सारिणी
- १. घटस्थापना (मिट्टी अथवा तांबेके कलशमें मिट्टी डालकर सप्तधान बोना)
- २. अष्टभुजादेवी एवं नवार्णव यंत्रकी स्थापना
- ३. नवरात्रिमें अखंड दीपप्रज्वलनका शास्त्रीय आधार
- ४. मालाबंधन (देवीकी मूर्तिपर फूलोंकी माला चढाना)
- ५. कुमारिका-पूजन (कंजक पूजन)
- ६. नौ दिन प्रतिदिन देवीको नैवेद्य चढाना
- ७. घटस्थापनाके दिन स्थापित देवताओंका विसर्जन
- ८. नवरात्रि व्रतमें पालन करनेयोग्य आचार
- ९. घटस्थापनाके दिन स्थापित देवताओंका विसर्जन
- १०. देवी मांकी उपासना श्रद्धाभावसहित करना
अनेक परिवारोंमें यह व्रत कुलाचारके स्वरूपमें किया जाता है । आश्विनकी शुक्ल प्रतिपदासे इस व्रतका प्रारंभ होता है ।
१. घटस्थापना (मिट्टी अथवा तांबेके कलशमें मिट्टी डालकर सप्तधान बोना)
नवरात्रिके प्रथम दिन घटस्थापना करते हैं । घटस्थापना करना अर्थात नवरात्रिकी कालावधिमें ब्रह्मांडमें कार्यरत शक्तितत्त्वका घटमें आवाहन कर उसे कार्यरत करना । कार्यरत शक्तितत्त्वके कारण वास्तुमें विद्यमान कष्टदायक तरंगें समूल नष्ट हो जाती हैं । कलशमें जल, पुष्प, दूर्वा, अक्षत, सुपारी एवं सिक्के डालते हैं ।
घटस्थापनाकी विधिमें देवीका षोडशोपचार पूजन किया जाता है । घटस्थापनाकी विधिके साथ कुछ विशेष उपचार भी किए जाते हैं । पूजाविधिके आरंभमें आचमन, प्राणायाम, देशकालकथन करते हैं । तदुपरांत व्रतका संकल्प करते हैं । संकल्पके उपरांत श्री महागणपतिपू्जन करते हैं । इस पूजनमें महागणपतिके प्रतीकस्वरूप नारियल रखते हैं । व्रतविधानमें कोई बाधा न आए एवं पूजास्थलपर देवीतत्त्व अधिकाधिक मात्रामें आकृष्ट हो सकें इसलिए यह पूजन किया जाता है । श्री महागणपतिपूजनके उपरांत आसनशुद्धि करते समय भूमिपर जलसे त्रिकोण बनाते हैं । तदउपरांत उसपर पीढा रखते हैं । आसनशुद्धिके उपरांत शरीरशुद्धिके लिए षडन्यास किया जाता है । तत्पश्चात पूजासामग्रीकी शुद्धि करते हैं ।
घटस्थापना (सप्तधान बोना) दृश्यपट (Navratri Video)
१ अ. वेदीपर मिट्टीमें बोए जानेवाले अनाज
नवरात्रि महोत्सवमें कुलाचारानुसार घटस्थापना एवं मालाबंधन करें । खेतकी मिट्टी लाकर दो पोर चौडा चौकोर स्थान बनाकर, उसमें पांच अथवा सात प्रकारके धान बोए जाते हैं । इसमें (पांच अथवा) सप्तधान्य रखें । जौ, गेहूं, तिल, मूंग, चेना, सांवां, चने सप्तधान्य हैं ।
वेदीपर मिट्टीमें बोए जानेवाले अनाजसे प्राप्त आध्यात्मिक लाभकी मात्रा एक सारिणीद्वारा
धानका प्रकार | लाभ (प्रतिशत) |
---|---|
१. जौ (अलसी) | १० |
२. तिल | १० |
३. चावल | २० |
४. मूंग | १० |
५. कांगनी (चावल) (चने) | २० |
६. माष (उडद) (चेना (राई)) | २० |
७. गेहूं | १० |
कुल | १०० |
कुछ स्थानोंपर जौ की अपेक्षा अलसीका, चावलकी अपेक्षा सांवांका एवं कंगनीकी अपेक्षा चनेका उपयोग भी करते हैं । मिट्टी पृथ्वीतत्त्वका प्रतीक है । मिट्टीमें सप्तधानके रूपमें आप एवं तेजका अंश बोया जाता है ।
