सारिणी
१. व्युत्पत्ति एवं अर्थ
‘लक्ष्म’ अर्थात चिह्न । इससे ‘लक्ष्मी’ शब्द बना है । यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि लक्ष्मीवाचक चिह्न कौनसा है, कौनसे चिन्हों से लक्ष्मी का बोध होता है । लक्ष्मी का ही पर्यायवाची शब्द ‘श्री’ है इसका अर्थ है, शोभा, कांति । ‘श्री’ अक्षर स्वस्तिक से बना है । इससे बोध होता है कि लक्ष्मी का लक्ष्म अथवा चिह्न स्वस्तिक ही होगा । श्री एवं लक्ष्मी, दोनों शब्द ऋग्वेद में पाए जाते हैं । ऋग्वेद का एक परिशिष्ट ‘श्रीसूक्त’ के नाम से ही प्रसिद्ध है । ‘श्री’ भाग्यदेवता हैं । वेदवाङ्मय में ‘श्री’ का अथवा ‘लक्ष्मी’ का व्यापक रूप ऐसे बताया गया है, ‘समृद्धि, संपत्ति, आरोग्यसहित दीर्घायु, पुत्रपौत्रादि परिवार, धन-धान्यविपुलता, सुसज्ज व तत्पर सेवकवर्ग आदि सर्व सुख-साधनों से धनवान बनानेवाली देवता ।’
‘सूर्योदय के साथ, उसके करस्पर्श से कमल खिलता है, इस घटना को गूढ अर्थ प्राप्त हुआ । सूर्य द्युलोक का प्रतिनिधि परमपुरुष है एवं पृथ्वी उसकी प्रिया । द्यावा (सूर्य) एवं पृथ्वी के मधुर मिलन से ही संपूर्ण विश्व का गर्भ आकारित होता है’, यही इसका गूढार्थ है । जिसमें इस प्रकार की सृजनक्षमता है, उस भूमि को अर्थात श्रीको ऋषि-मुनियों ने कमल से जोडा है ।’
२. विशेषताएं
२ अ. चंचलता
‘लक्ष्मी में दोष निकालने की बुद्धि से पार्वती ने उसे ‘लोला अर्थात चंचला’ कहा; क्योंकि लक्ष्मी का दोष है चंचलता, अस्थिरता ! अर्थात यहां क्ष्मी का अभिप्रेत अर्थ है धनसंपत्ति, ऐश्वर्य, वैभव । कुल की अर्थ विपुलता पीढी-दर-पीढी बनी नहीं रहती; संपत्ति आती-जाती है । इसके कारण हैं, घराने के पुरुषों की व्यसनाधीनता, ऐश्वर्य का मद, धन का अपव्यय, मूढता । ऐसे में उस घर से लक्ष्मी नकल जाए, तो उसका क्या दोष ? मानवी दोषों का आरोप लक्ष्मी पर लगाया जाता है ।
२ आ. मनानुकूल
लक्ष्मी श्रीविष्णुु के मन के अनुसार आचरण करती हैं ।
२ इ. बल और उन्माद
लक्ष्मी के दो पुत्र हैं – बल और उन्माद । ऐसा अनुभव है कि जिसके घर में लक्ष्मी आती है, वह बलवान बनता है तथा कई बार उन्मत्त भी हो जाता है । इसलिए संभवतः लक्ष्मी के ये पुत्र भावात्मक हो सकते हैं ।
३. कार्य
जब-जब श्रीविष्णुु अवतार लेते हैं, तब-तब श्री लक्ष्मी उनकी पत्नी बनकर अवतार लेती हैं । उदा. रामावतार में सीता, कृष्णावतार में रुक्मिणी आदि ।
३ अ. श्रीराम से संबंधित शक्ति – सीता
वाल्मीकिरामायण में सीता राम की अर्धांगिनी हैं । वह पतिपरायण हैं । उनका रूप अत्यंत सौम्य एवं सात्त्विक है । अध्यात्मरामायण में भी सीता का यही रूप दर्शाया गया है; परंतु अद्भुतरामायण में उनके उग्र शक्तिरूप को आविष्कृत किया गया है । यह रामायण इ.स. की चौदहवीं शताब्दी के समय की है । उस समय भारत में सर्वत्र शक्ति संप्रदाय प्रभावी बन या था । सीता आदिशक्ति हैं, यह संकल्पना दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दि में ही रूढ हो गई थी । अद्भुतरामायण ने उसके भी आगे की कल्पना की है । राम के हाथों सहस्रमुखी रावण का वध नहीं हो पा रहा था, तब सीता ने हठपूर्वक तत्क्षण अत्यंत भीषण रूप धारण किया । वह दीर्घजंघा ब नी । तदुपरांत उन्होंने अपने गले में मुंड (रुंड) मालाएं धारण कीं । वह चंडशेषा और घंटापाशधारिणी बनी । तत्पश्चात उन्होंने एक ही क्षण में रावण के सहस्र मस्तकों को काटकर उसका वध कर दिया ।
