‘जल्लीकट्टू’ का उद्घोष !

मकरसंक्रांति की कालावधी में तमिलनाडू राज्य के हर गांव में खेले जानेवाले सांड के (देसी सांड) खेल को सर्वोच्च न्यायालय ने पाबंदी लगाने के कारण वर्तमान में तमिळनाडू का वातावरण गरम हुआ है। गत ७ दिनों से सामाजिक जालस्थलों के माध्यम से इस खेल को अनुमती प्राप्त हो, इसलिये महा अभियान आरंभ हुआ है। जनता सहस्त्रों की संख्या में इसमें सम्मिलित हुई है। अतएवं इस संदर्भ में कुछ दिनों के लिये अनुमती देने के लिये तमिलनाडू शासनद्वारा विधानसभा में विधेयक प्रस्तुत किया गया; किंतु जनता उसपर निरंतर के लिये उपाय प्राप्त करना चाहती है ! जनता के क्रोध के कारण पुलिसकर्मियों को उसे रोकना कठीन हुआ है। मुख्यमंत्री को आने न देना, मानवी शृंखलाद्वारा पुलिस को विरोध करना, पुलिस थाना जलाना, वाहनों को जलाना, इस प्रकार से आगे-आगे के स्तर आंदोलन ने धारण किये हैं !

हिन्दुओं को ‘प्राणीप्रेम’ सीखाने की कोई आवश्यकता नहीं है !

पेटा (पीपल फॉर एथिकल ट्रिटमेंट फॉर अ‍ॅनिमल्स) इस अमरिका के तथाकथित प्राणीप्रेमी संस्था की भारत में भी एक शाखा है। इस संस्था ने इस खेलद्वारा सांडों पर अन्याय होता है, ऐसे कहकर ‘प्रिव्हेन्शन ऑफ क्रूएल्टी टू अ‍ॅनिमल अ‍ॅक्ट १९६०’ के अंतर्गत याचिका प्रविष्ट की। अतः भारत के तथाकथित प्राणीप्रेमी एवं हिन्दुद्वेषियों ने इस खेल को विरोध प्रदर्शित किया है। उस समय उन्होंने ऐसा वक्तव्य किया कि, ‘इस खेल में सांडों पर अन्याय होता है तथा व्यक्ती के प्राण भी जाते हैं !’ उपर्युक्त रूप से किसी को भी यह बात उचित प्रतीत हो सकती है; किंतु उसके पीछे की वास्तविकता ध्यान में ली, तो यह स्पष्ट होता है कि, ‘हिन्दु संस्कृति पर आपत्ति ऊठाने का यह षडयंत्र रचा गया है !’ यह बात ध्यान में रखते हुए ‘झूठे प्राणीप्रेम’ के नाम पर जल्लीकट्टू समान प्रथाओं को विरोध प्रदर्शित करनेवाले हिन्दुद्वेषियों को निर्भिडता से उत्तर देकर उनका मुंह बंद करना चाहिये। इस प्रथा को विरोध करनेवाले लोगों ने न्यायालय को भी इसी प्रकार की आधिअधुरी जानकारी देने के कारण न्यायालय ने भी उसका न्याय दिया है।

हम न्यायालय का पूरीतरह से आदर करते ही हैं; किंतु इस संदर्भ में ‘जल्लीकट्टू’ संबंधी आगे के सूत्र अवश्य ध्यान में लेने चाहिये . . .

‘केवल २ सहस्त्र वर्षों की परंपरा है’, इतना ही नहीं, तो पुराणकथाओं में भी सांडों को वश में लेनेवाले इस खेल का स्पष्ट संदर्भ पाया गया है। हिन्दु धर्म वनस्पति तथा प्राणी के साथ सभी प्राकृतिक बातों के लिये अत्यंत पूरक; कदाचित उसका संवर्धन करनेवाला है। विश्वामित्र ऋषि तथा मेनका की पुत्री शकुंतला का पालन ‘शकुन्त’ नामक एक पंछी ने किया है। देवी सीता को रावण भगाकर ले जा रहा था, उस समय ‘जटायु’ नामक एक पंछी ने प्रत्यक्ष उसके साथ युद्ध किया है। इतना प्राणीमात्रों के साथ हमारा संबंध है। हमारे देवताओं के वाहन भी प्राणी हैं तथा उनके देवत्व के कारण उनकी भी पूजा की जाती है। इतना ही नहीं, तो हमारे देवाताओं के कुछ अवतारों ने मत्स्य, वराह आदि प्राणीरूप में अवतार लिया है। हमारे यहां देवलोक है तथा नाग के समान विषैला प्राणी भी हमें पूजनीय है। कछुआ हमारे मंदिर में अग्रस्थान पर है। शेर से मुषक तक तथा गरुड से नंदी तक हमें सारे वंदनीय हैं। इसके विपरीत पाश्चात्त्य देशों में अनाज की अपेक्षा प्राणियों का मांस ही प्रथम अन्न है तथा वही हर दिन पकाया जाता है। ऐसा यह विरोधाभास है ! चीन ने सर्प का अत्यंत बीभत्स रूप साकार किया है। अतः ‘पेट’ समान संस्था अमरिका में रह कर वहां ही प्राणीप्रेम सीखायें, भारतीयों को वह सीखाना, यह हास्यास्पद है !

