम्भव होगा जब हमें अपने कर्म का सिद्धान्त स्पष्ट होगा। ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनुशासन यानि ‘नियमबद्ध व्यवस्था’ का पालन करते हुए हम अपने मन को संयमित, एकाग्रचित्त, साधना और तप करते हुए ब्रह्मस्वरूप से एकाकार करें। स्वामी जी ने कहा कि, ‘पित्वा मोह मयीं प्रमाद मदिरा उन्मत्त भूतम् जगत’। अर्थात् मोह रूपी प्रमाद, मदिरा को पीकर सारा जगत् उन्नमत्त हो रहा है। इसके निर्मूलन का कार्य जो शिक्षा करती है वही शिक्षा श्रेष्ठ है।