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देशभक्ति का दीक्षामंत्र : ‘वन्दे मातरम्’ एवं ‘बंकिमचंद्र’

वर्ष १८८० में बंगाली देशभक्त बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘संन्यासियों का विद्रोह’ इस सत्य घटना पर आधारित अपने ‘आनंदमठ’ उपन्यास में ‘वन्दे मातरम्’ इस राष्ट्रगीत की रचना की। यह उपन्यास जिस सत्यघटनापर आधारित है, वह घटना भारतीय इतिहास में विख्यात है। वर्ष १७६२ से लेकर वर्ष १७४४ की अवधि में बंगाल में यह विद्रोह हुआ था। आज भी इस संबंध में अनेक ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं !

१. अन्यायी-अत्याचारी मुसलमान एवं अंग्रजोंद्वारा किए गए शोषण के कारण हिन्दू प्रजा की स्थिति ‘त्राही भगवान’ जैसी हुई

वर्ष १७६२ से १७४४ तक हुआ ‘संन्यासियों के विद्रोह’ का समय हमें ऐतिहासिक दृष्टि से ध्यान में लेना होगा। वर्ष १७६२ में कोलकाता का नवाब मीर कासिम अली के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी का एक व्यापारी अनुबंध हुआ था। वर्ष १७६३ में अंग्रेजों ने शहा आलम के अधिकारों को छीनकर सत्ताभ्रष्ट किया तथा अपने लिए सुविधाजनक ऐसे मीर जाफर को सत्तापर बिठाया। उसी वर्ष बक्सर की लडाई हुई और तब अंग्रेजों ने शहा आलम के अधिकारों को छीनकर उसे निवृत्तिवेतन आरंभ कर बंगाल के राजनीतिक सूत्र अपने हाथ ले लिए। वर्ष १७६५ में कोलकाता के नबाब ने अंग्रेजों के आगे शरणागति स्वीकृत की। (१२ अगस्त १७६५) और रॉबर्ट क्लाईव ने एक बादशाही फर्मान से बंगाल के नागरी अधिकार प्राप्त कर लिए।

इसका अर्थ बंगाल, बिहार एवं ओडिशा प्रांतों के राजस्व के वसूली के सभी अधिकार अंग्रेजों को प्राप्त हो गए। उसके माध्यम से ही अंग्रेजों ने इस प्रदेशपर अपनी अधिसत्ता स्थापित की। यह स्थिति ऐसी विलक्षण एवं इतनी विचित्र थी कि, राजस्व वसूली के अधिकार अंग्रजों के पास; किंतु प्रजा की रक्षा का दायित्त्व नवाब अर्थात मुसलमानी सत्ता के पास ! इससे अंग्रेज एवं मुसलमानों के पारंपरिक अन्यायी-अत्याचारी शोषणतंत्र के कारण हिन्दू प्रजा को ‘त्राही भगवान’ की स्थिति में लाकर खडा कर दिया गया। इसीके फलस्वरूप यह संन्यासियों का विद्रोह हो गया। अर्थात यह एक प्रकार से वह स्वराज्य हेतु लडाई ही थी।

२. संन्यासियों के इस विद्रोह के कारण मुसलमानी एवं अंग्रेजों की संयुक्त सेना की हार होना

इन संन्यासियों ने वर्ष १७६३ में विद्रोह कर बंगाल के बकरगंज के आसपास के प्रदेश को अपने अधिपत्य में ले लिया और ढाका के अंग्रेजों के गोदाम को अपने नियंत्रण में ले लिया। वर्ष १७६८ में उन्होंने बिहार के सरन मंडल में (जिले में) अंग्रेजों के विरोध में संघर्ष किया। वर्ष १७७० में ये स्वतंत्रता सेनानी दिनाजपुर मंडल में उतर आए। वहां से उन्होंने ढाका एवं राजशाही मंडल के उत्तरी भाग को अपने नियंत्रण में ले लिया और अपना प्रचंड प्रभाव स्थापित कर तत्कालिन सत्ताधारियों को त्राहि भगवान कर दिया। वर्ष १७७२ में पूर्णिया, तिरहुत एवं दिनाजपुर क्षेत्रों में व्यापक आक्रमण कर रंगपुर के निकट मुसलमानी एवं अंग्रेजों की संयुक्त सेना को परास्त कर दिया। इसी पराभव तक का वर्णन बंकिमचंद्र ने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में किया है।

३. ‘आनंदमठ’ में विद्रोह के संदर्भ में ऐसे वैष्टियपूर्ण उल्लेख हैं . . .

