रामनाथी (गोवा) – धर्म एवं साधना ही राष्ट्रवाद के लिए मूल हैं । केवल राष्ट्रवाद के लिए ही नहीं, अपितु जीवन की सार्थकता की दृष्टिसे भी यह आवश्यक है । इस के कारण चित्त निर्मल होता है । राजनिति मूलरूप से संस्कृत शब्द है । जिस समाजव्यवस्था को देखने के पश्चात मन प्रसन्न एवं उल्हसित होता है, वह राजनिति है । राजधर्म ही सभी का आदर्श है । अब जो चल रहा है, वह राजनिति नहीं, अपितु पोलिटिक्स है । हमें राजनिति की ओर जाना चाहिए । देश के विभाजन के समय भारतमाता का विभाजन हुआ, ऐसा कहा जाता है । यह चूक है । जो भारतमाता स्वयं ही जगदंबा है, उस का विभाजन कैसे हो सकता है ? भारत का विभाजन हुआ, इस का अनुवाद चूक किया गया है । इस के स्थानपर भारत का कुछ भाग इस्लाम की ओर गया, यह उस का योग्य भाषांतर होगा । देशद्रोही इस प्रकार के चूक विचारों को फैलाते हैं । ऐसे वक्तव्य साधना के अभाव के कारण दिए जाते हैं । भारतमाता का अर्थ कोई नेता नहीं है । भारतमाता को तुम्हारी आवश्यकता नहीं है, आप ही को अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए उसकी आवश्यकता है, यह इन अभागियों के ध्यान में नहीं आता । अब भारतमाता की सेवा के नामपर नेताआें की सेवा की जा रही है । लोगों द्वारा लोगों के लिए चलाया जानेवाला राज्य यह मात्र लोकतंत्र को वलयांकित करने के लिए की गई व्याख्या है । धर्मशास्र में ऐसा कहींपर भी नहीं लिखा है । इस विशाल भारत को तोडने के लिए उसकी तुलना युरोप से की जाती है । इन सभी बातोंपर नियंत्रण प्राप्त करने हे शास्र का ज्ञान होना आवश्यक है । साधना के बिना होनेवाला राष्ट्रवाद विनाश की ओर ले जानेवाला है । एेसा प्रतिपादन मध्य प्रदेश के प्रा. रामेश्वर मिश्रजी ने यहां आयोजित पंचम अखिल भारतीय हिन्दू अधिवेशन में किया ।