कार्तिक कृष्ण पक्ष प्रतिपदा, कलियुग वर्ष ५११६
१ . यहां सती के दांत गिरे थे : दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा का प्रमुख आकर्षण है। यह देवी दंतेश्वरी को समर्पित है और यह 52 शक्तिपीठों (देवी के मंदिर) में से एक है। दंतेवाड़ा का नाम इस देवी के नाम पर पड़ा। देवी दंतेश्वरी इस स्थान की पारंपरिक पारिवारिक देवी हैं। कहानियों के अनुसार यह वह स्थान है जहां देवी सती का दांत गिरा था, क्योंकि यह वही समय था जब सत्य युग में सभी शक्ति पीठों का निर्माण हुआ था, अत: इस स्थान की देवी को दंतेश्वरी कहा गया। पौराणिक कथा के अनुसार, जब काकातिया वंश के राजा अन्नम देव यहां आए तब मां दंतेश्वरी ने उन्हें दर्शन दिये. तब अन्नम देव को देवी ने वरदान दिया कि जहां तक भी वह जा सकेगा, वहां तक देवी उनके साथ चलती रहेंगी. परंतु देवी ने राजा के सामने एक शर्त रखी थी कि इस दौरान राजा पीछे मुड़ कर नहीं देखेगा. अत: राजा जहां-जहां भी जाता, देवी उनके पीछे-पीछे चलती रहती, उतनी जमीन पर राजा का राज हो जाएगा। इस तरह से यह क्रम चलता रहा। अन्नम कई दिनों तक चलता रहा। चलते-चलते वह शंखिनी एंव डंकिनी नदियों के पास आ गया। उन नदियों को पार करते समय राजा को देवी की पायल की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। उसे लगा कि कहीं देवीजी रूक तो नहीं गई। इसी आशंका के चलते उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, तो देवी नदी पार कर रही थीं। दंतेवाड़ा से कई लोककथाएं जुड़ी हुई हैं. मान्यता है कि दंतेश्वरी माता सोने की अंगूठी के रूप में यहां प्रकट हुई थीं। यहां के राजा कुल देवी के रूप में उनकी पूजा किया करते थे। शांत घने जंगलों के बीच स्थित यह मंदिर आध्यात्मिक शांति प्रदान करता है।
२ . शिवलिंग रूपी मंदिर के नीचे १३ फीट की मां पाताल भैरवी :– राजनांदगांव में नवरात्र शुरू होते ही बर्फानी सेवा आश्रम स्थित मां पाताल भैरवी के दर्शन के लिए छत्तीसगढ़ सहित अन्य राज्यों से भी श्रद्धालु पंहुच रहे हैं। आश्रम परिसर में शिवलिंग रूपी विशाल मंदिर के नीचे पाताल में मां काली की 13 फीट की विशाल प्रतिमा यहां आकर्षण का केंद्र है। काली की विशाल प्रतिमा और रौद्र रूप को देखकर श्रद्धालु अचंभित हो जाते हैं। शिवलिंग रूपी मंदिर के सामने स्थित नंदी की प्रतिमा भी श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है। मंदिर समिति के प्रमुख लोगों का कहना है कि उज्जैन को छोड़कर देशभर में पाताल भैरवी मंदिर और कहीं नहीं है। इसलिए देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां पहंुच रहे हैं। वहीं मंदिर परिसर में राज राजेश्वरी त्रिपुर संुदरी दश महाविद्या की यहां पूजा होती है। संस्था के सचिव गणेश प्रसाद गन्नू ने बताया कि बर्फानी आश्रम सेवा समिति की स्थापना वर्ष 1996 में की गई थी। बर्फानी दादा के मार्गदर्शन में जन कल्याण के उद्देश्य से यहां बहुत कम समय में ही 1998 में पाताल भैरवी मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। निर्माण में हर वर्ग ने अपना सहयोग दिया। पूर्णिमा के अवसर पर हर साल यहां मेला लगता है। समिति की ओर से दमा, अस्थमा सहित अन्य बीमारियों से पीडित लोगों की सेवा के उद्देश्य से उन्हें जड़ी-बूटी युक्त खीर का निशुल्क वितरण किया जाता है। पूर्णिमा की रात को यहां लगातार धार्मिक आयोजन होते हैं। हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहंुचकर समिति की सेवा का लाभ लेते हैं।
