आकाशदीप यह दीपोंकी सजावटका ही एक भाग है । आश्विन शुक्ल पक्ष एकादशीसे कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशीतक घरके बाहर एक ऊंचा खंभा गाडकर उसपर डोरीकी सहायतासे जो दीप टांगते हैं, उसे आकाशदीप कहते हैं । इसकी विधि आगे दिए अनुसार है । घरके समीप थोडी भूमिको गोबरसे लीपें । उसपर चंदनयुक्त जलसे छिडकाव कर अष्टदल कमल बनाएं । उसके मध्यभागमें बीस हाथ, नौ हाथ अथवा पांच हाथ लंबा खंभा गाडें । इसे वस्त्र, पताका, अष्टघंटा, कलशसे सुशोभित करें । इसपर अष्टदलाकृति दीप (कंदील) बनाकर लटकाएं । इस दीप (कंदील)में बडा दीप लगाएं । उसके चारों ओर कमलकी प्रत्येक पंखुडीमें एक, इस प्रकार धर्म, हर, भूति, दामोदर, धर्मराज, प्रजापति, पितर (तमःस्थित) एवं प्रेत, इन्हें उद्देशित कर आठ दीप लगाएं । दीपमें तिलका तेल डालें । उसके उपरांत दीपकी पंचोपचार पूजा कर, आगे दिए मंत्रका उच्चारण कर उसे ऊपर चढाएं ।
दामोदराय नभसि तुलायां दोलया सह ।
प्रदीपं ते प्रयच्छामि नमोऽनन्ताय वेधसे ।।
अर्थ : वह दामोदर (नारायण) जो श्रेष्ठ परमेश्वर है, उसे यह ज्योतिसहित दीप अर्पण करता हूं । वे मेरा कल्याण करें । इसका फल लक्ष्मीप्राप्ति है ।’
आकाशकंदील का मूल शब्द है ‘आकाशदीप’ । वर्तमान समय में घी के दीये की तुलना में विद्युत दीया आने से उसे आकाशकंदील कहा जाता है । घर के द्वार पर लटकाए आकाशदीप से घर के आसपास का वायुमंडल शुद्ध होता है । इसको ही प्रत्यक्ष वास्तु में लटकाने का दूसरा रूप है कंदील !
१. इतिहास
आकाशदीप की संकल्पना त्रेतायुग में आई । रामराज्याभिषेक के समय श्रीराम के चैतन्य से पुर्नीत वायुमंडल का स्वागत भी प्रत्येक घर में ऐसे ही आकाशदीप टांग कर किया गया ।
२. रचना
आकाशदीप की मूल रचना कलश समान होती है । यह मुख्य रूप से चिकनी मिट्टी से बनाया जाता है । इसके मध्यभाग तथा ऊपर के भाग की गोलाकार रेखा में एक-दो इंच पर गोलाकार छेद होते हैं । अंदर घी का दीया रखने हेतु मिट्टी की बैठक होती है ।
३. लगाने की पद्धति
इस आकाशदीप को वास्तु के प्रवेशद्वार पर दाएं हाथ की ओर (कार्यरत शक्ति का प्रतीक) लटकाया जाता है । सायं समय मिट्टी के गोलाकार कलश में माटी की छोटी-सी बैठक पर अक्षत रख कर उस पर घी का दीप रखते हैं एवं उसके मध्यभाग में मिट्टी के टोक वाला झकना रखा जाता है ।
४. त्रेतायुग में रामराज्याभिषेक के अवसर
पर आंगन में लटकाया आकाशदीप ‘ज्योतिकलश’
अंधियारी रात में आकाशदीप का दूर से दर्शन करने पर माटी का कलश अंधियारे के कारण दिखाई नहीं देता; परंतु कलश में जलनेवाली ज्योति का प्रकाश कलश में किए गए छेद की पंक्तियों से बाहर आने के कारण प्रत्येक छेद मंद रूप से जलनेवाली एक ज्योति प्रतीत होती है । अतः ऐसा प्रतीत होता है, मानो आकाशदीप का दृश्य कलशाकार ज्योतियों का समूह हो । कलश के आसपास बिरला प्रभामंडल उत्पन्न होने से ऐसा मनमोहक दृश्य दिखाई देता है, मानो कलश से प्रकाश का प्रवाह बाहर प्रसारित हो रहा हो । इसलिए त्रेतायुग में रामराज्याभिषेक के समय आंगन में लगाए आकाशदीप का नाम ‘ज्योतिकलश’ रखा गया । – ब्रह्मतत्त्व (श्रीमती पाटिल के माध्यम से, १८.२.२००४, दोपहर ३.०५)
