सारिणी
- १. मंगलरूप त्रिनयना नारायणी अर्थात मां जगदंबा !
- २. ‘नवरात्रि’ किसे कहते हैं ?
- ३. ‘नवरात्रि’ का इतिहास
- ४. नवरात्रिका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व
- ५. नवरात्रिकी कालावधिमें सूक्ष्म स्तरपर होनेवाली गतिविधियां
- ६. श्री दुर्गादेवीका वचन
- ७. नवरात्रिके नौ दिनोंमें शक्तिकी उपासना करनी चाहिए
नवरात्रि महिषासुर मर्दिनी मां दुर्गाका त्यौहार है। जिनकी स्तुति कुछ इस प्रकार की गई है,
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।।
अर्थ : अर्थात सर्व मंगल वस्तुओंमें मंगलरूप, कल्याणदायिनी, सर्व पुरुषार्थ साध्य करानेवाली, शरणागतोंका रक्षण करनेवाली हे त्रिनयने, गौरी, नारायणी ! आपको मेरा नमस्कार है ।
१. मंगलरूप त्रिनयना नारायणी अर्थात मां जगदंबा !
जिन्हें आदिशक्ति, पराशक्ति, महामाया, काली, त्रिपुरसुंदरी इत्यादि विविध नामोंसे सभी जानते हैं । जहांपर गति नहीं वहां सृष्टिकी प्रक्रियाही थम जाती है । ऐसा होते हुए भी अष्टदिशाओंके अंतर्गत जगत की उत्पत्ति, लालन-पालन एवं संवर्धनके लिए एक प्रकारकी शक्ति कार्यरत रहती है । इसीको आद्याशक्ति कहते हैं । उत्पत्ति-स्थिति-लय यह शक्तिका गुणधर्म ही है । शक्तिका उद्गम स्पंदनोंके रूपमें होता है । उत्पत्ति-स्थिति-लयका चक्र निरंतर चलता ही रहता है ।
श्री दुर्गासप्तशतीके अनुसार श्री दुर्गादेवीके तीन प्रमुख रूप हैं,
१. महासरस्वती, जो ‘गति’तत्त्वका प्रतीक हैं ।
२. महालक्ष्मी, जो ‘दिक’ अर्थात ‘दिशा’तत्त्वका प्रतीक हैं ।
३. महाकाली जो ‘काल’तत्त्वका प्रतीक हैं ।
जगतका पालन करनेवाली जगदोद्धारिणी मां शक्तिकी उपासना हिंदू धर्ममें वर्ष में दो बार नवरात्रिके रूपमें, विशेष रूपसे की जाती है ।
वासंतिक नवरात्रि : यह उत्सव चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे चैत्र शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।
शारदीय नवरात्रि : यह उत्सव आश्विन शुक्ल प्रतिपदासे आश्विन शुक्ल नवमी तक मनाया जाता है ।
नवरात्रि दृश्यपट (Navratri Video)
२. ‘नवरात्रि’ किसे कहते हैं ?
नव अर्थात प्रत्यक्षत: ईश्वरीय कार्य करनेवाला ब्रह्मांडमें विद्यमान आदिशक्तिस्वरूप तत्त्व । स्थूल जगतकी दृष्टिसे रात्रिका अर्थ है, प्रत्यक्ष तेजतत्त्वात्मक प्रकाशका अभाव तथा ब्रह्मांडकी दृष्टिसे रात्रिका अर्थ है, संपूर्ण ब्रह्मांडमें ईश्वरीय तेजका प्रक्षेपण करनेवाले मूल पुरुषतत्त्वका अकार्यरत होनेकी कालावधि । जिस कालावधिमें ब्रह्मांडमें शिवतत्त्वकी मात्रा एवं उसका कार्य घटता है एवं शिवतत्त्वके कार्यकारी स्वरूपकी अर्थात शक्तिकी मात्रा एवं उसका कार्य अधिक होता है, उस कालावधिको ‘नवरात्रि’ कहते हैं । मातृभाव एवं वात्सल्यभावकी अनुभूति देनेवाली, प्रीति एवं व्यापकता, इन गुणोंके सर्वोच्च स्तरके दर्शन करानेवाली जगदोद्धारिणी, जगतका पालन करनेवाली इस शक्तिकी उपासना, व्रत एवं उत्सवके रूपमें की जाती है ।
३. ‘नवरात्रि’ का इतिहास
अ. रामके हाथों रावणका वध हो, इस उद्देश्यसे नारदने रामसे इस व्रतका अनुष्ठान करनेका अनुरोध किया था । इस व्रतको पूर्ण करनेके पश्चात रामने लंकापर आक्रमण कर अंतमें रावणका वध किया ।
आ. देवीने महिषासुर नामक असुरके साथ नौ दिन अर्थात प्रतिपदासे नवमीतक युद्ध कर, नवमीकी रात्रि उसका वध किया । उस समयसे देवीको ‘महिषासुरमर्दिनी’ के नामसे जाना जाता है ।
४. नवरात्रिका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व
अ. ‘जगमें जब-जब तामसी, आसुरी एवं क्रूर लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदारात्मक एवं धर्मनिष्ठ सज्जनोंको छलते हैं, तब देवी धर्मसंस्थापना हेतु पुनः-पुनः अवतार धारण करती हैं । उनके निमित्तसे यह व्रत है ।
आ. नवरात्रिमें देवीतत्त्व अन्य दिनोंकी तुलनामें १००० गुना अधिक कार्यरत होता है । देवीतत्त्वका अत्यधिक लाभ लेनेके लिए नवरात्रिकी कालावधिमें ‘श्री दुर्गादेव्यै नमः ।’ नामजप अधिकाधिक करना चाहिए ।