३ . त्रेता युग से जुड़ा है चंद्रहासिनी का दरबार :- रायगढ़ शहर से २८ किलोमीटर दूर स्थित चंद्रपुर मे माता चंदहासिनी का दरबार है। सदियों से यहां यह मान्यता है कि माता चंद्राहासिनी के दर से कोई खाली नहीं जाता है। ऎसे में जिला ही नहीं, राज्य ही नहीं देश और विदेश से माता के मंदिर में भक्त नवरात्री के अवसर पर आते हैं। यदि आ नहीं सके तो अपनी अर्जी ज्योति कलश के रूप मे जरूर भिजवाते हैं। मंदिर के विषय में कथा है कि चन्द्रपुर के राजा चन्द्रहास ने मां चन्द्रहासिनी की स्थापना की थी। बताया जाता है कि त्रेता युग में रावण जब सीता का हरण करके ले जा रहा था तो एक चन्द्र के आकार का तलवार चन्द्रपुर में गिरा था। इसके बाद राजा ने मंदिर के ऊपर पहाड़ पर इस तलवार की स्थापना की। उस जमाने से लोगों में चन्द्रहासिनी के प्रति लोगों में अटूट आस्था है। ऎसे में रायगढ़ सहित पूरे प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड, एमपी सहित विदेशों से भी श्रद्धालु माता के दर्शन के लिए यहां आते हैं। इस मंदिर में नवरात्री के दौरान हजारों की संख्या में बली चढ़ाई जाती है। लोग अपनी मन्नत पूरी होने के बाद बली चढ़ाते हैं। बली इस मंदिर की परंपरा और प्रथा में शामिल है। हर साल नवरात्री के अवसर पर लगभग दस हजार बकरों की बली चढ़ाई जाती है। माता के दर पर निसंतान दंपत्ति सहित बेरोजगार और जरूरतमंदों की भीड़ होती है। चन्द्रहासिनी के मंदिर के करीब एक देवी गुड़ी है, जहां हर साल नवरात्रि के अवसर पर राजपरिवार द्वारा देवी स्थापना कर पोड़ गिराया (भैंसा बली) जाता है। पहले यह राजा चन्द्रहास द्वारा किया जाता था, लेकिन वर्तमान में राजा बलवंत सिंह करते हैं। यह भी लोगों में आस्था का केन्द्र है। नवरात्रि के छठवें राजपरिवार के लोग एक काला मटका लेकर बाजे-गाजे के साथ जीव लेने जाते हैं, वे नदी के बीच जब पहुंचते हैं तो एक मछली उस मटके में आ जाती है और उस मछली को विधि-विधान से मटके में लपेटकर देवी गुड़ी लाया जाता है। उसी दिन छठ को मां की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है। इसके अलावा नवमीं के दिन देवी गुड़ी में पोड़ (भैंस) गिरता है और इसी दिन ब उस मछली को भी पानी में छोड़ा जाता है। इसके अलावा दसमीं को माता का विसर्जन किया जाता है। चंद्रहासिनी मंदिर के विषय में एक कहानी प्रचलित है। ऎसे में शिवरीनारायण के एक व्यक्ति ने अपने बच्चे को नदी में फेंक दिया था, तब वह बच्चा पानी में डूबा नहीं। बताया जाता है कि वह बहते हुए एक टापू पर जा पहुंचा। उसी दिन रात में मां चन्द्रहासिनी ने एक नाविक को सपने में उस बच्चे के विषय में जानकारी दी। तब उस मांझी ने सुबह में जाकर उस बच्चे वहां से लेकर आ गया। तब से उस टापू पर एक लाल रंग का परचम लहरा रहा है और लोग मां चन्द्रहासिनी को और मानने लगे।
