उत्तरप्रदेश में महन्त आदित्यनाथ योगी जी के मुख्यमंत्री बनने के निहितार्थों और परिणामों पर विचार करणीय है। वस्तुतः अब तो यह सर्वविदित है कि उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जीत हिन्दुत्व की जीत है। ७० वर्षों में हिन्दुत्व विरोधी अनेक राजनैतिक समूहों ने कांग्रेस के प्रमुख नेताओं के संरक्षण में शिक्षा और संचार माध्यमों में प्रभुत्व अर्जित कर लिया था, इसलिए सार्वजनिक बहसों में बिना किसी आधार के एक ऐसा माहौल बना दिया गया था कि हिन्दुत्व स्वयं में कोई बुरी चीज है और हिन्दुत्व का विरोध स्वयं में कोई बडा मूल्य है।
महत्त्वपूर्ण और रोचक तथ्य यह है कि ये सभी लोग परोक्ष रूप से हिन्दुत्व को भारतीयता का पर्याय मानकर चलते हैं और दूसरी ओर भारतीयता के किसी भी आग्रह को संकीर्णता मानकर चलते हैं। साथ ही, यह प्रयास करते हैं कि एक नयी भारतीयता की कल्पना और रचना की जाए, जिसमें हिन्दुत्व सबसे कमजोर और अधीनस्थ धारा हो तथा इस्लाम, ईसाइयत और कम्युनिज़्म या समाजवाद निर्णायक त्रिवेणियाँ बनें। इस त्रिवेणी को गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी से भी अधिक पवित्र और भारत राष्ट्र के लिए पूजनीय बनाने की हरकतें भी जमकर की गयीं। इसके लिए सहारा इस बात का लिया गया कि मानो इस भौतिक त्रिवेणी के पुजारी भारत से अधिक दुनिया का ज्ञान रखते हैं और इसलिए वे भारत रूपी संकीर्णता में न फँसकर सम्पूर्ण संसार को सामने रखते हैं और भविष्य इन्हीं का है, क्योंकि ये विश्व की आधुनिकतम शक्तियों से सम्बद्ध हैं।
इसमें सबसे रोचक बात यह है कि वस्तुतः इन लोगों को विश्व में हो रहे महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की कोई जानकारी बौद्धिक स्तर पर नहीं है और केवल सूचना के स्तर पर जानकारी है भी तो ये अपनी पुरानी मानसिक संरचनाओं के मकडजाल में इस कदर उलझे हैं कि उसके परे जाकर सचाई को देखना ही नहीं चाहते।
मध्यकालीन ईसाई चर्च के भयंकर अत्याचारों से कराहती यूरोपीय जनता के लिए यूरोप की प्रबुद्ध धारा और कम्युनिस्ट धारा- दोनों ही मुक्तिदायिनी शक्ति बने। कम्युनिस्टों ने चर्च के अत्याचारों पर प्रचण्ड प्रहार किये और ईसाइयत को अफीम करार दिया। दूसरी ओर प्रबुद्ध यूरोपीयों ने विश्व की अनेक सभ्यताओं के सम्पर्क में आकर बहुत कुछ सीखा। इसमें निर्णायक मोड उन दोनों महायुद्धों से आया, जिसे यूरोपीय लोग और उनके भारतीय चेले भी विश्वयुद्ध कहते हैं। यद्यपि वह किसी भी अर्थ में विश्वयुद्ध न होकर केवल यूरोपीय शक्तियों का युद्ध था, जिसमें उनके मित्रगण और अधीनस्थ समूह भी शामिल हुए थे। दोनों विश्वयुद्धों से बाहर, विश्व का एक बहुत बडा क्षेत्र था, जिसका इन युद्धों से कोई लेना-देना था ही नहीं।
बहरहाल, इन दोनों महायुद्धों में पश्चिमी यूरोप के दोनों धडों को भयंकर क्षति उठानी पडी। कई बार जर्मनी जीत के कगार तक जा पहुँचा और फिर कालप्रवाह के किसी अदृश्य सिद्धान्त के अन्तर्गत ब्रिटिश पक्ष को विजय अचानक मिली। परन्तु दोनों ही पक्षों की बहुत बडी हानि हुई। ऐसे में सम्पूर्ण यूरोप में शान्ति-शान्ति की पुकार चारों ओर मचने लगी और साधारण यूरोपीय व्यक्ति युद्ध के नाम से ही घबराने लगा। परन्तु यूरोप की राजनीति के संचालक लोग तो केवल युद्ध के जरिये ही राजनीति करना जानते थे और हैं। इसलिए उन्होंने नयी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ बनायीं, जिनका घोषित लक्ष्य है- ‘युद्ध के लक्ष्यों को शान्तिपूर्ण उपायों से प्राप्त करना।’