१ आ. कलशमें रखी गई वस्तुए
जल, गंध (चंदनका लेप), पुष्प, दूर्वा, अक्षत, सुपारी, पंचपल्लव, पंचरत्न व स्वर्णमुद्रा अथवा सिक्के आदि वस्तुएं मिट्टी अथवा तांबेके कलशमें रखी जाती हैं ।
कलशमें रखी गई वस्तुओंसे प्राप्त लाभकी मात्रा
कलशमें डालने हेतु वस्तु | वस्तुसे संभावित लाभ (%) |
---|---|
१. जल | २० |
२. फूल | २० |
३. दूर्वा | १० |
४. अक्षत | १० |
५. सुपारी | ३० |
६. सिक्के | १० |
कुल | १०० |
इस सारिणीसे कलशमें ये वस्तुएं रखनेका महत्त्व स्पष्ट हुआ होगा । हमारे ऋषिमुनियोंने इन अध्यात्मशास्त्रीय तथ्योंका गहन अध्ययन कर हमें यह गूढ ज्ञान दिया । इससे उनकी महानताका भी बोध होता है । नवरात्रिमें घटस्थापनाके अंतर्गत वेदीपर मिट्टीमें सात प्रकारके अनाज बोते हैं ।
१ इ. सप्तधान एवं कलश (वरुण) स्थापना
सप्तधान एवं कलश (वरुण) स्थापनाके वैदिक मंत्र यदि न आते हों, तो पुराणोक्त मंत्रका उच्चारण किया जा सकता है । यदि यह भी संभव न हो, तो उन वस्तुओंका नाम लेते हुए ‘समर्पयामि’ बोलते हुए नाममंत्रका विनियोग करें । माला इस प्रकार बांधें कि वह कलशमें पहुंच सके ।
१ र्इ. घटस्थापना का शास्त्र एवं महत्त्व
‘मिट्टी अथवा तांबेके कलशमें पृथ्वीतत्त्वरूपी मिट्टीमें सप्तधानके रूपमें आप एवं तेजका अंश बोकर, उस बीजसे प्रक्षेपित एवं बंद घटमें उत्पन्न उष्ण ऊर्जाकी सहायतासे नाद निर्मिति करनेवाली तरंगोंकी ओर, अल्पावधिमें ब्रह्मांडकी तेजतत्त्वात्मक आदिशक्तिरूपी तरंगें आकृष्ट हो पाती हैं । मिट्टीके कलशमें पृथ्वीकी जडत्वदर्शकताके कारण आकृष्ट तरंगोंको जडत्व प्राप्त होता है और उनके दीर्घकालतक उसी स्थानपर स्थित होनेमें सहायता मिलती है । तांबेके कलशके कारण इन तरंगोंका वायुमंडलमें वेगसे ग्रहण एवं प्रक्षेपण होता है और संपूर्ण वास्तु मर्यादित कालके लिए लाभान्वित होती है । घटस्थापनाके कारण शक्तितत्त्वकी तेजरूपी रजोतरंगें ब्रह्मांडमें कार्यमान होती हैं, जिससे पूजककी सूक्ष्म-देहकी शुद्धि होती है ।
२. अष्टभुजादेवी एवं नवार्णव यंत्रकी स्थापना
घरके किसी पवित्र स्थानपर एक वेदी तैयार कर, उसपर सिंहारूढ अष्टभुजा देवीकी और नवार्णव यंत्रकी स्थापना की जाती है । यंत्रके समीप घटस्थापना कर, कलश एवं देवीका यथाविधि पूजन किया जाता है ।
२ अ. आवाहन प्रक्रिया एवं स्थापना
‘नवरात्रि अंतर्गत देवीपूजनमें आवाहन प्रक्रिया एवं स्थापनाका प्रथम स्थान है । शक्तितत्त्वात्मक तरंगोंके विशिष्ट स्थानपर दीर्घकाल कार्यरत रहनेमें, आवाहनांतर्गत संकल्प सहायक होता है ।
अष्टभुजादेवी एवं नवार्णव यंत्रकी स्थापना दृश्यपट (Navratri Video)
श्री दुर्गादेवी आवाहन विधि
