- १. व्रत एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य
- २. चातुर्मासमें त्यौहार एवं व्रतोंकी अधिकताका कारण
- ३. व्रत शब्दकी व्युत्पत्ति एवं अर्थ
- ४. व्रतकी परिकल्पना एवं इतिहास
- ५. व्रतसंख्या
- ६. व्रतोंका महत्त्व
१. व्रत एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य
मनुष्य जन्मका मुख्य ध्येय है, प्रतिदिन साधना कर आनंदप्राप्ति अर्थात ईश्वरप्राप्तिके लिए प्रयास करना । परंतु मनुष्य इस ध्येयको भूल जाता है । मनुष्यको अपने जीवनके उदात्त ध्येयका स्मरण रहे, इसलिए हमारे ऋषिमुनियोंने जीवनका आध्यात्मीकरण करनेके विविध मार्ग बताए हैं, व्रत उन्हींमें एक है । व्रत एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य है । आषाढ शुक्ल एकादशीसे ‘चातुर्मास’ प्रारंभ होता है । रक्षाबंधन, श्रीगणेशचतुर्थी, नवरात्रि, दीपावली जैसे अधिकतर त्यौहार, एवं अयाचित व्रत, एकादशीव्रत, महालक्ष्मीव्रत, नवरात्र जैसे अधिकतर व्रत ‘चातुर्मास’ में ही आते हैं ।
२. चातुर्मासमें त्यौहार एवं व्रतोंकी अधिकताका कारण
आषाढ शुक्ल एकादशीसे कार्तिक शुक्ल एकादशीतक, चौमासेमें पृथ्वीपर प्रवाहित तरंगोंमें तमोगुणप्रबल तरंगोंकी मात्रा अधिक रहती है । उनका सामना कर पानेके लिए सात्त्विकता बढाना आवश्यक है । त्यौहार एवं व्रतोंद्वारा सात्त्विकतामें वृद्धि होती है । चातुर्मासमें अधिकाधिक त्यौहार एवं व्रत आते हैं ।
३. व्रत शब्दकी व्युत्पत्ति एवं अर्थ
‘व्रत’ शब्द ‘वृ’ धातुसे बना है । इसके विभिन्न अर्थ हैं । वरना अर्थात स्वीकारना, संकल्प, इच्छा, आज्ञापालन, उपासना, प्रतिज्ञा इत्यादि । श्रद्धालुओंकी यह धारणा होती है कि ‘देवताओंने उनके एवं प्राणियोंके लिए कुछ विशिष्ट आज्ञाएं की हैं । ऐसी आज्ञाओं अथवा कर्तव्योंका जब दीर्घकालतक पालन किया जाता है, तो उन्हें रूढि अथवा प्रथाका स्वरूप प्राप्त होता है । जब लोगोंमें श्रद्धा जागृत होती है, कि देवताओंद्वारा संकल्पित विशेष कृत्य करना अनिवार्य है, तब उन्हें धार्मिक आचार अथवा उपासनाका अर्थ ज्ञात होता है । विशिष्ट कालके लिए अथवा आमरण आचरणमें लाने हेतु विशिष्ट नित्यनेमको व्रत कहते हैं । भगवानकी कृपाप्राप्ति हेतु जब कोई व्यक्ति अपने आचार अथवा अन्नादि व्यवहार प्रतिबंधित करता है, तब उन निर्बंधोंको पवित्र प्रतिज्ञा अथवा धार्मिक कर्तव्यका स्वरूप प्राप्त होता है । इसके द्वारा आज्ञापालन, धार्मिक कर्तव्य, देवताओंकी उपासना, नैतिक आचरण, विधियुक्त प्रतिज्ञा, अंगीकृत कार्य जैसे विविध अर्थ ‘व्रत’ शब्दके साथ जुड जाते हैं ।
४. व्रतकी परिकल्पना एवं इतिहास
मनुष्यकी रचना करनेसे पूर्व ईश्वरने मनुष्यके लिए आचारसंहिता बनाई । परंतु आगे चलकर कालके प्रवाहमें मनुष्यके धर्माचरणमें दिनोंदिन न्यूनताएं आती गर्इं तथा वहींसे व्रतोंकी परिकल्पना हुई । प्राचीन समयसे व्रत एक दिव्य साधनके रूपमें प्रसिद्ध हैं । व्रत अनेक हैं एवं व्रतोंके प्रकार भी अनेक हैं । यदि व्रतसंख्याका विचार करें, तो विभिन्न ग्रंथोंके अनुसार व्रतोंकी संख्या भिन्न है ।
५. व्रतसंख्या
विष्णुपुराणमें विष्णुसंबंधी, तो शिवपुराणमें शिवसंबंधी व्रत बताए गए हैं । महाभारतके ‘दानपर्व’में अनेक व्रत बताए गए हैं । ‘निर्णयसिंधु’ जैसे ग्रंथमें प्रायश्चित व्रत बताए गए हैं । मध्ययुगीन कालसमान कुछ व्रत ईसा पूर्व एवं पश्चातके कुछ शतकोंमें भी अस्तित्वमें थे । इस संदर्भमें देखते हैं, एक सारणी…
१. ग्यारहवीं शताब्दीमें राजा भोजके ‘राजमार्तंड’ ग्रंथमें केवल २४ व्रतोंका ही उल्लेख है ।