इसके साथ ही सभी पक्ष भयंकर संहारकारी अस्त्र-शस्त्रों और रसायनों तथा परमाणु बमों के संग्रह में पूरी तल्लीनता से जुटे हैं और दूसरे पक्ष को उस विषय में आगे नहीं बढ़ने देने के लिए शान्ति, निरस्त्रीकरण, परमाणु संयम, आदि-आदि की बातें करते रहते हैं।
अब समस्या यह है कि युद्ध की इन प्रचण्ड तैयारियों के साथ चल रहे शान्ति के आलाप का तालमेल कैसे बैठाया जाये? पहले युद्ध की तैयारी के पक्ष में पश्चिमी यूरोप और अमेरिका कम्युनिस्ट खेमे की बर्बरता और भयंकरता का डर दुनिया में फैला रहे थे। अपने ही अन्तर्विरोधों और खोखलेपन से तथा झूठ के बोझ से कम्युनिज़्म टूट गया। ऐसे में व्यापक युद्ध का कोई प्रत्यक्ष उत्तेजक कारण नहीं रहा। ऐसी स्थिति में तरह-तरह के उग्रवादी, अलगाववादी और आतंकवादी समूहों को हथियारों की तस्करी तथा बिक्री के धन्धे से जोडकर स्थानीय युद्धों के अनेक मोर्चे खोल दिये गये। परन्तु ऐसे युद्धों के पक्ष में कोई वैचारिक आधार जुट पाना मुश्किल होता चला गया। पहले तो ईसाइयत ने संसार को सभ्य बनाने की ठेकेदारी ‘गॉड’ के द्वारा चर्च को सौंपी गयी बताकर ऐसे युद्धों के पक्ष में तर्क खडा किया था, परन्तु साथ ही विश्व के वीर समूहों से सीधे टकराने का साहस नहीं होने के कारण तथा वीरता की कमी के कारण वे अपनी युद्ध की भयंकर लालसा को शान्ति और प्रेम के छलपूर्ण मुहावरों में ढँकने की कूटनीति भी साथ-साथ चलाते थे। यह कूटनीति ही उनकी उलझन का कारण बन गयी। क्योंकि लोगों ने प्रेम के उनके आलाप को और सेवा के उनके दावों को कई जगह गम्भीरता से लेे लिया। अतः खुलकर युद्ध करना मुसीबत बन गया।
इस बीच, कुछ तो उनके प्रयास से और कुछ संयोगवश जगह-जगह परस्पर असंगठित और आवेग से भरे हुए कतिपय इस्लामी आतंकवादी गुट और समूह उभर आये। ऐसे में पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राज्य अमेेरिका के लिए ही नहीं, अपितु रूस और अन्य देशों के लिए भी इन समूहों को उचित जवाब देने के लिए शस्रों के प्रयोग की आवश्यकता और औचित्य का अनुभव होने लगा। फिलहाल शस्त्रों के धन्धे की गाडी इसी आड में चल रही है। पर यह आड बहुत मजबूत नहीं है। क्योंकि खुले और बडे युद्ध के पक्ष में विश्व जनमत बिल्कुल नहीं है। ऐसी स्थिति में एक शान्तिपूर्ण और यथासभव न्यायपूर्ण विश्व के पक्ष में प्रचण्ड जनमत उभर रहा है। पिछले 50 वर्षों से विज्ञान के क्षेत्र में हुई नयी खोजों और उनके निष्कर्षों से ब्रह्माण्ड की आधारभूत एकता तथा पर्यावरण के जैव संरचना होने का तथ्य विश्वभर में सर्वज्ञात हो गया है। इसने भी शान्तिपूर्ण विश्व के पक्ष में परिेवेश रचा है।