कलशपर रखे पूर्णपात्र पर पीला वस्त्र बिछाते हैं । उसपर कुमकुमसे नवार्णव यंत्रकी आकृति बनाते हैं । सर्वप्रथम पूर्णपात्रमें बनाए नवार्णव यंत्रकी आकृतिके मध्यमें देवीकी मूर्ति रखते हैं । मूर्तिकी दार्इं ओर श्री महाकालीके तथा बार्इं ओर श्री महासरस्वतीके प्रतीकस्वरूप एक-एक सुपारी रखते हैं । मूर्तिके सर्व ओर देवीके नौ रूपोंके प्रतीकस्वरूप नौ सुपारियां रखते हैं । अब देवीकी मूर्तिमें श्री महालक्ष्मीका आवाहन करनेके लिए मंत्रोच्चारणके साथ अक्षत अर्पित करते हैं । मूर्तिकी दार्इं ओर रखी सुपारीपर अक्षत अर्पण कर श्री महाकाली एवं बार्इं ओर रखी सुपारीपर श्री महासरस्वतीका आवाहन करते हैं । तत्पश्चात नौ सुपारियोंपर अक्षत अर्पण कर नवदुर्गाके नौ रूपोंका आवाहन करते हैं तथा इनका वंदन करते हैं ।
२ आ. देवीकी अष्टभुजारूपी मूर्तिकी स्थापना
अष्टभुजादेवी, शक्तितत्त्वका मारक रूप है । ‘नवरात्रि’ ज्वलंत तेजतत्त्वरूपी आदिशक्तिके आधारका प्रतीक है । अष्टभुजादेवीके हाथोंमें आयुध, उनकी प्रत्यक्ष मारक कार्यात्मक क्रियाशीलताका प्रतीक हैं । देवीके हाथोंमें ये मारकतत्त्वरूपी आयुध, अष्टदिशाओंके अष्टपालके रूपमें ब्रह्मांडकी रक्षा कर, तेजकी सहायतासे उस विशिष्ट कालावधिमें ब्रह्मांडमें अनिष्ट शक्तिके संचारपर अंकुश लगाते हैं और उनके कार्यकी गतिको खंडित कर पृथ्वीकी रक्षा करते हैं ।
२ इ. नवार्णव यंत्रकी स्थापना
‘नवार्णव यंत्र’ पृथ्वीपर स्थापित देवीके विराजनात्मक आसनका प्रतीक है । नवार्णव यंत्रमें देवीके नौ रूपोंकी मारक तरंगोंका संयोगी रूपमें घनीकरण होता है । इस कारण इस आसनको देवीका निर्गुण अधिष्ठान माना जाता है । इस यंत्रसे ब्रह्मांडके कार्यात्मक वेगमें आवश्यकतानुसार निर्मिति होनेवाला देवीका सगुण रूप, उनके प्रत्यक्ष प्रकृतिदर्शक कार्यकारी तत्त्वका प्रतीक माना जाता है ।
३. नवरात्रिमें अखंड दीपप्रज्वलनका शास्त्रीय आधार
दीप तेजका प्रतीक है एवं नवरात्रिमें वायुमंडल भी शक्तितत्त्वात्मक तेजसे आवेशित होता है । इसलिए सतत प्रज्वलित दीपकी ज्योतिकी ओर तेजतत्त्वात्मक तरंगें आकृष्ट होती हैं । अखंड दीपप्रज्वलनसे इन तरंगोंका वास्तुमें सतत संक्रमण होता है; इसलिए नवरात्रिमें दीप अखंड प्रज्वलित रखना महत्त्वपूर्ण है । नवरात्रिमें कार्यरत तेज- आधारित तरंगोंके वेगमें अखंडत्व एवं कार्यमें निरंतरता होनेके कारण, इन तरंगोंको उतनी ही शक्तिसे ग्रहण करनेवाले अखंड प्रज्वलित दीपरूपी माध्यमका प्रयोग कर वास्तुमें तेजका संवर्धन करते हैं ।
नवरात्रि अथवा अन्य धार्मिक विधियोंमें दीप अखंड प्रज्वलित रखना आवश्य है । अतएव यदि वायु, तेलका अभाव, कालिख जमा होना आदि कारणोंसे दीप बुझ जाए, तो वह कारण दूर कर दीप पुनः प्रज्वलित करें और प्रायश्चितके रूपमें अधिष्ठाता देवताका एक सौ आठ अथवा एक सहस्त्र बार जप करें ।
४. मालाबंधन (देवीकी मूर्तिपर फूलोंकी माला चढाना)