आकाशकंदील लगाने के पीछे का शास्त्र
१. पाताल से घर में आनेवाली आपमय तरंगों को घर के बाहर की ओर लगाए आकाशकंदील के तेजतत्त्व की तरंगों द्वारा रोकना
दीपावाली की कालावधि में आपमय तत्त्वतरंगों से संबंधित अधोगामी तरंगों का उर्ध्व दिशा में प्रक्षेपण होना आरंभ होता है । इसलिए पूरे वातावरण में जडता आकर अनिष्ट घटकों के प्रादुर्भाव में वृद्धि होने के कारण घर में जडता का समावेश होकर पूरी वास्तु दूषित होती है । इसे रोकने हेतु दीपावाली में पूर्व से ही घर के बाहर आकाशकंदील लगाया जाता है । आकाशकंदील में तेजतत्त्व का समावेश होने से ऊर्ध्व दिशा में कार्यरत आपमय तरंगें नियंत्रित होती हैं एवं तेजतत्त्व की जागृतिदर्शक तरंगों का वर्तुलात्मक (गोलाकार पद्धति से) संचारण होता है; इसलिए घर के बाहर के भाग में आकाशकंदील लगाए जाते हैं ।
२. आकाशकंदील के कारण ब्रह्मांड में संचार करनेवाले लक्ष्मीतत्त्व एवं पंचतत्त्व का लाभ होना
दीपावाली के दिनों में ब्रह्मांड में विद्यमान अनिष्ट घटकों के निर्मूलन के लिए श्री लक्ष्मीतत्त्व कार्यरत होता है । इस तत्त्व का लाभ लेने हेतु पंचतत्त्व के सभी स्तरों का एकत्रीकरण कर उसे वायुतत्त्व की गतिमानता के आकर्षण से आकाश के अवकाशसंचारण से ग्रहण किया जाता है; इसलिए आकाशकंदील को घर के बाहर ऊंचे स्थान पर लगाया जाता है । इससे ब्रह्मांड में संचारण करनेवाले तत्त्व का लाभ होता है । – एक ज्ञानी (श्री. निषाद देशमुख के माध्यम से, १५.१०.२००६, रात्रि ७.१६)
विशेषताएं
१. प्रत्येक जीव के जीवन में स्थूल एवं सूक्ष्म से आनेवाली अडचनें एवं अपनी उन्नति करने हेतु हिन्दू जनजागृति समिति निर्मित सात्त्विक आकाशकंदील ईश्वर द्वारा एक माध्यम के रूप में उत्पन्न किया गया है ।
२. हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा निर्मित सात्त्विक ‘आकाशकंदील’ जीव का रज-तम गुण नष्ट कर सत्त्वगुण बढानेवाला ईश्वरीय कृपा का स्थूल माध्यम है । विविध आकारों के आकाशकंदील एवं उससे प्रक्षेपित होनेवाले विविध प्रकार की तरंगें
चांदनी के आकार के कंदील
१. चांदनी के आकार का कंदील
इस प्रकार के आकाशकंदील में कष्टदायी शक्ति का प्रमाण १० प्रतिशत होता है । इस आकाशकंदील के मध्य भाग से एवं पाताल से उर्ध्व दिशा में प्रक्षेपित होनेवाली कष्टदायी शक्ति को खींच कर स्वयं को विशेष आकार के आधार पर वातावरण में प्रक्षेपित करना संभव होता है एवं इस माध्यम से वातावरण में सूक्ष्म रेखा उत्पन्न की जाती है ।
षटकोण के आकार का कंदील
२. षटकोण के आकार का कंदील
इस प्रकार के आकाशकंदील में कष्टदायी शक्ति का प्रमाण २५ प्रतिशत होता है । इस आकाशकंदील के सभी ६ भागों को मांत्रिक निरंतर कष्टदायी शक्ति का प्रक्षेपण करनेवाला यंत्र बिठाकर ऊर्ध्व दिशा से अधर दिशा तक भारी मात्रा में कष्टदायी शक्ति का प्रक्षेपण करता है ।