अतः हमें यह बात जानने की आवश्यकता है कि, ‘पेट’ ने न्यायालय में हिन्दु परंपरा पर आपत्ति क्यों ऊठाई ?

‘जल्लीकट्टू’ का महत्त्व एवं एक ‘आंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र’ !

जल्लीकट्टू खेल के निमित्त अत्यंत उत्तम प्रकार के देसी सांडो की प्रदर्शनी आयोजित की जाती है। उसकेद्वारा सांडों का पालन उत्तम प्रकार से करने की लगन प्राप्त होती है। इस त्योहार के निमित्त बलवान सांडों की मंदिरोंद्वारा लेन- देन होती है तथा भविष्य का बलवान सांड निर्माण किया जाता है। यह जल्लीकट्टू का सब से अधिक लाभ होता है। वर्तमान में देसी जानवरों की न्यूनता प्रचंड मात्रा में निर्माण हुई है। विदेशी मिलावटी, व्याधीग्रस्त, विषैले दुध का वितरण पूरे भारत में हो रहा है। देसी गोवंश ही लुप्त होने की कगार पर है। इसमे, इस भयावह संकट की पार्श्वभूमि पर इस षडयंत्र के अंतःस्थ शत्रु देसी गोवंश नष्ट करनेवाले आंतरराष्ट्रीय स्तर के ही हैं, ऐसा बड़ा संदेह उत्पन्न होता है !

इस स्पर्धा में केवल देसी सांड ही खेल सकते हैं, क्योंकि वे ताकदवान तथा बलवान होते हैं, जर्सी जानवर इस स्पर्धा में अंत तक टिक नहीं सकते। सांड के वशिंड (पीठ पर होनेवाली ऊंचाई) को ६० सेकंद तक पकड कर रखना साथ ही उसके सिंग पर रखी गई सिक्कों की थैली निकालना, ऐसे खेल के लिये साहसी एवं ताकदवान युवकों की आवश्यकता रहती है। अतः यह खेल भारतियों में अंतर्भूत पौरुषत्व, वीरता एवं शौर्य जागृत करनेवाला है। वर्तमान में ‘क्षात्रवृत्ती लुप्त’ ऐसे भारतीय युवकों को यह प्रेरणा देनेवाला है। इसमें सांड ताकदवान होने के कारण उसपर ‘अत्याचार’ करने का प्रश्न ही नहीं उठता !

इसकी तुलना में वर्तमान में पूरे भारतवर्ष में लक्षावधी की संख्या में हो रही ‘गोवंश हत्या’ का स्वरूप महाभयंकर हैं ! प्रथम उसे बंद करने की दृष्टी से वैधानिक कार्रवाई ही नहीं की जा रही है ! ‘हलाल’ कर गोवंश समाप्त किया जा रहा है। पशुवधगृह में उसे निर्घृणरूप से यंत्र में डाला जाता है, उस समय कहां जाती है इन प्राणीप्रेमियों की ‘अ‍ॅनिमल क्रुएलिटी’ ?

अब यह प्रश्न शेष रहता है कि, इसमें मृत हुए २ व्यक्तियों के संदर्भ में !

‘काररेस’, ‘गिर्यारोहण’ जैसे अनेक खेलों में व्यक्ति की मृत होने की संभावना अधिक रहती है; वैसा होता भी है, किंतु उसपर निर्बंध नहीं लगाया जाता ! सिगार, मद्य, तंबाखू के कारण अनेक जानें जाती है, किंतु उस पर भी निर्बंध नहीं आता ! ‘आतंकवाद’ के कारण पूरे देश में हिन्दुओं की जानें जा रही है, वे विस्थापित हो रहें हैं उस आेर तो किसीका ध्यान ही नहीं है !

‘कुछ भी करो, कैसे भी करो, हिन्दुओं की संस्कृति जहां भी दिखाई देगी, वहां उस पर आक्रमण करो’ ये मनोवृत्ती विफल बनाने के लिये हिन्दुओं को अब संघटित होना ही चाहिये !

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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