सारिणी
१. भगवान की शक्तियां
भगवान की अनेक शक्तियां उनसे तादात्म्य संबंध रखती हैं । उनमेंसे आगे दी गई तीन शक्तियां प्रधान हैं ।
१. अंतरंग : इस शक्ति को नारायण की स्वरूपशक्ति कहा गया है ।
२. तटस्थ : जो अत्यंत स्वरूपात्मक भी नहीं एवं सर्वथा विजातीय भी नहीं, ऐसी शक्ति को तटस्थ कहते हैं । विश्व के अगणित जीव भगवान की तटस्थ शक्ति हैं । (मूल माया को स्थूलरूप से तटस्थ शक्ति कह सकते हैं ।)
३. बहिरंग : महत्तत्त्व से पृथ्वीतक एवं समस्त भौतिक वस्तुओं सहित जो संसाररूप प्रकृति है, उसे बहिरंग शक्ति कहते हैं । (बहिरंग शक्ति अर्थात सप्तलोकांतर्गत पंचभौतिक वस्तुएं ।)
२. कार्यानुसार प्रकार
२ अ. उत्पत्ति से संबंधित शक्तियां
शक्तिपूजकों के अनुष्ठान शिव एवं शक्ति; अर्थात शक्त्या सहितः शंभुः । अर्थात शक्तिसहित शिव एवं जगतः पितरौ अर्थात जगत्के माता-पिता ऐसा है । शिव एवं शक्ति के संयोग से ही विश्व की निर्मिति हुई है । देवनागरी वर्णमाला का प्रथम अक्षर ‘अ’ और अंतिम अक्षर ‘ह’ शिव-शक्ति के द्योतक हैं ।
उत्पत्ति से संबंधित शक्तियों के नाम
श्री सरस्वती : सैद्धांतिक दृष्टि से, श्री सरस्वती का संबंध त्पत्ति के देवता ब्रह्मा से है; परंतु शरीरशास्त्र की दृष्टि से अधोलिखित देवता, उत्पत्ति से धिक संबंध रखते हैं । श्री सरस्वतीदेवी संबंधी जानकारी सूत्र क्रमांक ‘५ ई २’ में दी है ।
भूदेवी, भूमिदेवी, भूमिका, भैरवी, सांतेरी, लज्जागौरी, लंजिका, महाकोटेश्वरी, योगांबिका, नितंबिनी, कोटरी, छिन्नमस्ता इत्यादि सर्व नाम रेणुका के धड से संबंधित हैं । (रेणुका का सिर अर्थात यल्लमा अर्थात जगदंबा )
मूर्तिविज्ञान
भूदेवी इत्यादि देवियों का मस्तक नहीं होता, केवल दो स्तन और योनि होती है । कहीं-कहीं मस्तक के स्थान पर कमल अथवा चक्र होता है । योनि में उठान आए, इस हेतु पांव मुडे हुए एवं घुटने पेट से सटे होते हैं । स्तन पुष्टिसूचक एवं योनि सृष्टिसूचक हैं । योनि के स्थान पर कभी-कभी कमल भी अंकित करते हैं, क्योंकि कमल सृजनता का प्रतीक है । (वृषभ पौरुष का, पितृत्व का प्रतीक है ।)
इन देवियों की उपासना का उद्देश्य संतानप्राप्ति है ।
२ आ. स्थिति से संबंधित शक्तियां
नाम : श्री, लक्ष्मी, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, कामाक्षी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता, आनंदभैरवी, कनकावती, शाकंभरी, अन्नपूर्णा इत्यादि ।
कार्य : सृष्टि का पालनपोषण तथा विलास अर्थात भाग्य, समृद्धि, संपत्ति, आयु, आरोग्य, पुत्र-पौत्र, धन-धान्य विपुलता, दास-दासी इत्यादि ।
२ इ. लय से संबंधित शक्तियां
भद्रकाली, काली, कालिका, महामारी, कराली, कापाली, चंडिका, रणचंडी, चामुंडा, चंडी, निर्त्रति इत्यादि ।