४ . साधुओं ने पीछे मुड़ के देखा तो स्थापित हो गई मां दंतेश्वरी :- धर्म की नगरी धमतरी हमेशा ही धर्म-कर्म के नाम से विख्यात रहा है। नवरात्र के समय यहां लोगों में भक्ति भाव देखते ही बन रहा है। शहर की आराध्य देवी मां विंध्यवासिनी के बाद सबसे प्राचीन मंदिर मां दंतेश्वरी माई की है। यह बस्तर की कुलदेवी दंतेश्वरी का ही रूप है। लोगों की दुख-दर्द हरने वाली मां दंतेश्वरी के प्रति लोगों में अटूट श्रद्धा है। मंदिर अब पहले से काफी विकसित हो चुका है, जहां शारदीय नवरात्र में श्रद्धालुओं ने 221 मनोकामना ज्योत प्रज्ज्वलित किए हैं। मां दंतेश्वरी मंदिर शहर के मध्य में रिसाईपारा पूर्व में स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए चारों दिशाओं से रास्ता है। मंदिर के इतिहास के बारे में पुजारी रघुवीर प्रसाद पांडेय और पार्षद रूपेश राजपूत ने बताया कि यह मंदिर लगभग 500 साल पुराना है। मंदिर की स्थापना को लेकर भी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित है, जिनमें से एक कथा है कि नागपुर नरेश रघुपत राव भोसले ने अपना अधिपत्य जमाने बस्तर पर तीन बार चढ़ाई की, लेकिन सफलता नहीं मिली। राजा रघुपत राव के गुरू जो एक नागा साधु थे, वे राजा रघुपत राव को लेकर बस्तर गए और कठोर तप किया। एक दिन नागा साधु के सपने में मां दंतेश्वरी दिखी। मां दंतेश्वरी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। माता के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने नागपुर नरेश का अधिपत्य स्वीकर कर लिया। इसके बाद मां दंतेश्वरी के आज्ञानुसार नागा साधु वर्षो तक वहीं रहकर मां की पूजा अर्चना करते रहे। एक ही स्थान पर पूजा करते साधु उब गए, तब उन्होंने मां दंतेश्वरी को अपने साथ चलने को कहा। मां दंतेश्वरी साधुओं के साथ चलने के लिए राजी हो गई। मां ने साधुओं के समक्ष शर्त रखी कि वे चलते समय पीछे मुड़कर नहीं देखेगी। अगर ऎसा हुआ तो वे वहीं प्रकट हो जाएंगी और मंदिर बनवाकर पूजा-अर्चना करनी पड़ेगी। साधुओं ने माता की शर्त मान ली। आगे-आगे साधु चलते रहे और पीछे-पीछे मां दंतेश्वरी के चलने का आभास होता रहा। एक स्थान पर साधुओं को माता के पायल की आवाज नहीं आने का आभास हुआ और वे पीछे मुड़कर देख लिया, जिसके बाद माता वहीं प्रकट हो गई। शर्त के अनुसार साधुओं को मंदिर बनवाना पड़ा। वही मंदिर आज रिसाई पारा में मां दंतेश्वरी माई मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है। मंदिर पहले खंडहर के रूप में था और चारों ओर घने जंगल था। बताया जाता है कि कई सालों तक नागा साधुओं ने ही मां दंतेश्वरी की सेवा की। जहां नेगी गार्डन है, वहां पहले नेगी तालाब था। साधु उसी तालाब में स्नान करते थे। मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। मंदिर का मूल ढांचा पत्थर से बना हुआ है। बाकी हिस्सा तारस, ईट और चूने से। मंदिर में पहले 10 स्तंभ थे और छज्जा भी मजबूत नहीं था। कहा जाता है कि बारिश का पानी टपकने के बावजूद भी ज्योति कलश नहीं बुझती थी। मंदिर परिसर में एक बावली भी थी, जहां से मंदिर के लिए पानी लाया जाता था। मंदिर के दीवारों पर भगवान गणेश, कार्तिकेय, शंकर, पार्वती व अन्य देवी देवताओं की खुदाई कर बनाई गई मूर्तियां हैं, जिससे पता चलता है कि मंदिर कितना प्राचीन है। इसके अलावा मंदिर के मुख्य द्वार के दोनों ओर नागपाश की भित्ती चित्र बना हुआ है।