भारत के हिन्दुत्वद्रोहियों की मुश्किल यहीं से शुरू होती है। उनके पास विश्व की इन नवीनतम प्रवृत्तियों का संज्ञान लेते हुए कहने योग्य एक शब्द भी नहीं है। वे सोवियत संघ के जमाने में भारत से हिन्दुत्व को समाप्त कर यहाँ अल्पसंख्यकों का एक मोर्चा बनाते हुए कम्युनिज़्म थोपने के लिए रची गई युक्तियों के बन्दी बनकर रह गये हैं। परन्तु इन युक्तियों को गढ़ने वाला केन्द्र तो ढह चुका है। इसलिए विश्व के स्तर पर उनको पोषित करने वाला अब कोई नहीं है। भारतीय क्षेत्र से बाहर जो वस्तुतः मुस्लिम बहुसंख्या वाले राष्ट्र हैं, वे शान्तिपूर्वक रहना चाहते हैं और खुदा की मेहरबानी से मिले तेल के भण्डार की बिक्री से मिली दौलत का सुख लेते रहना चाहते हैं, इसलिए उनको किसी बडे खुले युद्ध में कोई रुचि नहीं है। इसी बात का एक दूसरा पहलू यह है कि वे अपने यहाँ के उन पागल से दिखने वाले, जोशीले मजहबवादियों से भी कोई बडी तकरार मोल नहीं लेना चाहते, जो मजहब के नाम पर जान देने और लेने पर उतारू हैं। इस तरह वे एक तालमेल बनाये रखने की कवायद करते रहते हैं।
भारत के हिन्दुत्वद्रोही यूरोप में ठुकराये जा चुके, परन्तु आस्था के स्तर पर पागलपन की हद तक अभी भी जोश से भरे हुए कतिपय मध्ययुगीन मिशनरियों तथा मजहबी जुनून वाले कतिपय गुटों की दोस्ती के इतने अधिक अभ्यस्त हैं कि वे जाने किस दुनिया के मुहावरे और जुमले उछालते रहते हैं तथा जैसा संसार में कहीं नहीं है, वैसा एक विचित्र सा बहुसंख्यक विरोधी उन्माद रचने की हास्यास्पद कोशिशें करते रहते हैं।
जाहिर है, उनका वक्त बीत चुका है। वे गुजरे वक्तों के लोग हैं। इसीलिए भारत में भी अब बहुसंख्यकों की अपनी संस्कृति और अपने श्रेष्ठ आदर्शों की निन्दा उसी प्रकार सम्भव नहीं है, जैसी विश्व में कहीं किसी भी राष्ट्र में सम्भव नहीं है। इसलिए भारत में भविष्य तो हिन्दुत्व का ही है। हिन्दुत्व की विभिन्न धाराओं के बीच ही यहाँ भविष्य में राजनीति चलेगी। उन्हीं में कोई धारा अधिक उदार होगी और कोई कुछ कम। जैसा यूरोप के प्रत्येक राष्ट्र में है।
आदित्यनाथ योगी जी का करोडों मतदाताओं वाले राज्य में सत्तासीन होना नये युग की शुरूआत है। यह भारतीय लोकतंत्र के स्वस्थ स्वरूप की सहज गतिशीलता का प्रमाण है। जो लोग इस लोकतंत्र को तरह-तरह के नकली आरोपों और खरोचों से लहूलुहान रखने के लिए रात-दिन एक कर रहे थे, उन्हें संरक्षण देने वाला शासन और प्रशासन अब टिक पाना सम्भव नहीं है। स्वाभाविक लोकतांत्रिक शासन में ऐसा सम्भव होता ही नहीं है। इसलिए १९८० ईस्वी के बाद, जब स्वयं इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी में ही भारतीयता और हिन्दुत्व के लिए स्वाभाविक सम्मान और कोमलता जग चुकी थी, उसके बाद केवल भाजपा से राजनैतिक विद्वेष के कारण अचानक भारतीयता और हिन्दुत्व के विरुद्ध विद्वेष और विष को फैलाने वाली मुहावरेबाजी और जुमलेबाजी शिक्षा, संचार माध्यमों और प्रशासन के पुराने ढाँचों के बल पर जितने दिन चल गयी, वही चमत्कार है। अब उसकी वापसी सम्भव नहीं है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने राजनैतिक चतुराई जतलाते हुए हिन्दुत्व विरोधी राजनीति को ‘कांग्रेस’ का नाम दे दिया और कांग्रेस-मुक्त भारत का उद्घोष करने लगे, परन्तु कांग्रेस अपने मूल रूप में तो मुख्यतः हिन्दुत्व के प्रति आत्मगौरव का भाव रखने वाले लोगों की ही संस्था थी, जैसे आज भाजपा है। अतः वस्तुतः जो चीज समाप्त हो रही है, वह हिन्दुत्व के प्रति विद्वेष का संस्थाबद्ध रूप है। इसके समाप्त होने पर भी कांग्रेस का समाप्त होना कतई आवश्यक नहीं है। योगी जी का सत्तारूढ़ होना हिन्दुत्व की विजय और हिन्दुत्व विद्वेष की राजनीति की पराजय है। शेष सब जुमलेबाजी है।