चौकोन आकार का कंदील
३. चौकोन आकार का कंदील
इस प्रकार के आकाशकंदील में कष्टदायी शक्ति का प्रमाण १५ प्रतिशत होता है । इस आकाशकंदील में मांत्रिक चौकोन स्वरूप के कोष्टक स्वरूप का यंत्र बिठाते हैं एवं उस माध्यम से वास्तु के चारों भागों को दूषित करते हैं ।
अन्य आकारों के कंदील
४. अन्य सभी आकारों के कंदील
इन सभी प्रकार के आकाशकंदीलों में कष्टदायी शक्ति का प्रमाण १० प्रतिशत होता है । इन आकाशकंदीलों के आकार सात्त्विक न होने से एवं अधिकांश समय चित्रविचित्र होने से मांत्रिक उनमें कष्टदायी शक्ति का संग्रह कर उससे कष्टदायी शक्ति प्रक्षेपित करते हैं एवं उसके माध्यम से वे सूक्ष्म एवं स्थूल जगत को दूषित तथा रज-तम से भारित करते हैं ।
लंबगोल आकार का कंदील
५. लंबगोल आकार का कंदील
इस प्रकार के आकाशकंदील में कष्टदायी शक्ति का प्रमाण ० प्रतिशत होता है । इस आकाशकंदील से प्रक्षेपित होनेवाली तरंगें इस वलयांकित व्यापकता से सूक्ष्म की ओर मुडती हैं । इसलिए आकारविहीन होने लगती हैं । परिणाम स्वरूप मांत्रिकों के लिए इस प्रकार के कंदील में स्थान उत्पन्न करना असंभव होता है, जिससे इस कंदील से उन्हें कष्टदायी शक्ति का प्रक्षेपण करना असंभव होता है । ऐसे कंदील में केवल वरिष्ठ मांत्रिकों को ही स्थान उत्पन्न करना संभव होता है ।
अनिष्ट शक्तियों पर आकाशदीप का परिणाम होना !
घी के दीये की ओर ब्रह्मांड के देवी-देवताओं की सात्त्विक तरंगें आकृष्ट होती हैं एवं ढक्कन के अग्रभाग से वातावरण में फौव्वारे के समान प्रक्षेपित की जाती हैं । इसलिए वातावरण की पट्टियों में सात्त्विक तरंगों की सूक्ष्म-छत बनती है । दीये के नीचे के अक्षत द्वारा सात्त्विक तरंगें ग्रहण होकर नीचे की दिशा से प्रक्षेपित होती हैं । इससे भूमि पर सात्त्विक तरंगों का सूक्ष्म-आच्छादन बनता है । अनिष्ट शक्तियों को मिट्टी के कलश के छिद्र से प्रक्षेपित होनेवाली तीव्र गति की प्रकाशतरंगों का एवं उससे उत्पन्न सूक्ष्म नाद का कष्ट होता है । इसलिए अनिष्ट शक्तियां आकाशदीप के संपर्क में आने में प्रायः टालमटोल करती हैं । स्वाभाविक ही अनिष्ट शक्तियों का वास्तु के आसपास होनेवाला संचार न्यून होता है । पृथ्वी की तुलना में चिकनी मिट्टी से आपकणों की मात्रा अधिक होने से उसकी सात्त्विक तरंगों को प्रक्षेपण करने की क्षमता भी अधिक होती है । आकाशदीप टंगी हुई अवस्था में होने से एक ही समय वायुमंडल में ऊर्ध्वगामी एवं अधोगामी बहनेवाली वायुतरंगों की शुद्धि होने में सहायता होती है । कुछ समय पश्चात दीप एवं अक्षत से प्रक्षेपित होनेवाली सात्त्विक तरंगों के कारण वास्तु के आसपास सुरक्षा-कवच उत्पन्न होता है । इसलिए सायंकाल से बढती मात्रा में कार्यरत अनिष्ट शक्तियों से वास्तु की रक्षा होती है ।
हिन्दू जनजागृति समिति के आकाशकंदील का आकार शून्य समान क्यों है ?