अ. आनंदमठ के तृतीय खंड के पृष्ठ १११ पर इन संन्यासियों के विद्रोह के संदर्भ में कहा गया है कि, मुसलमानी राज्य में व्याप्त अराजकता एवं स्वैराचार के कारण सभी लोग त्रस्त हो गए थे। हिन्दू धर्म के लोप के कारण हिन्दू प्रजा हिन्दुत्व की पुनर्स्थापना हेतु अत्यंत उत्सुक थी।

आ. तिसरे खंड में संतोंद्वारा प्रमुख बडी लडाई जितने की जानकारी दी गई है।

इ. तत्पश्‍चात आरंभ हुए चौथे खंड के पहले ही प्रकरण के अंतर्गत पृष्ठ क्र. १५२ में विजय का जो वर्णन किया गया है, उसमें यह कहा गया है कि, ‘सभी लोग कहने लगे कि, अब मुसलमान परास्त हो गए। अब यह देश पुनः हिन्दुओं का हो गया है। अतः हम सभी मिलकर मुक्तकंठ से हरिनाम का जयघोष करेंगे !’

४. ‘आनंदमठ’ में अनेक स्थानोंपर ‘हिन्दू राज्य’ की स्थापना का उल्लेख !

तत्कालिन अन्यायी एवं अत्याचारी मुसलमानी सत्ता नष्ट हो तथा इस देश के वास्तविक स्वामी हिन्दुओं के हाथ में राजसत्ता हो, अर्थात स्वराज्य की स्थापना हो, यह विचार आनंदमठ में अनेक जगहों पर व्यक्त हुआ है तथा वह न्याय्य भी है। महाराष्ट्र की तत्कालिन शिवकालीन स्थिति को ध्यान में लिया, तो यह सुलभता से समझ में आएगा।

देहली की मुगलों की मुसलमानी सत्ता के साथ दक्षिण की ४ मुसलमानी पातशाहियों के चंगुल से हिन्दुओं की मुक्तता की जाए तथा हिन्दुओं का अर्थात स्वराज्य की स्थापना की जाए; इसके लिए ही शिवाजी महाराज कटिबद्ध हो गए तथा उन्होंने रायगढ पर हिन्दुओं के ‘छत्रपति’ के रूप में वैधानिक पद्धति से स्वयं का राज्याभिषेक करा लिया। महाराष्ट्र में स्वराज्य की स्थापना का यह इतिहास है, इसे हम गौरवास्पद, अभिमानास्पद, न्यायसंगत एवं इष्ट मानते हैं। वैसे ही, बंगाल में भी तत्कालिन मुसलमानी राज्यसत्ता के अत्याचार के नीचे पीसे जा रहे हिन्दुओं की मुक्तता की जाए तथा उनके ही सामर्थ्य के माध्यम से वहां पर स्वराज्य की संस्थापना हो, यह लक्ष्य भी उतना ही न्यायसंगत, गौरवशाली एवं इष्ट सिद्ध होने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आनंदमठ में अनेक बार इस प्रकार से हिन्दू राज्य की स्थापना का अर्थात स्वराज्य स्थापना का लक्ष्य के रूप में उल्लेख आ गया है। अर्थात एक शतक के पूर्व घटित इतिहास के साथ इसका संबध था, इस लिए वह इतिहास ही था तथा उसमें व्याप्त उद्देश्य भी स्पष्ट था।

५. ‘आनंदमठ’ अत्यद्भुत राजनीतिक प्रभाव छोडनेवाला पुस्तक ! – एनसायक्लोपिडिया ब्रिटानिका

इस तरह से, यह ‘आनंदमठ’ उपन्यास एक ऐतिहासिक सत्यघटनापर आधारित है; किंतु उसे केवल इतिहास का वर्णन करने हेतु ही लिखा नहीं गया है, अपितु इतिहास बनाने को इच्छुक ऐसे लोगों के लिए प्रेरणा एवं उनको प्रोत्साहित करने हेतु उसका जन्म हुआ है। ‘एनसायक्लोपिडिया ब्रिटानिका’ में ऐसा वर्णन किया गया है कि, ‘अत्यद्भुत राजनीतिक प्रभाव छोडनेवाला यह उपन्यास तथा उसमें स्थित ‘वन्दे मातरम्’ यह अमर गीत, ये दोनों भी क्रांतिकारी सिद्ध हुए हैं’, और यह वर्णन वास्तविक रूप में यथार्थ भी है !