२. बारहवीं शताब्दीके ‘कृत्यकल्पतरु’ ग्रंथमें लगभग १७५ व्रतोंका उल्लेख पाया जाता है ।
३. तत्पश्चात बहुकालोपरांत रचित शूलपाणिकृत ‘कालविवेक’ ग्रंथमें केवल ११ व्रतोंका उल्लेख मिलता है ।
४. हेमाद्रिके ग्रंथमें ७०० व्रतोंका विवेचन है ।
५. इ.स. १९२९ में महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराजद्वारा प्रसिद्ध व्रतकोशमें १६२२ व्रतोंकी सूची दी गई है । व्रतराज, व्रतार्क, व्रतकौस्तुभ, हेमाद्रिव्रत इत्यादि ग्रंथोंमें व्रतसंबंधी विस्तृत जानकारी दी गई है । भारतभरमें एकादशीव्रत अर्थात पंढरपुर एवं आळंदीकी यात्रा करनेके दो व्रत प्रसिद्ध हैं । साथही वटसावित्रीव्रत, महालक्ष्मी व्रत, अन्नपूर्णा व्रत, कजलीतृतीया अर्थात हरितालिका इत्यादि व्रत भी अधिकतर किए जाते हैं ।
६. व्रतोंका महत्त्व
सामान्यजनोंके लिए वेदानुसार आचरण करना अत्यंत कठिन है । इस कठिनाईको दूर करने हेतु पुराणोंमें ऐसे व्रतवैकल्य बताए गए हैं, जिन्हें आचरणमें लाना सभीके लिए सुलभ होता है तथा उनसे सभीका उद्धार होता है । व्रतोंका महत्त्व विविध बातोंसे स्पष्ट होता है ।
६.१ व्रत सत्त्वगुणमें वृद्धि लाते हैं
व्रत मनुष्यको इंद्रियनिग्रही, मनःसंयमी, मितआहारी, मितभाषी एवं सहिष्णु बनाते हैं । इससे मनुष्यका सत्त्वगुण बढता है । महाराष्ट्रके संत समर्थ रामदास स्वामीजीने ‘श्री दासबोध’ नामक ग्रंथमें कहा है, कार्तिकस्नान, माघस्नान, व्रत उद्यापन, दान, निष्काम भावसे की गई तीर्थयात्रा, उपोषण, ये सर्व सत्त्वगुणमें वृद्धि लाते हैं ।
६.२ व्रतं भाग्यम अर्थात व्रत भाग्यवृद्धि करते हैं
भाग्यके कारण मनुष्यका सर्व दृष्टिसे उत्कर्ष होता है । इससे दुःख एवं आपत्तिका नाश होता है तथा संपत्ति, कीर्ति, यश, आयुआरोग्य इत्यादिका लाभ होता है । सती सावित्रीने व्रतके माध्यमसे अपना भाग्योदय करवा लिया । सावित्रीके भाग्यसे उनके श्वसुरको दृष्टि, राज्य एवं धर्मबुद्धि प्राप्त हुई । उनके पिताको पुत्रप्राप्ति हुई, उनके पति सत्यवानको जीवन प्राप्त हुआ तथा उन्हें स्वयं पुत्रप्राप्ति हुई ।
६.३ व्रतं पुण्यम अर्थात व्रतसे पुण्य होता है
पुण्य एक अलौकिक संपत्ति है । मनुष्य जीवनमें पुण्यका महत्त्व एवं आवश्यकता अनन्य है । पुण्यसेही मनुष्यको इच्छित फल, यश, कीर्ति, समाधान आदि प्राप्त होते हैं । यह सर्व व्रत करनेसे साध्य होता है ।
६.४ व्रतं यज्ञः अर्थात व्रत एक यज्ञ है
‘यज्ञात् भवति पर्जन्यः । ’ ऐसा वचन है । ‘व्रत’ एक यज्ञ है, इसलिए इससे पर्जन्य, विश्वशांति जैसे लाभ होते हैं । अधिकतर यज्ञविधिका फल है स्वर्गप्राप्ति, जो मृत्युपश्चात प्राप्त होता है । व्रतोंके संदर्भमें ऐसा नहीं है । व्रतोंके फल व्रतकर्ताको इसी जन्ममें मिलते हैं । वैदिक यज्ञ कुछ ही लोग कर पाते है; परंतु व्रत कोई भी कर सकता है । ऐतरेय ब्राह्मणग्रंथमें बताया गया है कि जिसने व्रतको अंगीकार न किया हो, उसके द्वारा अर्पित आहुतिको देवता नहीं स्वीकारते । इस दृष्टिसे यज्ञकी तुलनामें व्रत श्रेष्ठ है ।
६.५ व्रतं तपः अर्थात व्रत एक प्रकारका तप है
तपका सामर्थ्य अधिक है । तपसे असाध्य भी साध्य हो जाता है । व्रतसे तपके सर्व लाभ मिलते हैं । इस दृष्टिसे व्रत एक श्रेष्ठ कोटिका तप है, ऐसा जाबालोपनिषद्दर्शनमें बताया गया है ।
६.६ व्रतं देवेशपूजनम अर्थात व्रत एक देवतापूजन है
व्रत करनेसे देवता प्रसन्न होते हैं । देवता प्रसन्न होनेसे मनुष्यका जीवन सफल होता है । जीवनकी सफलता ही व्रतका परम फल है ।
(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ-त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)