नवरात्रिमें मालाबंधनका विशेष महत्त्व है । अखंड दीपप्रज्वलनके साथ कुलाचारानुसार मालाबंधन करते हैं । कुछ उपासक स्थापित घटपर माला चढाते हैं, तो कुछ देवीकी मूर्तिपर माला चढ़ाते हैं ।
मालाबंधन दृश्यपट (Navratri Video)
४ अ. नवरात्रिमें मालाबंधनके परिणाम
- देवताको चढाई गई इन मालाओंमें गूंथे फूलोंके रंग एवं सुगंधके कणोंकी ओर वायुमंडलमें विद्यमान तेजतत्त्वात्मक शक्तिकी तरंगें आकृष्ट होती हैं ।
- ये तरंगें पूजास्थलपर स्थापित की गई देवीकी मूर्तिमें शीघ्र संक्रमित होती हैं ।
- इन तरंगोंके स्पर्शसे मूर्तिमें देवीतत्त्व अल्पावधिमें जागृत होता है ।
- कुछ समयके उपरांत इस देवीतत्त्वका वास्तुमें प्रक्षेपण आरंभ होता है । इससे वास्तुशुद्धि होती है ।
- साथ ही वास्तुमें आनेवाले व्यक्तियोंको उनके भावानुसार इस वातावरणमें विद्यमान देवीके चैतन्यका लाभ मिलता है ।
५. कुमारिका-पूजन (कंजक पूजन)
प्रतिदिन कुमारिकाओंकी पूजा कर उसे भोजन करवाएं । सुहागिन अर्थात प्रकट शक्ति व कुमारिका अर्थात अप्रकट शक्ति । प्रकट शक्तिका कुछ अपव्यय हो जाता है, अतएव सुहागिनोंकी अपेक्षा कुमारिकाओंमें कुल शक्ति अधिक होती है ।
५ अ. कुमारिका-पूजन कैसे करें ?
१. ‘नवरात्रिके नौ दिन, आगे दिए अनुसार प्रतिदिन कुमारिकाओंको सम्मानपूर्वक घरपर बुलाएं । ‘नवरात्रि’में किसी भी एक दिन ‘नौ’की विषम संख्यामें कुमारिकाओंको बुलानेकी भी प्रथा है ।
२. कुमारिकाओंको बैठनेके लिए आसन दें ।
३. इस भावसे उनकी पाद्यपूजा करें कि, उनमें देवीतत्त्व जाग्रत हो गया है ।
४. देवीको भानेवाला भोजन कुमारिकाओंके लिए केलेके पत्तेपर परोसें । (देवीको खीर-पूरी भाती है ।)
५. कुमारिकाओंको नए वस्त्र देकर उन्हें आदिशक्ति का रूप मानकर भावपूर्वक नमस्कार करें ।’
कुमारिका-पूजन दृश्यपट (Navratri Video)
५ आ. कुमारिका-पूजनका शास्त्रीय आधार एवं महत्त्व
‘कुमारिका, अप्रकट शक्तितत्त्वका प्रतीक है । इसलिए पूजनसे उसमें विद्यमान शक्तितत्त्व जाग्रत होता है और उसकी ओर ब्रह्मांडकी तेजतत्त्वात्मक तरंगें आकृष्ट होनेमें सहायता मिलती है । इसके उपरांत उसके द्वारा यह तत्त्व सहजतासे वायुमंडलमें प्रक्षेपित होता है, जिससे प्रत्यक्ष चेतनाजन्य माध्यमसे शक्ति-तत्त्वात्मक तरंगोंका लाभ पानेमें सहायता मिलती है । नौ दिन कार्यरत देवीतत्त्वकी तरंगोंका, अपनी देहमें संवर्धन होने हेतु, भक्तिभावसे कुमारिका-पूजन कर उसे संतुष्ट किया जाता है । कुमारिकामें संस्कारोंके प्रकटीकरण भी न्यून होनेके कारण, उससे देवीतत्त्वका अधिकाधिक सगुण लाभ पाना संभव होता है । इसलिए नवरात्रिमें कुमारिका-पूजनको महत्त्व है ।
६. नौ दिन प्रतिदिन देवीको नैवेद्य चढाना