३ आ. श्रीकृष्ण से संबंधित शक्ति
रुक्मिणी एवं राधा श्रीकृष्ण से संबंधित शक्तियां हैं ।
३ इ. अन्य संबंधित शक्तियां
कीर्तिर्मतिर्द्युतिः पुष्टिः समृद्धिस्तुष्टिरेव च ।
श्रुतिर्बलं स्मृतिर्मेधा श्रद्धारोग्यजयादिकाः ॥
देवताशक्तयस्सर्वास्तत्तद्देवांशगा नृप ।
महालक्ष्मीमुपासन्ते तस्याः किङ्कर्य एव ताः ॥ – भार्गवसंहिता
अर्थ : कीर्ति, मति, द्युति (प्रकाश), पुष्टि, समृद्धि, तृष्टि, श्रुति, स्मृति, बल, मेधा, श्रद्धा, आरोग्य, जय इत्यादि शक्तियां उनसे संबंधित देवताओं के अंशों से उत्पन्न हुईं हैं । ये सर्व शक्तियां जीवन के विकास के लिए आवश्यक हैं । ये शक्तियां दासी समान श्री लक्ष्मी की सेवा करती हैं ।
४. लक्ष्मी के कुछ अन्य रूप
लक्ष्मी सब प्रकार का ऐश्वर्य देनेवाली सिद्ध होने के कारण उसके आगे दिए रूपों की कल्पना की गई –
१. धनलक्ष्मी (धन देनेवाली लक्ष्मी),
२. धान्यलक्ष्मी
३. धैर्यलक्ष्मी
४. शौर्यलक्ष्मी
५. विद्यालक्ष्मी
६. कीर्तिलक्ष्मी
७. विजयलक्ष्मी एवं
८. राज्यलक्ष्मी ।
ये आठों रूप किसी न किसी स्वरूप में पूजनीय सिद्ध हुए हैं ।
गजलक्ष्मी : गजलक्ष्मी की संकल्पना में लक्ष्मी धरती है एवं वर्षणशील गज द्यौ (देवताओं)के प्रतिनिधि हैं । यहां ‘वर्षणशील’ यह शब्द ‘वृष्’ इस धातु से बना है । वर्षणशील इस शब्द का अर्थ है, ‘अत्यधिक प्रजननशक्ति सेेे युक्त ।’ महाराष्ट्र में गजलक्ष्मी ग्रामदेवता के रूप में पूजी जाती हैं । उन्हें भावेश्वरी, भावकाई इत्यादि नाम दिए गए हैं । गजलक्ष्मी यह मूलतः सुफलता की देवी होने के कारण कई स्थानों पर सुलभ प्रसूति के लिए उनकी आराधना करते हैं । गजलक्ष्मी का शिल्प संपूर्ण सृष्टि का रहस्य अभिव्यक्त करता है ।
योगमाया (योगनिद्रा) : योगनिद्रा अथवा योगमाया यह श्री दुर्गादेवी का रूप श्रीकृष्ण से अर्थात श्रीविष्णुु से संबंधित है । कंस के कारागार में कृष्ण-रूप में जन्म लेने से पूर्व श्रीविष्णुु ने श्री दुर्गाजी को यशोदा के गर्भ से जन्म लेने के लिए कहा एवं उन्होंने वैसा ही किया । आगे वसुदेव ने नवजात कृष्ण को गोकुल ले जाकर यशोदा की खाट पर रखा और शिशुरूप योगमाया को मथुरा में कंस के कारागार में ले आए । कारागार में उसका रोना सुनकर कंस दौडता हुआ आया एवं उसने बालिका को शिला पर पटककर मारने का निश्चय किया; परंतु कंस के उठे हुए हाथ से निकलकर योगमाया अदृश्य हो विष्णुुस्वरूप में विलीन हो गईं । आगे चलकर इसी योगमाया के लिए इंद्र ने विंध्य पर्वत पर वसतिस्थान का निमार्र्ण किया, ऐसी कथा का भागवत, हरिवंश एवं विष्णुुपुराण में समावेश है ।
५. मूर्तिवज्ञान
विष्णुुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार श्री लक्ष्मी को श्रीविष्णुुसहित दर्शाना हो, तो उनके दो हाथ होने चाहिए, और अकेले ही दर्शाना हो, तो उनके चार हाथ होने चाहिए । इस रूप में हाथी, कमल, स्वर्ण (आभूषण अथवा सिक्कों के रूप में), बेल का वृक्ष तथा फल देवी से संबंधित होते हैं । प्रायः श्री लक्ष्मी को श्रीविष्णुु के चरणों में बैठा हुआ दर्शाते हैं ।
संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, शक्ति (भाग १)