१. निर्गुण तत्त्व आकृष्ट होना
आकाशकंदील के शून्यात्मक आकार से वातावरण में संचारणात्मक स्थिति के स्वरूप में स्थित निर्गुण तत्त्व भौंरे के स्वरूप में आकृष्ट होता है ।
२. शून्य से संबंधित तरंगों को आर्किषत एवं प्रक्षेपित करना
आकाशकंदील के विलक्षणात्मक आकारस्वरूप में शून्य से संबंधित तरंगों को आकृष्ट कर उन्हें संचारण क्षमता प्रदान कर वातावरण में प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है ।
३. शून्यात्मक अवकाश एवं उसके माध्यम से कार्यदर्शिता उत्पन्न होना
आकाशकंदील की आकारकक्षा में सूक्ष्म शून्यात्मक अवकाश उत्पन्न होता है एवं वह अवकाश दृश्य बंधन से साकार होकर उसका संचारण कार्यदर्शिता की अवस्था में होकर सभी दिशाओं में चक्राकार तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । इसलिए वातावरण चैतन्यमय होकर परिवार जनों को उससे लाभ होता है ।
४. इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान के सूक्ष्म-वलय उत्पन्न होना
आकाशकंदील के आसपास इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान के सूक्ष्म वलय उत्पन्न होते हैं, जो ईश्वर की शक्ति के रूप का दर्शक होते हैं । ये वलय वातावरण पर आवश्यक परिणाम करनेवाले होते हैं । ईश्वर दर्शक होने से वे समष्टि के लिए पोषक होते हैं ।
५. चैतन्य से भारित समान वलयों का प्रक्षेपण होना
आकाशकंदील के दोनों समतल क्षेत्र से सम अनुपात में वलयांकित होनेवाले चैतन्य से भारित वलयों का प्रक्षेपण होता है । यह प्रक्षेपण सात्त्विकता का आविष्कार होता है । साधना प्रभावी रूप से होने के लिए उसका लाभ होता है ।
हिन्दू जनजागृति समिति के आकाशकंदील से होनेवाले लाभ
१. कनिष्ठ देवी-देवताओं की तरंगें आर्किषत होने से भी घर की शुद्धि होना
आकाशकंदील घर में रखने से घर की ०.२५ प्रतिशत शुद्धि होती है । आकाशकंदील घर में रखने से उसमें वायुमंडल में संचार करनेवाले देवी-देवताओं की तरंगें आकर्षित होकर कुछ मात्रा में वास्तु की शुद्धि होती है ।
२. वातावरण में ईश्वर की चक्राकार तरंगें एकत्रित होकर घर पर उनका सूक्ष्म सुरक्षा-कवच तैयार होना
घर के बाहर के भाग में आकाशकंदील लगाने पर वातावरण में प्रक्षेपित होनेवाली ईश्वर की चक्राकार तरंगों का एकत्रीकरण होकर कवच के रूप में उनका प्रक्षेपण किया जाता है । अतः घर के ऊपर सूक्ष्म रूप में सुरक्षा-कवच उत्पन्न होता है ।
३. दिन में ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण कर रात्रि में उसका प्रक्षेपण करना
आकाशकंदील दिन में र्ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण कर रात्रि में उसका प्रक्षेपण करता है । दिन में किया जानेवाला प्रक्षेपण ब्राह्मतेज से भारित होता है, जबकि रात्रि में प्रक्षेपित किया जानेवाला तत्त्व क्षात्रतेज से भारित होता है ।
४. आकाशकंदील से निरंतर ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज से भारित विचारों का समाज में प्रक्षेपण होना
आकाशकंदील पर लिखा सार शब्दब्रह्मस्वरूप होने से ऊर्जा का वलय उत्पन्न होकर उस माध्यम से निरंतर ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज से भारित विचारों का समाज में प्रक्षेपण होता रहता है ।
५. पडोस के घर की भी शुद्धि होना
घर में आकाशकंदील लगाने पर वायुमंडल में संचार करनेवाली कनिष्ठ देवी-देवताओं की तरंगें उसकी ओर आर्किषत होकर उन तरंगों का बडा संग्रह उत्पन्न होता है, जिससे प्रक्षेपित होनेवाले चैतन्य के कारण कुछ मात्रा में पडोस के घर की भी शुद्धि होती है ।
६. आकाशकंदील के अवकाश में इश्वरीय तत्त्व का बिंदु तैयार होना एवं उससे चैतन्य प्रक्षेपित होना
आकाशकंदील के अवकाश से ईश्वरीय तत्त्व ग्रहण होकर उसके बिंदु तैयार होते हैं । उससे पुनः उसी बिंदु की ओर चैतन्यमय तरंगों का प्रक्षेपण होता है एवं इस माध्यम से चैतन्य का प्रक्षेपण पूर्ण रूप से होता है ।
– एक ज्ञानी (श्री. निषाद देशमुख के माध्यम से, १५.१०.२०० , सायं. ६.५९)
हिन्दू जनजागृति समिति निर्मित आकाशकंदील अर्थात सात्त्विकता एवं चैतन्य फैलानेवाले यंत्र !