५ . मां शक्ति ने दिए राजा को दर्शन, कहा यहीं मुझे करो स्थापित :- धमतरी नगर की आराध्य देवी मां विंध्यवासिनी की ख्याति प्रदेश और देशभर में नहीं, अपितु विदेशों में भी है। यहां हर साल अमेरिका का एक श्रद्धालु दोनों नवरात्र में मनोकामना ज्योत प्रज्वलित करता हैं। मांगे मुराद पूरी करने वाली मां विंध्यवासिनी देवी को यहां बिलाई दाई भी कहा जाता है, जिनकी लीला अपरंपार है। स्वयं-भू नगर आराध्य माता विंध्यवासिनी देवी मां बिलाई माता के इतिहास गाथा की जितना बखान किया जाए, उतना कम है। देवी-देवताओं का गढ़ छत्तीसगढ़ श्रद्धा भक्ति और विश्वास का केंद्र है। छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में नया बस स्टैंड से 2 किमी की दूरी में माता विंध्यवासिनी देवी का मंदिर है। माता धरती फोड़कर प्रकट हुई है, इस कारण इसे स्वयं-भू विंध्यवासिनी माता कहते हैं। अंचल में बिलाई माता के नाम से यह प्रसिद्ध है। शास्त्र वेद भागवत पुराण के मुताबिक विंध्यवासिनी माता श्रीकृष्ण की बहन है। योग माया कृष्ण बहन नंदजा यशोदा पुत्री विंध्यवासिनी मां शिवमहापुरायण में नंद गोप गृहे माता यशोदा गर्भ संभव तत्सवै नास्यामि विंध्याचल वासिनी मूर्ति का पाषण श्याम रंग का है। अंबे मैय्या गौरी माता विंध्यवासिनी देवी मां के 108 नाम है। छत्तीसगढ़ में जो भी पर्यटन और धार्मिक स्थल हैं वहां पर रामायण और महाभारत की गाथा से जुड़ी कई चीजें हैं।
६ . आज भी नवरात्रि में राजा मोरध्वज आते हैं मां पूजन को :- रायपुर पुरानी बस्ती महामाया मंदिर रायपुर के प्रमुख शक्तिपीठ के रूप में विख्यात है और आस्था का प्रमुख केंद्र है । नवरात्रि के समय यहां छत्तीसगढ़ के साथ ही कई अन्य राज्यों से भी भक्तों का मेला लगता है। इस मंदिर का निर्माण कलचुरी के शासकों ने कराया था । ऎसी मान्यता है कि राजा मोरध्वज ने महिषासुरमर्दिनी की अष्टभुजी प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा मंदिर में की थी। महामाया की प्रतिष्ठा कलचुरी शासकों की कुलदेवी के रूप में भी है। कहा जाता है कि रतनपुर के कलचुरियों की एक शाखा जब रायपुर में स्थापित हुई तो उन्होंने अपनी कुलदेवी महामाया का भव्य मंदिर यहां भी बनवाया। मुख्य मंदिर के अलावा समलेश्वरी देवी, काल भैरव, बटुक भैरव और हनुमान मंदिर दर्शनीय हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा मोरध्वज एक बार अपनी रानी कुमुददेवी के साथ आमोद हेतु शिवा की सहायक नदी खारून नदी के किनारे दूर तक निकल गए। वापस आते-आते संध्या हो चली थी, इसलिए धर्मपरायण राजा नें खारून नदी के तट पर संध्या पूजन करने का मन बनाया । राजा की सवारी नदीतट में उतरी। रानियां