नवरात्रिमें देवीके नैवेद्यके लिए सदाकी भांति ही सात्त्विक पदार्थोंका भोजन बनाएं । नित्यके व्यंजनोंके अतिरिक्त विशेषतः हलवा, चना या खीर-पूरीका समावेश करें । महाराष्ट्रमें पूरण (चनेकी दाल पकाकर, रगडकर, गुड मिलाकर बनाया गया एक पदार्थ) एवं दालका समावेश करते हैं । इन दो व्यंजनोंकी सहायतासे, चढाए गए नैवेद्य के कारण, उससे प्रक्षेपित कार्यरत रजोगुणके वेगकी ओर ब्रह्मांडकी शक्तिरूपी तेज-तरंगें अल्पावधिमें आकृष्ट होती हैं । इसलिए उस नैवेद्यको प्रसादके रूपमें ग्रहण करनेवालेको उसमें विद्यमान शक्तिरूपी तेज-तरंगोंका लाभ मिलता है और उसकी स्थूल एवं सूक्ष्म देहोंकी शुद्धि होती है ।’
६ अ. देवीमांके लिए नैवेद्य बनाना
नवरात्रिमें प्रत्येक दिन उपासक विविध व्यंजन बनाकर देवीमांको नैवेद्य अर्पित करते हैं । बंगाल प्रांतमें प्रसादके रूपमें चावल एवं मूंगकी दालकी खिचडीका विशेष महत्त्व है । मीठे व्यंजन भी बनाए जाते हैं । इनमें विभिन्न प्रकारका सीरा, खीर-पूरी, काले चने इत्यादिका समावेश होता है । महाराष्ट्रमें चनेकी दाल उबालकर उसमें गुड मिलाया जाता है । इसे ‘पूरण’ कहते हैं । इस पूरणको भरकर ‘पुरणपोळी’ अर्थात पूरणकी मीठी रोटी विशेष रूपसे बनाई जाती है । चावलके साथ खानेके लिए अरहर अर्थात तुवरकी दाल भी बनाते हैं ।
६ आ. नवरात्रिमें देवीमांको अर्पित नैवेद्यमें ‘पुरणपोळी’ अर्थात पूरणकी मीठी रोटी एवं अरहरकी दालके समावेशका कारण
चनेकी दाल एवं गुडका मिश्रण भरकर बनाई मीठी रोटी अर्थात ‘पुरणपोळी’ एवं अरहरकी दाल, इन दो व्यंजनोंमें विद्यमान रजोगुणमें ब्रह्मांडमें विद्यमान शक्तिरूपी तेज-तरंगें अल्पावधिमें आकृष्ट करनेकी क्षमता होती है । इससे ये व्यंजन देवीतत्त्वसे संचारित होते हैं । इस नैवेद्यको प्रसादके रूपमें ग्रहण करनेसे व्यक्तिको शक्तिरूपी तेज-तरंगोंका लाभ मिलता है एवं उसकी स्थूल एवं सूक्ष्म देहोंकी शुद्धि होती है।
यद्यपि भक्तका उपवास हो, फिर भी देवताको सदाकी भांति अन्नका नैवेद्य दिखाना पडता है ।
७. घटस्थापनाके दिन स्थापित देवताओंका विसर्जन
१. नवरात्रिकी संख्यापर बल देकर कुछ लोग अंतिम दिन भी नवरात्रि रखते हैं; परंतु शास्त्रानुसार अंतिम दिन नवरात्रि समापन आवश्यक है । इस दिन समाराधना (भोजनप्रसाद) उपरांत, समय हो तो उसी दिन सर्व देवताओंका अभिषेक एवं षोडशोपचार पूजा करें । समय न हो, तो अगले दिन सर्व देवताओंका पूजाभिषेक करें ।
महानवमीके दिन घटस्थापित देवताओंका विसर्जन किया जाता है ।
-
- श्री देवीको गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, कर्पूरके उपचार अर्पित किए जाते हैं ।
- तदुपरांत पूजक प्रार्थना करता है, ‘मैं यह कार्य करनेमें असमर्थ हूं । हे श्री महेश्वरी आपकी कृपासे ही यह संपन्न हुआ है ।’
- तदुपरांत ‘पुनरागमनाय च’ ऐसा बोलते हुए अक्षत अर्पित किया जाता है ।
- कलशको थोडा हिलाया जाता है । फिर कलशका पवित्र जल पूजकपर छिडका जाता है ।
- श्री देवीको पुन: पधारनेका आवाहन कर, स्वस्थान विदा होनेके लिए प्रार्थना की जाती है ।
- उसके उपरांत वेदीपर उगे अंकुरोंको बहते पानीमें विसर्जित अर्थात प्रवाहित किया जाता है ।