हिन्दू जनजागृति समिति निर्मित सात्विक आकाशकंदील दैनंदिन उपयोग में लाकर उसकी सात्त्विकता का लाभ लें । रात्रि सोते समय कक्ष में आकाशकंदील लगाने से आगे दिए लाभ होते है ।
१. घर की कष्टदायी शक्ति अपनेआप न्यून हो सकती है । घर के व्यक्तियों को अनिष्ट शक्तियों का कष्ट है, तो वह दूर हो सकता है ।
२. घर के व्यक्तियों को आकाशकंदील से भारी मात्रा में सात्त्विकता मिलेगी, जिससे उनकी साधना चालू रहेगी एवं अनिष्ट शक्तियों से लडने की उनकी शक्ति बढेगी ।
३. घर में सत्त्वगुणों की वृद्धि होगी । इससे वास्तु अपने आप ही शुद्ध एवं सात्त्विक होगी ।
आकाशकंदील का संदेश
जिसप्रकार मैं निरंतर उत्साह एवं चैतन्य के साथ मेरी सेवा में तत्पर रह कर परिपूर्ण सेवा करता हूं, उसीप्रकार आप भी पूर्ण रूप से समर्पित होकर स्वभावदोषरहित एवं भावभक्ति से सेवा करें । मुझे जिसप्रकार ईश्वरीय छाया प्राप्त हुई है, वैसी आप भी प्राप्त करें । इसी जन्म में ध्येयप्राप्ति (ईश्वरप्राप्ति) होने के लिए आप को सद्गुरु मिले हैं । इस जन्म में ध्येयप्राप्ति नहीं हुई, तो अगले जन्म में होगी अथवा नहीं, यह अज्ञात होने से आए अवसर का लाभ उठा कर जीवन का कल्याण करें । – सौ. प्रार्थना बुवा के माध्यम से
आकाशदीप दृश्यपट (Akashdeep Video)
धर्मजागृति एवं राष्ट्रजागृति करनेवाला आकाशदीप
दीपावलीका वास्तविक अर्थ है, ‘अंधःकारसे प्रकाशकी ओर ले जानेवाली’ । वर्तमान में हिन्दू धर्मकी नाना प्रकारसे हानि हो रही है तथा राष्ट्र विनाशके कगारपर खडा है । हिंदुओंके लिए आवश्यक हो गया है कि उनमें धर्म एवं राष्ट्रके प्रति जागृति निर्माण
हो । ऐसेमें ही दीपावली यथार्थ रूपसे ऊपर दिए अनुसार मनाई जा सकती है । यही संदेश जन-जनतक पहुंचाने हेतु ‘सनातन संस्था’ एवं ‘हिन्दू जनजागृति समिती’ धर्मजागृति तथा राष्ट्रजागृति हेतु उपयुक्त सार लिखित आकाशदीपकी निर्मिति करती है ।
संदर्भ : सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र’ एवं अन्य ग्रंथ