राजा के स्नान तक प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण नदी तट में भ्रमण करने लगी तो देखा कि नदी के पानी में एक शिला आधा डूबा हुआ है और उसके उपर तीन चार काले नाग लिपटे हैं । अचरज से भरी रानियों नें दासी के द्वारा राजा को संदेशा भिजवाया। राजा व उनके साथ आए राजपुरोहित वहां आए। राजपुरोहित को उस शिला में दिव्य शक्ति नजर आई उसने राजा मोरध्वज से कहा कि राजन स्नान संध्या के उपरांत इस शिला का पूजन करें। हमें इस शिला में दैवीय शक्ति नजर आ रही है । राजा मोरध्वज स्नान कर उस शिला के पास गए और उसे प्रणाम किया। उस शिला में लिपटे नाग स्वमेव ही दूर नदी में चले गए । राजा नें उथले तट में डूबे उस शिला को बाहर निकाला, तो सभी उस दिव्य शिला की आभा से चकरा गए । उस शिला के निकालते ही आकाशवाणी हुई “राजन मैं महामाया हूं, आपके प्रजाप्रियता से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं, मुझे मंदिर निर्माण कर स्थापित करें, ताकि आपके राज्य की प्रजा मेरा नित्य ध्यान पूजन कर सकें ।” राजा मोरध्वज ने पूर्ण विधि-विधान से नदी तट से कुछ दूर एक मंदिर का निर्माण करा कर देवी की उस दिव्य प्रतिमा को स्थापित किया, जहां वे प्रत्येक शारदीय नवरात्रि में स्वयं उपस्थित होकर पूजन करने का मां को आश्वासन देकर प्रजा की सेवा एवं राज्य काज हेतु अपनी राजधानी चले गए एवं अपने जीवनकाल में राजा मोरध्वज प्रत्येक शारदीय नवरात्रि को मां महामाया के पूजन हेतु उस मंदिर में आते रहे । किवदंती यह है कि आज भी शारदीय नवरात्रि में राजा मोरध्वज वायु रूप में मां महामाया की पूजन हेतु उपस्थित रहते हैं।
७ . ज्योतिकलश के लिए होती है ऑनलाइन बुकिंग :- रतनपुर की पावन माटी में वह सब चीज विद्यमान है, जो एक पवित्र जगह में होती है। ऎतिहासिक मंदिरों व तालाबों से परिपूर्ण इस पावन धरा में आदि शक्ति मां महामाया सैकड़ों वष्ाोü से विराजमान है। अनेक देवी-देवताओं के बीच मां महामाया मंदिर की खास विशेष्ाता है। सालभर भक्तों का आना-जाना लगा रहता है। लेकिन नवरात्रि में देवी भक्तों की लालसा होती है कि वे एक बार जरूर माता के दरबार में मत्था टेकें। यही लालसा उन्हें माता के दरबार ले आती है। बिलासपुर से 25 किलो मीटर की दूरी पर स्थित रतनपुर नगरी में मां महामाया मंदिर है। इस मंदिर की प्रसिद्धि सिर्फ देश में ही नही विदेशों में भी है। मंदिर की मूर्ति भी दुर्लभ मानी जाती है। रेवाराम समिति के सदस्य शुकदेव कश्यप ने बताया कि यहां की प्रतिमा जैसी प्रतिमा दूसरी नहीं है। इसमें श्री महालक्ष्मी और श्री सरस्वती विराजमान है। इस मंदिर की निर्माण श्ौली प्राचीन वास्तु के अनुसार है। शारदीय नवरात्रि व चैत्र नवरात्रि में यहां भक्तों का रेला अपनी मनोकामनाओं को पूरा करने माता के दरबार में अर्जी लगाने पहुंचता है। इसके साथ ही यहां विदेशी पर्यटक खासतौर पर आते है। इस बार 29 हजार से अधिक मनोकामना ज्योतिकलश प्रज्वलित किए जाएंगे। मंदिर की प्रसिद्धि इतनी अधिक है कि यहां विदेशों से भी भक्त ऑनलाइन ज्योतिकलश के लिए बुकिंग कर रहे है। मंदिर का निर्माण