घटस्थापनाके दिन स्थापित देवताओंका विसर्जन दृश्यपट (Navratri Video)
२. घटस्थापनाके दिन वेदीपर बोए अनाजसे नवमीतक अंकुर निकलते हैं । इन पौधोंको ‘शाकंभरीदेवी’का स्वरूप मानकर स्त्रियां अपने सिरपर धारण कर चलती हैं और फिर उसे विसर्जित करती हैं । कुछ स्थानोंपर नवमीके दिन विसर्जनसे पूर्व ये अंकुर देवीको अर्पित करते हैं । कुलपरंपरानुसार कुछ लोगोंके घरोंमें नवरात्रिकी समाप्ति विजयादशमी अर्थात दशहरेको करते हैं । कुछ लोग अनाजके अंकुर शमीपूजनके समय शमी वृक्षको अर्पित करते हैं एवं लौटते समय इनमेंसे कुछ अंकुर केशमें धारण करते हैं ।
३. देवताओंका ‘उद्वार्जन’ अर्थात देवताओंकी मूर्तियां स्वच्छ करना : सामान्यतः नित्य पूजनमें रखी देवताओंकी धातूकी मूर्तियोंका नवरात्रिकी स्थापनासे पूर्व एवं विसर्जनके उपरांत ‘उद्वार्जन’ करनेकी रीति है । ‘उद्वार्जन’ करना अर्थात देवताओंकी मूर्तियोंको स्वच्छ कर उन्हें चमकाना तदुपरांत मूर्तियोंको अभिषेक एवं पूजन करना । विसर्जनके दिन संभव न हो, तो दूसरे दिन ‘उद्वार्जन’ अवश्य करना चाहिए । ‘उद्वार्जन’ करनेके लिए नींबू, भस्म, अगरबत्तीकी विभूति इत्यादिका प्रयोग करें । रंगोली अथवा पात्र स्वच्छ करनेके लिए उपयोगमें लाए जानेवाले चूर्णका उपयोग कभी न करें ।
४. अंततः स्थापित कलश व देवीकी मूर्तिका उत्थापन (विसर्जन) किया जाता है ।
५. देवीसे आगे दिए अनुसार प्रार्थना करते हैं – ‘हे देवी, हम शक्तिहीन हैं; अमर्यादित भोग भोगकर मायासक्त हो चुके हैं । हे माता, आप हमें बल दें, आपकी शक्तिसे हम आसुरी वृत्तियोंका नाश कर पाएंगे ।’
बोए गए धानसे अंकुरित पौधे मूर्तिके विसर्जनके समय देवीको चढाना (इस धानसे अंकुरित पौधोंको स्त्रियां ‘श्री शांकभरीदेवी’
मानकर, अपने सिरपर लेकर विसर्जनके लिए जाती हैं ।)
‘बोए गए धानसे अंकुरित पौधोंको देवीको चढानेकी क्रिया, धानमें विद्यमान देवीकी क्रियात्मक तरंगोंको स्थिर मूर्तिभावमें विलीन करनेका द्योतक है । विसर्जनात्मक प्रक्रिया विलीनत्वका प्रतीक है, इसलिए धानमें कार्यरत सगुणको विधिके अंतमें सुप्तावस्थामें, अर्थात स्थिर मूर्तितत्त्वमें घनीभूत कर, तदुपरांत पानीमें मूर्तिका विसर्जन किया जाता है । इसके द्वारा बहते पानीमें पैâली सात्त्विक तरंगोंके प्रक्षेपणसे समष्टि-कल्याण हेतु संपूर्ण वायुमंडलको प्रभावित करना अर्थात व्यष्टि क्रियासे समष्टि साधन साध्य करना संभव होता है । (श्री गणेश विसर्जनसे भी इसी प्रकारका समष्टि कल्याणकारकताका उदात्त भाव साध्य हुआ दिखाई देता है ।)’
कलशमें भरे जलका विविध पद्धतिसे उपयोग करनेका शास्त्रीय कारण