२ ई. उत्पत्ति, स्थिति एवं लय से संबंधित शक्ति
नवदुर्गा : उत्पत्ति, स्थिति एवं लय से संबंधित शक्ति है, नवदुर्गा । सृष्टिमें कुल नौ मितियां हैं । (मिति अर्थात सीमा, विभाग) प्रत्येक मिति पर एक-एक दुर्गादेवी का अधिपत्य है । ऐसी कुल नौ दुर्गा हैं । इसलिए उन्हें नवदुर्गा कहते
हैं ।
३. नदीरूप शक्ति
३ अ. गंगा
गंगा नदी का उद्गम हिमालय पर्वत की गंगोत्री से होता है और अनेक नदियों सहित वह बंगाल के उपसागर से जा मिलती है । इसकी कुल लंबाई २५१० कि.मी. है ।
व्युत्पत्ति एवं अर्थ
- गमयति भगवत्पदमिति गङ्गा अर्थात गंगा वह है, जो (नहानेवाले जीव को) भगवत्पद तक पहुंचाती है ।
- गम्यते प्राप्यते मोक्षार्थिभिरिति गङ्गा (शब्दकल्पद्रुम) अर्थात गंगा वह है, जिसके पास मोक्षार्थी अर्थात मुमुक्षु जाते हैं ।
कुछ अन्य नाम
अ. विष्णुुपदी : ब्रह्मदेव ने अपने कमंडलु के जल से श्रीविष्णुु के चरण पखारे । इस जलसे गंगा का उद्गम हुआ; इसलिए इसे विष्णुुपदी का नाम मिला । गंगा की उत्पत्ति के संबंध में वैष्णव संप्रदाय की ऐसी संकल्पना है ।
आ. त्रिपथगा : स्वर्ग, मृत्यु और पाताल के तीन लोकों से उसके तीन प्रवाह बहते हैं, इसलिए उसे त्रिपथगा कहते
हैं ।
इ. भागीरथी : भगीरथ की तपश्चर्या से यह नदी पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई; इसलिए इसे भागीरथी कहते हैं । गंगास्नान का उद्घोष है हर गङ्गे भागीरथि । शैव संप्रदाय के अनुसार भगीरथ ने गंगोत्री में तपश्चर्या कर शिव को प्रसन्न किया । स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने पर गंगा की तेज गति से धरती फट न जाए, इस हेतु शिव ने उसे अपने मस्तक पर धारण किया । फिर, वह वहां से धीरे-धीरे पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई ।
ई. जाह्नवी : हिमालय से निकलते हुए गंगा जह्नु ऋषि की यज्ञभूमि को बहा ले गई । जह्नु ऋषि इस बात से क्रोधित होकर गंगा के संपूर्ण प्रवाह को पी गए । भगीरथ ने जब जह्नु ऋषि से प्रार्थना की, तो उन्होंने गंगा के प्रवाह को अपने कान से बाहर आने दिया । तबसे इसे जाह्नवी (अर्थात जह्नु ऋषि की कन्या) नाम मिला । (वायुपुराण)
विशेषताएं एवं महत्त्व
- पवित्र : भारत की सात पवित्र नदियोंमें से यह प्रथम अर्थात पवित्रतम नदी है । जिसे सूक्ष्म का ज्ञान है वे इस बात को अनुभव कर सकते हैं कि दुनिया के किसी भी जल की अपेक्षा गंगाजल अधिक पवित्र है । हम भी घर पर यह प्रयोग कर सकते हैं । अस्वच्छ एवं अपवित्र, ये दो शब्द समानार्थी नहीं हैं । स्वच्छ-अस्वच्छ, ये शब्द शरीर अथवा भौतिक शास्त्र के संदर्भमें हैं, तो पवित्र-अपवित्र शब्द अध्यात्मशास्त्र के संदर्भ में हैं; इसलिए कोई वस्तु अस्वच्छ होते हुए भी पवित्र हो सकती है । आजकल गंगा नदी का पानी इसी प्रकार का है । इसलिए उस पानी से बीमारी हो सकती है, फिर भी उस पानी से सत्त्वगुण का लाभ होता है । अर्थात स्वच्छ एवं पवित्र पानी ही सर्वोत्तम है ।