रतनपुर राज्य के प्रथम कल्चुरि राजा रत्नदेव प्रथम ने 11वीं शताब्दी में वास्तुकला को ध्यान में रखते हुए कराया था। मंदिर 18 इंच मोटी परिधि की दीवार से घिरा हुआ है। मूर्तियों और रूपांकनों का प्रयोग किया गया। है। यह मंदिर मुख्य रूप से नागर श्ौली में बना है। राजा पृथ्वीदेव ने मंदिर का निर्माण कराया और राजा बहारसाय ने चार स्तंभों का निर्माण कराया। इस मंदिर के निर्माण के पीछे कई किवदंतियां है। माना जाता है कि मां सती की देह खंडित होने के बाद धरती के अलग-अलग हिस्सों में गिरी थी। उनका दाया स्कंद जहां गिरा वह महामाया मंदिर स्थल माना जाता है। मल्हार के डिडिन दाई, शक्ति के पुरवाई : – बिलासपुर शहर से लगभग 32 किलोमीटर दूर स्थित नगर पंचायत मल्हार में माता पार्वती की प्रतिमा स्थापित है। इसे डिडिन दाई के नाम से लोग पुकारते है। इस मंदिर की मूर्ति ग्रेनाइट पत्थर से बनी हुई है। इस मूर्ति की चमक से ही माता के प्रभाव का पता चलता है। मंदिर को स्थानीय निवासी अपनी कुलदेवी मानते है। साल भर मंदिर में भक्तों का ताता लगा रहता है। मल्हार को रतनपुर के समान ही पुण्यभूमि माना जाता है। यहां भगवान शंकर पातालेश्वर व भगवान विष्णु की खास चतुर्भुज प्रतिमा है। यहां की माता पार्वती की मूर्ति भी देवी भक्तों की आस्था का केन्द्र है। स्थानीय निवासियों के मुताबिक इस मंदिर का निर्माण सैकडों वर्षो पहले हुआ है। इसमें १० वीं व ११ वीं शताब्दी की वास्तुकला की झलक मिलती है। मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों में सबसे महत्वपूर्ण पार्वती मां को माना जाता है। माता को वरदानी माता के रूप में लोग पूजते है। उनके दर्शन मात्र से ही भक्तों की मनोकामना पूरी होती है। ?से में इसकी प्रसिद्धि बढ़ती जा रही है। इस मंदिर परिसर का जीर्णोद्धार किया जा रहा है। ताकि यहां आने वाले भक्त माता के दरबार में पहुंच सकें।
८ . १२ वीं-१३ वीं सदी का है मां बम्लेश्वरी मंदिर :- मां बम्लेश्वरी देवी के मंदिर के लिये विख्यात डोंगरगढ़ एक ऎतिहासिक नगरी है। यहां मां बम्लेश्वरी के दो मंदिर है। पहला एक हजार फीट पर स्थित है जो कि बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है। मां बम्लेश्वरी के मंदिर मे प्रतिवर्ष नवरात्र के समय दो बार विराट मेला आयोजित किया जाता है जिसमे लाखो की संख्या मे दर्शनार्थी भाग लेते है। चारों ओर हरी-भरी पहाडियों, छोटे-बडे तालाबों एवं पश्चिम मे पनियाजोब जलाशय, उत्तर मे ढारा जलाशय तथा दक्षिण मे मडियान जलाशय से घिरा प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण स्थान है डोंगरगढ़। कामाख्या नगरी व डुंगराज्य नगर नामक प्राचिन नामों से विख्यात डोंगरगढ़ मे उपलब्ध खंडहरों एवं स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ताओं ने इसे कलचुरी काल का एवं 12वीं-13वीं सदी के लगभग का पाया है। किन्तु अन्य सामग्री जैसे -मुर्तियों के गहने, अनेक वस्त्रों, आभुषणों, मोटे होंठ एवं मस्तक के लंबे बालो की सूक्ष्म मिमांसा करने पर इअ क्षेत्र की मुर्तिकला पर गोडकला का प्रभाव परिलक्षित हुआ है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 16वीं शताब्दी तक डुंगराज्य नगर गोड राजाओं के आधिपत्य मे रहा। लोकमतानुसार अब 2200 वर्ष पूर्व डोंगरगढ़ प्राचीन नाम कामाख्या नगरी मे राजा वीरसेन का शासन था, जो कि नि:संतान थे। पुत्र रत्न की कामना हेतु उसने महिषामती पुरी मे स्थित शिवजी और भगवती दुर्गा की उपासना की, जिसके फलस्वरूप रानी एक वर्ष पpात पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योतिषियों ने नामकरण मे पुत्र का नाम मदनसेन रखा। भगवान शिव एवं मां दुर्गा की कृपा से राजा वीरसेन को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इसी भक्ति भाव से प्रेरित होकर कामाख्या नगरी मे मां बम्लेश्वरी का मंदिर बनवाया गया। मां बम्लेश्वरी को जगदम्बा जिसमें भगवान शिव अर्थात महेश्वर की शक्ति विद्यमान है, के रूप मे जाना जाने लगा। राजा मदनसेन एक प्रजा सेवक शासक थे। उनके पुत्र हुए राजा कमसेन जिनके नाम पर कामाख्या नगरी का नाम कामावती पुरी रखा गया। कामकन्दला और माधवनल की प्रेमकथा भी डोंगरगढ की प्रसिध्दी का महत्वपूर्ण अंग है। कामकन्दला, राजा कामसेन के राज दरबार मे नर्तकी थी। वही माधवनल निपुण संगीतग्य हुआ करता था। डोंगरगढ़ रायपुर से १०० किमी की दूरी पर स्थित है। तथा मुंबई-हावड़ा रेल्वे के अन्तर्गत भी आता है। यह छत्तीसगढ का अमुल्य धरोहर है।
९ . अंबिकापुर की आराध्य हैं मां महामाया :- रियासतकालीन राजधानी व वर्तमान सरगुजा संभाग मुख्यालय अंबिकापुर की उच्च सम-भूमि के शीर्षाचल पर अवस्थित पहाड़ी में मां महामाया देवी विराजमान हैं। मान्यता है कि सरगुजा की आराध्य देवी की कृपा से इस अंचल में सुख-समृद्धि एवं वैभव सदैव विद्यमान रही है। महामाया मंदिर लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है। महामाया -विंध्यवासिनी देवी मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण सरगुजा के महाराजा बहादुर रघुनाथशरण सिंह देव द्वारा कराया गया था। नागर शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण सामान्यत: ऊंचे चबूतरे पर किया गया है। मंदिर पर चढ़ने के लिये तीन ओर से सीढियां बनाई गई है। मंदिर के भीतर एक चौकोर अथवा वर्गकार कक्ष है। इसी भीतरी प्रकोष्ठ में देवी विराजमान हंै। इसके दीवार की चौड़ाई लगभग 2 मीटर है। यह तीन ओर से दीवारों से घिरा है, जबकि एक ओर प्रवेश द्वार बना है। गर्भगृह के चारों ओर क्षैतिज स्तम्भयुक्त मण्डप बनाया गया है-जिस पर श्रद्धालु प्रदक्षिण करते हैं। मंदिर के सामने एक यज्ञशाला व पुरातन कुआं भी है। बाह्य क्षेत्र विशाल वट वृक्ष व आम्रकुंज की हरीतिमा से आच्छादित हैं, निकट ही हरसागर तालाब स्थित हैं, जहां गंगा दशहरा का मेला लगता था। यहीं पर पूर्वकाल में फुलवारी भी थी। महाराजा बहादुर रघुनाथशरण सिंहदेव ने विंध्यवासिनी देवी की मूर्ति को विंध्याचल से अंबिकापुर लाकर मॉ महामाया के साथ प्राण-प्रतिष्ठा करा स्थापित कराई थी। सन् 1758 ईस्वी में बिम्बाजी भोंसले के नेतृत्व में मराठाओं ने अपना सम्राज्य यहा फैलाना शुरू किया, तब उनका उद्देश्य नागपुर से काशी और