नवरात्रिमें स्थापित कलशमें भरा जल शक्तितत्त्वसे संचारित होनेके कारण इसे वास्तुमें छिडकनेसे वास्तुमें विद्यमान रज-तम कणोंका विघटन होता है । इससे वास्तुशुद्धि होती है । उस जलके चैतन्यद्वारा संबंधित वास्तुमें रहनेवाले व्यक्तियोंकी देहकी भी शुद्धि होती है । देवीपूजनके कारण इस जलमें आकृष्ट तेजतत्त्वकी शक्तिको सामान्य जन सह नहीं पाते । इसलिए इस जलको पीनेसे अस्वस्थता अनुभव होना, मुंहमें छाले आना, पेटमें दाह होना, सिरमें वेदना होना जैसे कष्ट हो सकते हैं । परंतु जिनका आध्यात्मिक स्तर ५० प्रतिशतसे अधिक है, वे यह जल प्राशन कर उसके तेजतत्त्वका उपयोग देहशुद्धिके लिए कर सकते हैं । बंगाल जैसे प्रदेशोंमें जिस स्थानसे कलशमें भरनेके लिए जल लाया जाता है, उसी जलस्रोतमें कलशमें भरे जलको दशहरेके दिन विसर्जित करते हैं एवं देवताओंकी मूर्तियां भी उसी जलस्रोतमें विसर्जित करते हैं ।
८. नवरात्रि व्रतमें पालन करनेयोग्य आचार
नवरात्रि व्रतका अधिकाधिक लाभ प्राप्त होनेके लिए शास्त्रमें बताए आचारोंका पालन करना आवश्यक होता है । परंतु देश-काल-परिस्थितिनुसार सभी आचारोंका पालन करना संभव नहीं होता । इसीलिए जो संभव हो, उन आचारोंका पालन अवश्य करें । जैसे
- १. जूते-चप्पलोंका उपयोग न करना
- २. अनावश्यक न बोलना
- ३. धूम्रपान न करना
- ४. पलंग एवं बिस्तरपर न सोना
- ५. दिनके समय न सोना
- ६. दाढी और मूछके तथा सिरके बाल न काटना
- ७. कडक ब्रह्मचर्यका पालन करना
- ८. गांवकी सीमाको न लांघना इत्यादि
नवरात्रिमें मांसाहार सेवन और मद्यपान भी नही करना चाहिए । साथही रज-तम गुण बढानेवाला आचरण, जैसे चित्रपट देखना, चित्रपट संगीत सुनना इत्यादि त्यागना चाहिए ।
नवरात्रि व्रतमें पालन करनेयोग्य आचार दृश्यपट (Navratri Video)
९. नवरात्रिकी कालावधिमें उपवास करनेका महत्त्व
नवरात्रिके नौ दिनोंमें अधिकांश उपासक उपवास करते हैं । नौ दिन उपवास करना संभव न हो, तो प्रथम दिन एवं अष्टमीके दिन उपवास अवश्य करते हैं । उपवास करनेसे व्यक्तिके देहमें रज-तमकी मात्रा घटती है और देहकी सात्त्विकतामें वृद्धि होती है । ऐसा सात्त्विक देह वातावरणमें कार्यरत शक्तितत्त्वको अधिक मात्रामें ठाहण करनेके लिए सक्षम बनता है ।
देवी उपासनाके अन्य अंगोंके साथ नवरात्रीकी कालावधिमें `श्री दुर्गादेव्यै नम: ।’ यह नामजप अधिकाधिक करनेसे देवीतत्त्वका लाभ मिलनेमें सहायता होती है ।
१०. देवी मांकी उपासना श्रद्धाभावसहित करना
नवरात्रिमें किए जानेवाले धार्मिक कृत्य पूरे श्रद्धाभावसहित करनेसे पूजक एवं परिवारके सभी सदस्योंको शक्तितत्त्वका लाभ होता है । नवरात्रिकी कालावधिमें शक्तितत्त्वसे संचारित वास्तुद्वारा वर्षभर इन तरंगोंका लाभ मिलता रहता है। परंतु इसके लिए देवी मांकी उपासना केवल नवरात्रिमें ही नहीं; अपितु पूर्ण वर्ष शास्त्र समझकर योग्य पद्धतिसे करना आवश्यक है ।
संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र‘, ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘देवीपूजनसे संबंधित कृत्योंका शास्त्र‘