शक संवत अनुसार आश्विन कृष्ण त्रयोदशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात ‘धनत्रयोदशी’ । इसीको साधारण बोलचालकी भाषामें ‘धनतेरस’ कहते हैं । इस दिनके विशेष महत्त्वका कारण है, धनत्रयोदशी देवताओंके वैद्य धन्वंतरिकी जयंतीका दिन है ।
१. धनत्रयोदशीके दिन यमदीपदान करनेका अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व
दीपावलीके कालमें धनत्रयोदशीके दिन यमदीपदानका विशेष महत्त्व है, जो स्कंद-पुराणके इस श्लोकसे स्पष्ट होता है,
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे ।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनिश्यति ।।
इसका अर्थ है, कार्तिक मासके कृष्णपक्षकी त्रयोदशीके दिन सायंकालमें घरके बाहर यमदेवके उद्देश्यसे दीप रखनेसे अपमृत्युका निवारण होता है ।
इस संदर्भमें एक कथा है, कि यमदेवने अपने दूतोंको आश्वासन दिया कि धनत्रयोदशीके दिन यमदेवके लिए दीपदान करनेवालेकी अकाल मृत्यु नहीं होगी ।
२. धनत्रयोदशीके दिन की जानेवाली एक अन्य धार्मिक विधि है, व्यापारियोंद्वारा किया जानेवाला द्रव्यकोष पूजन
व्यापारी वर्ष, एक दीवालीसे दूसरी दीवालीतक होता है । व्यापारी नए वर्षकी लेखा-बहियां इसी दिन लाते हैं । कुछ स्थानोंपर इस दिन व्यापारी द्रव्यकोषका अर्थात तिजोरीका पूजन करते हैं । पूर्वकालमें साधनाके एक अंगके रूपमें ही व्यापारी वर्ग इस दिन द्रव्यकोषका पूजन करते थे । परिणामस्वरूप उनके लिए श्री लक्ष्मीजीकी कृपासे धन अर्जन एवं उसका विनियोग उचित रूपसे करना संभव होता था । इस प्रकार वैश्यवर्णकी साधनाद्वारा परमार्थ पथपर अग्रसर होना व्यापारी जनोंके लिए संभव होता है । धनत्रयोदशीके दिन विशेष रूपसे स्वर्ण अथवा चांदीके नए पात्र तथा नए वस्त्रालंकार क्रय किए जाते हैं । इससे वर्षभर घरमें धनलक्ष्मी वास करती हैं ।
३. धनत्रयोदशीके दिन स्वर्ण अथवा चांदीके नए पात्र क्रय करने अर्थात खरीदनेका शास्त्रीय कारण
धनत्रयोदशीके दिन लक्ष्मीतत्त्व कार्यरत रहता है । इस दिन स्वर्ण अथवा चांदीके नए पात्र क्रय करनेके कृत्यद्वारा श्री लक्ष्मीके धनरूपी स्वरूपका आवाहन किया जाता है तथा कार्यरत लक्ष्मीतत्त्वको गति प्रदान की जाती है । इससे द्रव्यकोषमें धनसंचय होनेमें सहायता मिलती है । यहां ध्यान रखनेयोग्य बात यह है, कि धनत्रयोदशीके दिन अपनी संपत्तिका लेखा-जोखा कर शेष संपत्ति ईश्वरीय अर्थात सतकार्यके लिए अर्पित करनेसे धनलक्ष्मी अंततक रहती है ।
४. धनत्रयोदशी व्रतके रूपमें भी मनाई जाती है
धनत्रयोदशी मृत्युके देवता यमदेवसे संबंधित व्रत है । यह व्रत दिनभर रखते हैं । व्रत रखना संभव न हो, तो सायंकालके समय यमदेवके लिए दीपदान अवश्य करते हैं ।
५. धन्वंतरि जयंती
समुद्रमंथनके समय धनत्रयोदशीके दिन अमृतकलश हाथमें लेकर देवताओंके वैद्य भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए । इसीलिए यह दिन भगवान धन्वंतरिके जन्मोत्सवके रूपमें मनाया जाता है । आयुर्वेदके विद्वान एवं वैद्य मंडली इस दिन भगवान धन्वंतरिका पूजन करते हैं तथा लोगोंके दीर्घ जीवन तथा आरोग्यलाभके लिए मंगलकामना करते हैं । इस दिन नीमके पत्तोंसे बना प्रसाद ग्रहण करनेका महत्त्व है । माना जाता है, कि नीमकी उत्पत्ति अमृतसे हुई है तथा धन्वंतरि अमृतके दाता हैं । अतः इसके प्रतीकस्वरूप धन्वंतरि जयंतीके दिन नीमके पत्तोंसे बना प्रसाद बांटते हैं ।
नीम का प्रसाद बनानेकी पद्धति : नीमके पुष्प, कोमल पत्ते, चनेकी भीगी दाल अथवा भिगोए गए चने, शहद, जीरा एवं थोडीसी हींग एक साथ मिलाकर प्रसाद बनाएं एवं सभीको बांटें ।
(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव व व्रत’)