सारणी
- ५. साढेतीन मुहूर्तों में से एक
- ६. पृथ्वी की सात्त्विकता बढना
- ७. त्यौहार मनाने की पद्धति
- ८. तिल-तर्पण का अर्थ एवं उद्देश्य
- ९. देवता को तिल-तर्पण करने की पद्धति
- १०. अक्षय तृतीया के दिन पूर्वजों को तिल-तर्पण करने का महत्त्व
- ११. पूर्वजों को गति मिलने हेतु तिल-तर्पण करने की पद्धति
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१. वैशाख शुक्लपक्ष तृतीया को अक्षय्य तृतीया कहते हैं
इसे व्रत के साथ त्यौहार के रूप में भी मनाया जाता है । महाराष्ट्र में अक्षय्य तृतीया का दिन महिलाओं के लिए विशेष महत्त्व रखता है । इस दिन महिलाएं चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन प्रतिष्ठापित चैत्र गौरी का विसर्जन करती हैं । चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया से वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया तक किसी मंगलवार अथवा शुक्रवार एवं किसी शुभ दिनपर वे हल्दी-कुमकुम का स्नेह मिलन करती हैं । अक्षय्य तृतीया का अनेक कारणों से महत्त्व होता है ।
२. अक्षय फल प्रदान करनेवाला दिन
पुराणकालीन मदनरत्न नामक संस्कृत ग्रंथ में बताए अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्त्व बताया है। वे कहते हैं,
अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं ।
उद्दिश्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः ।
– मदनरत्न
अर्थात, इस तिथि को दिए हुए दान तथा किए गए हवन का क्षय नहीं होता । इसलिए इसे मुनियों ने ‘अक्षय्य तृतीया’ कहा है । देवों तथा पितरों के लिए इस तिथिपर जो कर्म किया जाता है, वह अक्षय; अर्थात अविनाशी होता है ।’
३. सत्ययुग की समाप्ति एवं त्रेतायुग का प्रारंभ दिन
प्रत्येक युग में समय के साथ सात्त्विकता अल्प होती है, अर्थात रज-तम का प्रभाव बढता है । मनुष्यों की साधना करने की क्षमता अल्प होती है एवं उनसे धर्म का पालन नहीं होता । इससे धर्माधिष्ठितता नष्ट होती है । ऐसे में धर्म संस्थापना हेतु ईश्वर अवतार धारण करते हैं एवं मनुष्यों को आचरण में लाने योग्य साधना मार्ग को प्रस्थापित करते हैं । इससे सात्त्विकता बढती है एवं दूसरे युग के सत्ययुग का आरंभ होता है । इस स्थित्यंतर के काल को शून्यकाल अथवा कलह काल कहते हैं । हिन्दु धर्मशास्त्र के अनुसार एक युग का अंत एवं दूसरे युग का प्रारंभ दिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इस दिन एक युग के कलह काल का अंत होकर दूसरे युग के सत्ययुग का आरंभ होता है । अतः यह संधिकाल है । यह काल; अर्थात मुहूर्त कुछ ही क्षणों का होता है; परंतु उसका परिणाम २४ घंटों तक रहता है । इसलिए पूरा दिन ही शुभ माना जाता है ।
४. अवतारों के प्रकटीकरण का दिन
अक्षय्य तृतीया के दिन ही हयग्रीव अवतार, परशुराम अवतार एवं नरनारायण अवतार का प्रकटी करण हुआ है ।
५. साढेतीन मुहूर्तों में से एक
अक्षय्य तृतीया के दिन को साढेतीन मूहूर्तों में से एक मुहूर्त माना जाता है । साढेतीन मुहूर्त इस प्रकार हैं, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अर्थांत नववर्षारंभ दिन, विजयादशमी एवं अक्षय्य तृतीया, इस प्रकार तीन मुहूर्त तथा बलि प्रतिपदा आधा मुहूर्त माना जाता है ।
६. पृथ्वी की सात्त्विकता बढना
अक्षय्य तृतीया के दिन ब्रह्मा एवं श्रीविष्णु इन दो देवताओं का सम्मिलित तत्त्व पृथ्वीपर आता है । इससे पृथ्वी की सात्त्विकता १० प्रतिशत बढती है । अबतक हमने अक्षय्य तृतीया के महत्त्वसे संबंधित विविध कारण देखे ।
