– नितिन श्रीवास्तव (ढाका)
शाम के पांच बजे थे जब हम राजधानी ढाका में बांग्लादेश के राष्ट्रीय मंदिर, ढाकेश्वरी देवी, में दाखिल होने के लिए आगे बढ़े। लेकिन मुख्य द्वार तक पहुंचने के आधे किलोमीटर पहले ही एक-४७ लिए हुए पांच सुरक्षाकर्मियों ने हमारे बैग, कैमरे वगैरह लिए, आईडी कार्ड देखे और कहा जिससे मिलने भीतर जाना है पहले उनसे बात कराओ।
भीतर पहुंचने पर पुजारी विजय कृष्ण गोस्वामी से १५ मिनट तक बात करने की मिन्नत भी करनी पड़ी।
उन्होंने बताया, ‘१९४७ में जब ये ईस्ट पकिस्तान था तब यहां २७ प्रतिशत अल्पसंख्यक थे जो अब घटकर ९ प्रतिशत के आसपास पहुंच गए हैं। जिस तरह से ढूंढ़-ढूंढ़ कर हिंदू पुजारियों या बौद्ध गुरुओं को मारा जा रहा है उससे भय बढ़ता जा रहा है। हम लोगों का निकलना मुश्किल हो रहा है और सुरक्षा की ही बात सताती रहती है।’
बांग्लादेश की लगभग १६ करोड़ जन-संख्य में से अल्पसंख्यकों की संख्या डेढ़ करोड़ से ज्यादा है। लेकिन ये समुदाय भय में दिखते है। इसी वर्ष जून महीने में चार हिंदुओं की हत्या हुई है जिसमें से दो मंदिरों की देखभाल करते थे।
कोई सुबह की सैर के लिए निकला था और कोई साइकिल पर बाक्कर जा रहा था। ये शृंखला पिछले तीन वर्षों से जारी है क्योंकि कहीं बौद्ध भिक्षु निशाना बने हैं तो कहीं ईसाई समुदाय के लोग।
बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय परिषद के महासचिव और मानवाधिकार कार्यकर्ता राना दासगुप्ता को लगता है कि सरकार बढ़ती हिंसा से निपटने के कदम तो उठा रही है लेकिन ज्यादा की जरूरत है।
उनके अनुसार, ‘यहां हिंदुओं के गले पर तलवार है। डरे हुए पुजारी पहनावा बदल रहे हैं और धोती पहनना छोड़ कर पैंट-शर्ट में आ रहे हैं। हिंदू महिलाओं ने हाथों से चूड़ियां त्यागनी शुरू कर दी हैं। इन्हें आशावान से ज्यादा सुरक्षा के भरोसे की जरूरत है।’
सरकारी संख्या के मुताबिक बांग्लादेश में २२,००० मंदिर, कम से कम १० गुरुद्वारे, दर्जनों चर्च और दूसरे अल्पसंख्यकों की सभी श्रद्धास्थान हैं। देश का सबसे बड़ा और पुराना गुरुद्वारा, गुरुद्वारा नानक शाही, इन दिनों किसी सैनिक टुकड़ी के निवास में परिवरतित हो चुका दिखता है और आने-जाने वालों में कमी दिखार्इ देती है।
दो बड़े लोहे के द्वार लग चुके हैं, अंदर जाने से पहले मेटल डिटेक्टर से अन्वेषण होता है और पुजारी इत्यादि मुख्य इमारत को बहुधा ताले में रखते हैं। गुरुद्वारे के ग्रंथी वजीर सिंह इन दिनों पंजाब में रहने वाले अपने परिवार से रोज फोन पर बात करते हैं।
उन्होंने कहा, ‘हमने अपने परिवार को बिगड़ते स्थिति के चलते वापस भेज दिया है। उनके यहां रहने पर चिंता ज्यादा रहती थी। गुरुद्वारे के दरवाजे भी पहले खुले रहते थे लेकिन अब सब बदल गया है। अगर हमें आज-पास के गरीब बच्चों या परिवारों के लिए लंगर का आयोजन करना होता है तो अब हम परिसर के बाहर करते है।’
बांग्लादेश में कई कट्टरवादी संगठन हैं जिन्होंने हिंसा की अलग-अलग घटनाओं की कथित जिम्मेदारी ली है। उधर अवामी लीग सरकार ने इस्लामिक स्टेट या अल-कायदा से जुड़े गुटों की इन हत्याओं की जिम्मेदारी लेने पर प्रधानता कम देते हुए लगातार विपक्षी पार्टियों या स्थानीय इस्लामिक गुटों को देश में अस्थिरता फैलाने का जिम्मेदार ठहराया है।
हालांकि विपक्षी दलों ने सभी आरोपों को हमेशा बरखास्त किया है। सच ये भी है कि हिंसा में जान गंवाने वालों में बहुसंख्यक यानि मुस्लिम समुदाय के लोग भी हैं। इन लोगों ने खुलकर कट्टरवादिता के खिलाफ आवाज उठाई थी और इन्हें मारने का दावा करने वाले कुछ लोगों का कथित संबंध इस्लामिक चरमपंथ से बताया गया है।
ढाका विश्विद्यालय में प्रोफेसर आसिफ नजरुल के मुताबिक़, ‘बांग्लादेश की आज़ादी के बाद से ही हिंदुओं का विस्थापन हुआ, ये सही है। लेकिन जितने भी लोग आर्थिक स्तर पर कमजोर भाग से थे, सभी ने झेला है, धर्म चाहे जो भी हो। दरअसल इस समस्या को सामाजिक असमानता के परिवेश में देखा जाए तो ये सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है।’
लेकिन बांग्लादेश सरकार का दावा है कि सभी अल्पसंख्यक सुरक्षित हैं। देश के सूचना मंत्री हसनुल हक इनु का मानना है कि देश में जमीनी स्तर पर सांप्रदायिक मतभेद नहीं है।
उन्होंने बताया, ‘सभी धर्म मिल जुल कर रहते हैं और कोई सामाजिक तनाव भी नहीं है। हमने पूरी कोशिश की है अल्पसंख्यकों की सुरक्षा प्रदान करने की। लेकिन चरमपंथी अल्पसंख्यकों को निशाना इसलिए बना रहे हैं जिससे सरकार पर दबाव बने और उसकी बदनामी हो।’
तमाम भरोसों के बावजूद सच्चाई ये भी है कि इस देश के डेढ़ करोड़ अल्पसंख्यकों ने पिछले तीन वर्षों में समुदाय के खिलाफ जितना रोष देखा है उतना शायद पहले नहीं महसूस किया हो।
स्त्राेत : वेबदुनिया