गया का तीर्थ मार्ग निष्कंटक बनाना था। मान्यता है कि रतनपुर स्थित कलचुरि महामाया मंदिर में अंबिकापुर की महामाया का सिर प्रतिस्थापित किया गया। तथा नीचे का हिस्सा अंबिकापुर के महामाया मंदिर में प्रतिस्थापित है। अंबिकापुर की महामाया देवी व समलेश्वरी देवी का सिर प्रतिवर्ष राजसी परम्परानुसार शारदीय नवरात्र की अमावस्या की रात्रि प्रतिस्थापित किया जाता है। परम्परानुसार शारदीय नवरात्र पूजा के पूर्व कुम्हार व चेरवा जनजाति के बैगा विशेष द्वारा मूर्ति का जलाभिषेक कराया जाता है, तंदुपरान्त नवरात्र की पूजा प्रारंभ की जाती है। जागृत शक्तिपीठ के रूप में मां महामाया सरगुजा राजपरिवार की अंगरक्षिका के रूप में पूज्य है। देवी यहां छिन्नमस्ता के रूप में विराजमान हो सबकी मनोकामना पूर्ण करती हैं। नवरात्र पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु प्रतिदिन यहां पहुंचकर माता की आराधना में लीन रहते हैं।
१० . आस्था की डुबकी और इतिहास के दर्शन :- कोरबा के समुद्र तल से करीब दो हजार फीट की ऊंचाई पर सतपुड़ा मैकल पर्वत श्रृंखला की पहाड़ी में स्थित कोसगाई देवी के चरणों में जब श्रद्धालु माथा टेकता है तो वो आस्था में डुबकी लगाने के साथ ही इतिहास से भी रूबरू होता है। एक ऎसा इतिहास जिसकी पृष्ठि भूमि न केवल साहसिक कारनामों से अटी पड़ी है, बल्कि तत्कालीन प्रशासन व्यवस्था का एक अमिट हस्ताक्षर भी है। एक ऎसी देवी जिसके चेहरे पर तेज, शक्ति के विपरीत शांति के भाव उत्पन्न होते हैं। यही वजह है कि कोसगाई मंदिर में लाल नहीं सफेद झंडे लहराते हैं। नवरात्रि के पावन पर्व के दौरान जंगल से घिरे इस पहाड़ पर मां के दर्शन करने वालों का तांता लग जाता है। जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर की दूरी पर कोरबा ब्लॉक के अंतर्गत ग्राम पंचायत धनगांव स्थित है। इसके आश्रित गांव पोड़ीखोहा की सीमा में समाहित है कोसगाई मंदिर। नवरात्रि पर्व के दौरान कोसगाई देवी के दर्शन करने वालों की तादाद में इजाफा हो जाता है। श्रद्धालु मां के चरणों में शीश तो नवाते ही हैं, साथ ही अतीत के पन्नों में भी झांकते हैं। पहाड़ी, कभी यहां दुर्ग था, की चोटी में स्थापित मंदिर तक पहुंचने में शारीरिक कसरत करनी पड़ती है। सीधी चढ़ाई होने की वजह से यह स्थिति निर्मित होती है, लेकिन लोगों की आस्था के आगे शारीरिक कष्ट दूर हो जाते हैं। बताया जाता है कि पहाड़ी पर किला बनाए जाने के साथ ही मंदिर की स्थापना भी की गई थी। इसको लेकर दो तरह के इतिहास सामने आते हैं। एक यह है कि कोसगाई देवी जमींदारों की कुल देवी थी। वहीं दूसरी बात यह भी कही जाती है कि राजा वाहरेन्द्र (बहरसाय) ने देवी मां की स्थापना की थी। कोसगाई देवी को शांति का प्रतीक माना जाता है। देवी मां के मंदिर की विशिष्ट पहचान यह है कि इस पर छत नहीं होती है। इसके अलावा पहाड़ी में भीमसेन, गौमुखी, ठाकुरदेव, नरसिंह भगवान, कोलीन शक्ति, जगराखाड़ दर्शनीय स्थल हैं। बहरहाल इतिहास जो भी हो कोसगाई देवी की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई है।
स्त्रोत : पत्रिका