उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारत ने दुनिया के सामने जो धार्मिक मान्यताएं पेश की, आज वे ही मान्यतायें प्राय: किसी खोज या आविष्कार का प्रतिनिधित्व करती रहती हैं। बात करते हैं एक ऐसे ही प्राचीन आविष्कार की, जिसका नाता आज के आविष्कार से है !
सनातन धर्म के आचरण में जितने भी धर्म हैं आैर जिन धर्मों का जन्मस्थल भारत रहा है, उन सभी धर्मों में किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के लिए दिन और समय का बहुत महत्व होता है। किंतु प्राचीन समय के लोगों के पास समय बताने का कोई विश्वसनीय मार्ग नहीं था।
कहा जाता है कि, उस समय धुप और छांव के आधार पर समय का अनुमान लगाया जाता था, और जिसे ही धूपघडी का नाम दिया गया। इन धूपघड़ियों का प्रचलन अत्यंत प्राचीन काल से लेकर कई सदियों तक होता रहा। सोचनेवाली बात है कि, जब बादल न हो तो इस घडियों से आप समय का अनुमान कैसे लगाएंगे।
इस समय इसका उत्तर न हो, किंतु हमारे महान ऋषि-मुनियों के पास इसका उत्तर था । प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने एक विशेष और अलग तरह की घडी का अविष्कार किया था, जो पानी के उपर आधारित थी, जिसे घटिका यंत्र कहा गया। बाद में पूर्वजों ने दिन और रात को पहले ६० भागों में बांट दिया था, जिसे ‘घडी’ कहा गया। इसके साथ साथ रात और दिन को चार भागों में बांट दिया, जिन्हें ‘पहर’ कहा गया।
असल में पानी में समय देखने के लिए सभी महत्वपूर्ण शहरों में लोगों के समूह को नियुक्त किया गया था, जिन्हें घरियालिस कहा गया। इन लोगों का काम समय बताना होता था। उस जलघडी में दो पात्रों का प्रयोग होता था। उनमें से एक पात्र में पानी भर कर उसकी तली में छेद कर दिया जाता था।
उस पात्र में से थोड़ा-थोड़ा जल नियंत्रित बूंदों के रूप में नीचे रखे हुए दूसरे पात्र में गिरता था। नीचे रखे पात्र में एकत्र जल की मात्रा नाप कर समय का अनुमान लगाया जाता था और बस यह तरीका एक अवधि के निश्चित समय का संकेत देता था। धूप घडी के बाद जल घडी को सबसे प्राचीन समय मापक यंत्र के रूप में माना जाता है।
जब इसका पहली बार आविष्कार हुआ, यह इतना महत्वपूर्ण हो जाएगा, इसके बारे में कोई नहीं जानता था। लगभग हजारों वर्ष पहले कटोरे के आकार की ये घडी का सबसे सरल रूप में जलघडी भारत, चीन और मिश्र आदि देशों में अस्तित्व में आई।
इतिहासकारों के अनुसार मोहनजोदडो से खुदाई में मिले बर्तनों से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि, उस काल में भी जलघडी का प्रयोग किया गया होगा, क्योंकि खुदाई में मिले बर्तन के नीचेवाले भाग में एक पतला-सा छेद देखने को मिला है।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार 2nd Millennium BCE से प्राचीन भारत में जल घडी का उपयोग किया जाता था, जिसका उल्लेख अथर्ववेद में भी किया गया है।
लगभग ७वीं शताब्दी के दौरान एक चीनी इतिहाकर ने भारतीय दौर के दौरान नालंदा विश्वविद्यालय में जलघडी के काम करने के तरीके का विवरण दिया था। उस दौरान बताया था कि, जल घडी में पानी की मात्रा मौसम के अनुसार बदलती रहती है। घडी को विश्वविद्यालय के छात्रोंद्वारा संचालित किया गया था।
स्त्रोत : रिव्होल्ट प्रेस