- पतितपावन : पापक्षालन के लिए गंगाजल का उपयोग विविध प्रकार से किया जाता है ।गङ्गा गङ्गेतियो ब्रूयात् योजनानां शतैरपि ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति ॥अर्थ : सैकडों योजन (अंतर मापन का परिमाण) दूरसे भी यदि गंगा … गंगा … के पवित्र नाम का उच्चारण करें, तो नाम लेनेवाला सर्व पापों से मुक्त हो जाता है एवं अंत में विष्णुुलोक को प्राप्त होता है ।मृत्यु के उपरांत गति प्राप्त होने हेतु, मृत व्यक्ति के मुखमें गंगाजल डालते हैं । ऐसा कर पाना संभव हो, इसलिए सर्व घरों में गंगाजल रखते हैं । (वह न हो तो तुलसीजल पिलाते हैं ।)
- जंतुनाशकक्षमता : सुप्रसिद्ध अमरीकी विनोदी विचारक एवं अभिनेता कहानिकार मार्क ट्वेन ने अपनी पुस्तक फॉलोइंग दि इक्वेटरमें गंगाजल के शास्त्रीय मूल्यांकन के विषय पर लिखा है – जब हम वर्ष १८९६ में आगरा पहुंचे, तो एक चमत्कारिक एवं अविस्मरणीय शास्त्रीय खोज का पता लगा । जिस दूषित गंगाजल का उपहास होता है, वह किसी अनूठे प्रकार से विश्वका सर्वाधिक प्रभावी जंतुनाशक एवं शुद्धिकारक है । आगरा नगर में नियुक्त हेन्किन नामक शास्त्रज्ञ ने वाराणसी जाकर गंगाजल की जांच करने का निर्णय लिया । जहां नालियां घरों से निकलकर घाटों पर गंगा में जा मिलती हैं, वहां के एक क्यूबिक सेंटीमीटरमें लाखों जंतु दिखाई दिए; परंतु छः घंटे उपरांत वे नष्ट हो गए । फिर एक बहते शव पर लगे जल का परीक्षण करने पर कॉलरा के लाखों विषाणु पाए गए; परंतु छः घंटों में सभी निर्जीव हो गए । इस पानी में पुनः-पुनः कॉलरा के असंख्य विषाणु डालने पर भी, छः घंटों में वे सब निर्जीव पाए गए । परंतु कुएं से बारंबार स्वच्छ जंतुविरहित पानी निकालकर, उसमें कॉलरा के कुछ जंतु डालने पर वे प्रत्येक बार छः घंटों में तीव्र गति से बढ जाते थे । इस विलक्षण तथ्य को आधुनिक विज्ञानकोष में दर्ज किया गया है । लंबे समय से आश्चर्य बना रहा कि वाराणसी में पुनः-पुनः कॉलरा होने पर भी यह रोग वाराणसी की सीमा का उल्लंघन नहीं करता । इसका कारण समझ से परे था ।अतिप्राचीन कालसे हिन्दुओं की ऐसी श्रद्धा रही है कि गंगाजल अत्यंत पवित्र है । वह किसी भी प्रकार के संपर्कसे अपवित्र नहीं होता । इसके संसर्ग में जो कुछ आता है, वह शुद्ध हो जाता है । आजतक उन्हें इस बात का विश्वास है । हिन्दुओं का हमने अनेक पीढियों तक उपहास किया; परंतु हमें अब अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा । इस पानी का रहस्य उन्हें इतने प्राचीन काल में कैसे ज्ञात हुआ ? उस काल में क्या उनके पास सूक्ष्मजंतु-शास्त्रज्ञ थे ? यह नहीं पता; परंतु हम इतना अवश्य जानते हैं कि जिस प्राचीन काल में हम बर्बरता से बाहर निकल ही रहे थे, उस काल से भी हिन्दुओं की अतिप्राचीन उच्च संस्कृति थी । प्रयोगों से प्रमाणित हुआ है कि हैजा जैसे प्लेग, मलेरिया आदि के विषाणु भी गंगाजल में जीवित नहीं रह सकते । गंगाजल के नित्य सेवन से शरीर की रोगप्रतिकारक क्षमता बढती है तथा अजीर्ण, जीर्ण ज्वर, अतिसार, आंव, दमा इत्यादि रोग भी धीरे-धीरे नष्ट होते हैं । घाव भरने का सामर्थ्य भी गंगाजल में है । आयुर्वेद की दृष्टि से गंगाजल में अतुलनीय गुण हैं ।
३ आ. नर्मदा
यह नदी मध्यप्रदेश के विंध्याचल पर्वतश्रेणी के मेकल नामक पर्वत से निकलकर गुजरात में भृगुकच्छ के पास (भरुच) सिंधुसागर में (अरब सागर में) मिल जाती है । इसकी कुल लंबाई १,२८८ कि.मी. है ।
विशेषताएं एवं महत्त्व
- इसका संबंध तेजतत्त्व से है; इसलिए इसके तट पर हठयोगियों ने तपश्चर्या की है और आज भी करते हैं । गंगा तट पर भक्तियोगानुसार साधना करनेवाले अधिक दिखाई देते हैं ।
- इसे पृथ्वी की सुषुम्नानाडी मानते हैं; इसीलिए अनेक विधियों के समय ऐसा उल्लेख किया जाता है कि धार्मिक विधि नर्मदा के उत्तर अथवा दक्षिण दिशा में की जा रही है । नर्मदा की उत्तर अथवा दक्षिण दिशा अर्थात कुंडलिनीयोग अनुसार पिंगला अथवा इडा नाडी । नर्मदा के उत्तर में कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से, तो दक्षिण में शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से माह आरंभ होता है ।
- विश्व से पृथ्वी पर आनेवाली १०८ तरंगें पृथ्वी के १०८ स्थानों पर आती हैं । ये १०८ स्थान तीर्थक्षेत्र माने जाते हैं । इसी प्रकार कुल १०८ तरंगों में से कुछ तरंगें नर्मदा के माध्यम से पृथ्वी पर आती हैं और वहीं से विश्व में फैल जाती हैं; इसलिए नर्मदा को पृथ्वी की नाल भी कहा जाता है । (२७ नक्षत्रों से नकलनेवाली २७ तरंगें अजानलोक में आने पर, प्रत्येक का चार चरण में विभाजन होता है और २७ ४ = १०८ तरंगें पृथ्वी पर आती हैं । ये तरंगें सात्त्विक होती हैं ।
- नर्मदा का संबंध वैराग्य से है ।
उपासना
देवता की परिक्रमा करते हैं । देवता को दाईं ओर रख उनके चारों ओर घूमना ही परिक्रमा करना है । विश्व में यह एकमात्र नदी है, जिसकी संपूर्ण परिक्रमा उसके उद्गमस्थान से लेकर समुद्रमिलन तक उसे बिना पार किए पुनः उद्गमस्थान तक की जाती है ।
जंगल तथा निर्जन भाग से परिक्रमा करनेवाले उपासकों को यह खाली पेट सोने नहीं देती । उनके खाने-पीने की व्यवस्था करती है । ऐसी अनुभूति आज भी अनेक साधकों को होती है ।
कुछ अन्य पवित्र नदियां : यमुना, गोदावरी, सरस्वती, सिंधु, कावेरी
संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, शक्ति (भाग १)