नवरात्रिके नौ दिनोंमें प्रत्येक दिन बढते क्रमसे आदिशक्तिका नया रूप सप्तपातालसे पृथ्वीपर आनेवाली कष्टदायक तरंगोंका समूल उच्चाटन अर्थात समूल नाश करता है । नवरात्रिके नौ दिनोंमें ब्रह्मांडमें अनिष्ट शक्तियोंद्वारा प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगें एवंआदिशक्तिकी मारक चैतन्यमय तरंगोंमें युद्ध होता है । इस समय ब्रह्मांडका वातावरण तप्त होता है ।श्री दुर्गादेवीके शस्त्रोंके तेजकी ज्वालासमान चमक अतिवेगसे सूक्ष्म अनिष्ट शक्तियोंपर आक्रमण करती है । पूरे वर्ष अर्थात इस नवरात्रिके नौवें दिनसे अगले वर्षकी नवरात्रिके प्रथम दिनतक देवीका निर्गुण तारक तत्त्व कार्यरत रहता है । अनेक परिवारोंमें नवरात्रिका व्रत कुलाचारके रूपमें किया जाता है । आश्विनकी शुक्ल प्रतिपदासे इस व्रतका प्रारंभ होता है ।
५. नवरात्रिकी कालावधिमें सूक्ष्म स्तरपर होनेवाली गतिविधियां
नवरात्रिके नौ दिनोंमें देवीतत्त्व अन्य दिनोंकी तुलनामें एक सहस्र गुना अधिक सक्रिय रहता है । इस कालावधिमें देवीतत्त्वकी अतिसूक्ष्म तरंगें धीरेधीरे क्रियाशील होती हैं और पूरे ब्रह्मांडमें संचारित होती हैं । उस समय ब्रह्मांडमें शक्तिके स्तरपर विद्यमान अनिष्ट शक्तियां नष्ट होती हैं और ब्रह्मांडकी शुद्धि होने लगती है । देवीतत्त्वकी शक्तिका स्तर प्रथम तीन दिनोंमें सगुण-निर्गुण होता है । उसके उपरांत उसमें निर्गुण तत्त्वकी मात्रा बढती है और नवरात्रिके अंतिम दिन इस निर्गुण तत्त्वकी मात्रा सर्वाधिक होती है । निर्गुण स्तरकी शक्तिके साथ सूक्ष्म स्तरपर युद्ध करनेके लिए छठे एवं सातवें पातालकी बलवान आसुरी शक्तियोंको अर्थात मांत्रिकोंको इस युद्ध में प्रत्यक्ष सहभागी होना पडता है । उस समय ये शक्तियां उनके पूरे सामर्थ्यके साथ युद्ध करती हैं ।
६. श्री दुर्गादेवीका वचन
नवरात्रिकी कालावधिमें महाबलशाली दैत्योंका वध कर देवी दुर्गा महाशक्ति बनी । देवताओंने उनकी स्तुति की । उस समय देवीमांने सर्व देवताओं एवं मानवोंको अभयका आशीर्वाद देते हुए वचन दिया कि,
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।।
– मार्कंडेयपुराण ९१.५१
इसका अर्थ है, जब-जब दानवोंद्वारा जगत्को बाधा पहुंचेगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रुओंका नाश करूंगी ।
इस श्लोकके अनुसार जगतमें जब भी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदार एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियोंको अर्थात साधकोंको कष्ट पहुंचाते हैं, तब धर्मसंस्थापना हेतु अवतार धारण कर देवी उन असुरोंका नाश करती हैं ।
७. नवरात्रिके नौ दिनोंमें शक्तिकी उपासना करनी चाहिए
`असुषु रमन्ते इति असुर: ।’ अर्थात् `जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासितामें लीन रहता है, वह असुर कहलाता है ।’ आज प्रत्येक मनुष्यके हृदयमें इस असुरका वास्तव्य है, जिसने मनुष्यकी मूल आंतरिक दैवीवृत्तियोंपर वर्चस्व जमा लिया है । इस असुरकी मायाको पहचानकर, उसके आसुरी बंधनोंसे मुक्त होनेके लिए शक्तिकी उपासना आवश्यक है । इसलिए नवरात्रिके नौ दिनोंमें शक्तिकी उपासना करनी चाहिए । हमारे ऋषिमुनियोंने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमोंसे देवीमां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है । श्री दुर्गासप्तशतिके एक श्लोकमें कहा गया है,
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते ।।
– श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय ११.१२
अर्थात शरण आए दीन एवं आर्त लोगोंका रक्षण करनेमें सदैव तत्पर और सभीकी पीडा दूर करनेवाली हे देवी नारायणी, आपको मेरा नमस्कार है । देवीकी शरणमें जानेसे हम उनकी कृपाके पात्र बनते हैं । इससे हमारी और भविष्यमें समाजकी आसुरी वृत्तिमें परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं । यही कारण है कि, देवीतत्त्वके अधिकतम कार्यरत रहनेकी कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूपसे मनायी जाती है ।
नवरात्रिके नौ दिनोंमें घटस्थापनाके उपरांत पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमीका विशेष महत्त्व है । पंचमीके दिन देवीके नौ रूपोंमें से एक श्री ललिता देवी अर्थात महात्रिपुरसुंदरीका व्रत होता है । शुक्ल अष्टमी एवं नवमी ये महातिथियां हैं । इन तिथियोंपर चंडीहोम करते हैं । नवमीपर चंडीहोमके साथ बलि समर्पण करते हैं ।
संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र‘, ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘देवीपूजनसे संबंधित कृत्योंका शास्त्र‘ एवं अन्य ग्रंथ