७. त्यौहार मनाने की पद्धति
जैसे हमने पहले देखा कि, किसी भी युगका आरंभदिन भारतियों की दृष्टि से सदैव पवित्र ही होता है । ऐसे पवित्र दिनपर किए गए पूजा-पाठ, होम-हवन, नामजप, दान, पितृतर्पण इत्यादि का लाभ भी अत्यधिक मिलता है । अक्षय्य तृतीया के दिन पवित्र जल में स्नान करें । श्रीविष्णु की पूजा एवं नामजप करें । संभव हो, तो पितरों के लिए अपिंडक श्राद्ध करें । श्राद्ध करना संभव न हो, तो न्यूनतम तिल तर्पण करें । साथ ही होम-हवन तथा दान करें ।
८. तिल तर्पण का अर्थ एवं उद्देश्य
तिल-तर्पण का अर्थ है, देवताओं एवं पूर्वजों को तिल तथा जल अर्पण करना । तर्पण का अर्थ है, देवता एवं पूर्वजों को जलांजलि; अर्थात अंजुली से जल देकर उन्हें तृप्त करना । पितरों के लिए दिया हुआ जल ही पितृतर्पण कहलाता है । पूर्वजों को अपने वंशजों से पिंड एवं ब्राह्मण भोजन की अपेक्षा रहती है, उसी प्रकार उन्हें जल की भी अपेक्षा रहती है । तर्पण करने से पितर संतुष्ट होते है । तिल सात्त्विकता का, तो जल शुद्ध भाव का प्रतीक है । देवताओं को श्वेत एवं पूर्वजों को काले तिल अर्पण करते हैं । काले तिलद्वारा प्रक्षेपित रज-तमात्मक तरंगों की सहायता से अतृप्त लिंगदेह पृथ्वीपर उनके लिए की जा रही विधि के स्थानपर सहजता से आ सकते हैं । विधिमें से उनका अंश सहजता से ग्रहण कर वे तृप्त होते हैं ।
९. देवता को तिल-तर्पण करने की पद्धति
अ. प्रथम ताम्रपात्र हाथ में लें ।
आ. ब्रह्माजी अथवा श्रीविष्णु तथा उनके एकत्रित रूप का अर्थात श्री दत्तात्रेय भगवान का स्मरण कर उन्हें ताम्रपात्र में आने का आवाहन करें ।
इ. ताम्रपात्र में ‘देवता सूक्ष्म से आए हैं’, ऐसा भाव रखें ।
ई. श्वेत तिल हाथ में लें एवं साक्षात देवता के प्रति तिल अर्पण करने का भाव रखते हुए तिल जल के साथ देवतिर्थ से अर्थात हाथ सिधाकर उंगलीयों के उपरसे ताम्रपात्र में अर्पण करें ।
उ. देवता को नमस्कार करें।
अभी हमने देवताओं को तिल तर्पण करने का कृत्य देखा । इस प्रकार देवताओं के प्रति भावपूर्णरिती से तिल एवं जल अर्पण करने से देवताओं की सात्विकता अर्पणकर्ता अधिक मात्रा में ग्रहण कर पाता है ।
१०. अक्षय तृतीया के दिन पूर्वजों को तिल-तर्पण करने का महत्त्व
अक्षय्य तृतीया के दिन उच्च लोक से पृथ्वीपर अधिक मात्रा में सात्त्विकता प्रक्षेपित होती है । अन्य दिनों की तुलना में इसकी मात्रा ६० से ७० प्रतिशत होती है । यह सात्त्विकता ग्रहण करने हेतु भुवलोक के अनेक जीव इस दिन पृथ्वी के निकट आते हैं । इनके कारण मनुष्य के लिए कष्ट की आशंका रहती है । अतृप्त पूर्वजों के कारण कष्ट की मात्रा ३० से ४० प्रतिशत होती है । पूर्वज पृथ्वी के निकट आनेके कारण उनके लिए किए गए तिल तर्पणसे उन्हें ऊर्जा प्राप्त होकर, उन्हें गति भी प्राप्त होती है ।
११. पूर्वजों को गति मिलने हेतु तिल-तर्पण करने की पद्धति
अ. एक ताम्रपात्र में अपने पूर्वजों को आवाहन करें ।
आ. ‘पूर्वज सूक्ष्म से आए हैं ऐसा भाव रखें ।
इ. हाथ में काले तिल लें ।
ई. तिल में श्रीविष्णु एवं ब्रह्माजी के तत्त्वों को आने हेतु प्रार्थना करें ।
उ. इसके उपरांत देवतातत्त्व से संचारित तिल जल के साथ पितृतिर्थ से अर्थांत अंगुठा एवं तर्जनी के मध्य से ताम्रपात्र में अर्पण करें । हम ‘पूर्वजों के प्रति तिल एवं जल अर्पण कर रहें है’ ऐसा भाव रखें ।
ऊ. इस समय पूर्वजों को गति देने हेतु श्री दत्तात्रेय भगवान, ब्रह्माजी अथवा श्रीविष्णु को प्रार्थना करें ।