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भारत को पुनर्वैभव प्रदान करने हेतु ‘स्वधर्म’ की आंस धरें – प्रा. रामेश्वरप्रसाद मिश्र

नई देहली में, ‘युरोप : एक भारतीय दृष्टि’, इस विषय पर आयोजित दो दिन की कार्यशाला का समारोप !

गोमाता के लिए गोग्रास निकालना, गायत्री मंत्र का जप करने से भी देशसेवा होती है; क्योंकि धर्माचरण करने से देश की परंपरा अबाधित रखी जाती है। सनातन धर्म को शरण जाने के पश्चात ही समाज का उत्थान हो सकता है ! – प्रा. रामेश्वरप्रसाद मिश्र

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नई देहली : भोपाल के धर्मपाल शोधपीठ तथा सभ्यता अध्ययन केंद्र के संयुक्त विद्यमान में आयोजित किए गए ‘युरोप : एक भारतीय दृष्टि’ इस विषय पर दो दिन के कार्यशाला का हालही में समारोप हुआ।

उस समय वाराणसी के गांधी विद्या संस्था के प्रा. रामेश्वरप्रसाद मिश्र ने संबोधित किया।

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अपने संबोधन में उन्होंने ऐसा प्रतिपादित किया कि, ‘राज्यघटना में अभीतक १०० बार सुधार किए गए हैं; किंतु २ अब्ज वर्ष प्राचीन वेदों में अभी तक एक बार भी सुधार नहीं किया गया है !

अपितु वेदों की अपेक्षा भारतीय राज्यघटना को महान माना जाता है। देश की उत्थान हेतु हमें ज्ञान परंपरा से जुडना है। प्रचंड पुरुषार्थ हेतु प्रचंड ज्ञान आवश्यक है। गोमाता के लिए गोग्रास निकालना, गायत्री मंत्र का जप करने से भी देशसेवा होती है; क्योंकि धर्माचरण करने से देश की परंपरा अबाधित रखी जाती है। सनातन धर्म को शरण जाने के पश्चात ही समाज का उत्थान हो सकता है।

भारत को पुनर्वैभव प्रदान करने हेतु स्वधर्म पर दृढ रहना आवश्यक है !’

उस समय मंच पर हिन्दू जनजागृति समिति के राष्ट्रीय मार्गदर्शक पू. (डॉ.) चारुदत्त पिंगळे, प्रा. कुसुमलता केडिया, रामजन्मभूमि घटना के साक्षीदार श्री. राजेंद्र सिंह आदि मान्यवर उपस्थित थे। कार्यक्रम का सूत्रसंचलन ‘भारतीय धरोहर’ इस नियतकालिक के कार्यकारी संपादक श्री. रवि शंकर ने किया।

उस समय प्रा. कुसुमलता केडिया ने बताया कि, ‘युरोप भौतिकतावादी है, तो हम अध्यात्मवादी हैं। भारत को उसका पुनर्वैभव प्रदान करने से कोई भी रोक नहीं सकता। उतना सामर्थ्य किसी में भी नहीं है !

कार्यशाला के लिए उपस्थित ‘इंडिया : द ग्रेटेस्ट इकॉनॉमी ऑफ अर्थ’ इस पुस्तक के लेखक अधिवक्ता श्री. विवेक गोयल ने बताया कि, ‘एक ब्यौरे के अनुसार वर्ष १८५६ में भारत व्यापार में आगे था। भारत से विविध प्रकार का साहित्य निर्यात किया जाता था; किंतु कोई भी वस्तु आयात नहीं होती थी; क्योंकि भारत को किसी भी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं थी !’

पू. (डॉ.) चारुदत्त पिंगळेजी ने बताया कि, ‘इस कार्यशाला के माध्यम से हिन्दुओं को सनातन धर्म की एक नई दृष्टि प्राप्त हुई है !’

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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