संदर्भ : ‘आनंदमठ’, मराठी अनुवाद – श्रीपाद जोशी, प्रस्तावना – अमरेंद्र गाडगीळ
स्मारिका – वन्दे मातरम् शताब्दी समारोह, वाराणसी (१९७६) आनंदमठ (संक्षिप्त मराठी) : भा.वि. वरेरकर (१९५५)

‘वन्दे मातरम्’ का श्रेष्ठत्व !

श्री योगी अरविंद सुप्रसिद्ध अलिपुर बम अभियोग में फंस कर पकडे जाने से केवल ३ माह पूर्व उनकेद्वारा २९ जनवरी १९०८ को वर्‍हाड प्रांत के अमरावती में किए गए भाषण में व्यक्त किए गए विचार . . . 

श्री योगी अरविंद

‘वंदे मातरम्’ गीत युरोपियन राष्ट्र अपने अपने राष्ट्रगीतों की ओर (नॅशनल अ‍ॅन्थेम की ओर) जिस भावना से देखते हैं, केवल वहां तक सीमित नहीं है, अपितु प्रचंड शक्ति से परिपूर्ण आनंदमठ’ के रचयिता जिन्हें ऋषि कहना संभव होगा, ऐसे बंकिमचंद्रद्वारा प्रकट किया गया एक पवित्र मंत्र है। उसका प्रभाव बंकिमचंद्र की कालावधि में विशेष रूप से ध्यान में नहीं आया; तथापि उसी समय उन्होंने उसका भविष्य बताया था कि, एक समय ऐसा आएगा कि पूरा हिन्दुस्थान इस गीत से गूंज उठेगा एवं उस द्रष्टा का वह वचन चमत्कारित रूप से सार्थ हो गया है !

साथ ही १६ अप्रैल १९०७ में श्री योगी अरविंद ने वंदे मातरम् समाचारपत्र में ऋषि बंकिम बंकिमचंद्र की महत्ता को बतानेवाला संस्मरणीय लेख लिखा, जिसमें वे कहते हैं . . .

१. ऋषियों की श्रेष्ठता उनके साहित्यिक सृजन से सिद्ध होती है !

ऋषि एवं संत में अंतर है। ऋषि का जीवन उच्च स्तर की पवित्रता से खुलकर दिखनेवाला अथवा उनका चारित्र्य आदर्श श्रेणी के सौंदर्य से सजा हुआ नहीं होता, अपितु वे स्वयं कैसे थे ? (अर्थात उनका अपना जीवन कैसा था) इससे उसकी महत्ता नहीं सिद्ध होती। उनकी श्रेष्ठता उनके साहित्यिक सृजन से सिद्ध होती है।

२. ‘वन्दे मातरम्’ का उदय

३२ वर्ष पूर्व बंकिम चंद्र ने यह महान गीत लिखा; परंतु बहुत ही कम लोगोंने उसे सुना। तथापि दीर्घ अंधेरी रात्रि में एकाएक क्षणभर जागी वंगीय जनता ने सत्य समझ लेने हेतु दूर तक (आसमंत में) दृष्टी घुमाई एवं एक सुवर्ण अवसर पर कोई गाने लगा ‘वंदे मातरम्’ !

३. संघटित हिन्दुस्थान के राष्ट्रगीत का उत्कृष्ट काव्याविष्कार : वंदे मातरम्

स्वदेश एवं स्वजाति के लिए कार्य करने की यह कल्पना ही इस ‘आनंदमठ’ पुस्तक की पूरी गुरुकिल्ली है एवं इस पुस्तक में संघटित हिन्दुस्थान का राष्ट्रगीत (नॅशनल अ‍ॅन्थेम ऑफ युनायटेड इंडिया) बने इस महान गीत के रूप में उसका उत्कृष्ट काव्याविष्कार प्रकट हुआ है !

४. मातृमंदिर की पूर्ण रूप से स्थापना कर उस में माता की मूर्ति स्थापित हुए एवं बलिदान दिए बिना उसे निद्रा भी नहीं है !

मंत्र मिल गया था एवं एक दिन में पूरी जनता ने देशभक्ति के धर्म की दीक्षा ली थी। माता का अविष्कार हो गया था। एक बार यह मातृदर्शन हुआ, तब से लोगों को विश्रांति एवं शांति नहीं। मातृमंदिर पूर्ण रूप से स्थापित होकर उस में माता की मूर्ति स्थापित किए बिना एवं उसका बलिदान किए बिना निद्रा भी नहीं आएगी। एक महान राष्ट्र को एक बार यह दर्शन होने पर वे आक्रामकों की शृंखला के सामने अपनी गर्दन झुका कर दास्यत्व को स्वीकार करने की संभवना ही नहीं है !

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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