सारिणी
१. गुरु
श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कंध में यदु एवं अवधूत का संवाद है, जिस में अवधूत बताते हैं कि उन्होंने किसे अपना गुरु माना तथा उनसे क्या बोध प्राप्त किया । ( यहां ‘गुरु’ शब्दका प्रयोग ‘शिक्षक’के अर्थ से किया है । ‘खरे गुरु’संबंधी ज्ञान सनातन के ग्रंथ ‘गुरुकृपायोग’ में दिया है । )
अवधूत कहते हैं – जगत की प्रत्येक वस्तु ही गुरु है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है । बुराई से हम सीखते हैं कि कौन से दुर्गुणों का परित्याग करना चाहिए तथा अच्छाई से यह शिक्षा मिलती है कि कौन से सद्गुण अपनाने चाहिए । उदा. आगे वर्णित २४ गुरुओं से थोडा-थोडा ज्ञान प्राप्त कर मैंने उसका सागर बनाया एवं उस में स्नान कर सर्व पापों का क्षालन किया ।
१ पृथ्वी
पृथ्वीसमान सहनशील एवं द्वंद्वसहिष्णु होना चाहिए ।
२ वायु
वायुसमान विरक्त रहना चाहिए । जिस प्रकार वायु शीतोष्ण में संचार करते हुए भी उसके गुणदोष से नहीं बंधती, उसी प्रकार मुमुक्षु को दूसरों के गुणदोष की उपेक्षा कर श्रुतिप्रतिपादित मार्ग अपनाकर शीतोष्णयुक्त प्रदेश में यथेच्छ गमन करना चाहिए ।
३ आकाश
आकाशसमान चराचर वस्तुओं में व्याप्त होते हुए भी आत्मा निर्विकार, एकमात्र एवं अचल है ।
४ जल
जल की भांति मनुष्य को सबके प्रति स्नेहपूर्वक व्यवहार होना चाहिए; पक्षपात नहीं करना चाहिए । जिस प्रकार मैल को अपने तले में रखकर जल दूसरों के मल का क्षालन करता है, उसी प्रकार मनुष्य को देहाभिमानरूपी मल का त्याग कर ज्ञानवैभव प्राप्त करना चाहिए एवं मलिन लोगों के पापों का क्षालन करना चाहिए । बहता हुआ जल उच्च स्थान को त्यागकर उन्मत्त वृक्षों का उच्छेदन कर, नम्र वनस्पतियों का पोषण करते हुए निचले स्थानों की ओर जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुषों को (व्यक्तियों को) धन, मद आदि का उच्छेदन कर, पाखंडी दुष्टों को दंड देकर शरणागत लोगों को पाप-मुक्त करना चाहिए । जिस प्रकार एक ही स्थानपर एकत्रित जल दुर्गंधयुक्त हो जाता है एवं बहते रहनेपर स्वच्छ रहता है, उसी प्रकार विचारशील पुरुष को एक ही स्थानपर न रहकर विभिन्न तीर्थस्थानों में रहना चाहिए ।
५ अग्नि
मनुष्य को अग्नि की भांति तपद्वारा प्रकाशित होना चाहिए तथा जो भी मिले उसे ग्रहण कर, किसी प्रकार का दोषाचरण न करते हुए अपने गुणों का आवश्यकतानुसार एवं योग्य समयपर प्रयोग करना चाहिए । तीर्थ इत्यादि स्थानों में भ्रमण करते समय जो कुछ भी अन्न इत्यादि मिले, उसका संग्रह न कर आवश्यकता अनुसार भक्षण करना चाहिए । अग्नि की भांति सदा पवित्र रहकर सबके साथ समान आचरण करना चाहिए । जिन देवताओं के नाम से अग्नि में आहुति अर्पित की जाती है, अग्नि उस आहुति को उन देवताओं तक पहुंचाती है; अर्थात जिसका जो है, अग्नि उसे वह लौटा देती है, अपने लिए कुछ भी नहीं बचाकर रखती । इस बात का बोध हो कि ‘यह देह (शरीर) क्षणभंगुर है’, इसलिए अग्नि की ज्वाला को गुरु माना गया है । जिस प्रकार ज्वाला के उत्पन्न एवं नष्ट होने में किंचितमात्र भी देर नहीं लगती, उसी प्रकार पंचमहाभूतों द्वारा शरीर की उत्पत्ति एवं लय में विलंब नहीं होता ।
६ चंद्र
अमावस्या की सूक्ष्म कला एवं अर्धमास की पंद्रह कलाओं को मिलाकर चंद्र की कुल सोलह कलाएं होती हैं । चंद्र की कला घटती-बढती है, फिर भी इस विकार का चंद्रपर कोई प्रभाव नहीं पडता; उसी प्रकार आत्मा के लिए देहसंबंधी विकार बाधक नहीं होते ।
७ सूर्य
भविष्यकाल का विचार कर सूर्य जल का संचय करता है तथा उचित समयपर परोपकार हेतु धरतीपर वर्षाव करता है । उसी प्रकार उपयुक्त वस्तुओं का संचय कर तथा देश, काल, वर्तमानस्थिति को ध्यान में रखते हुए, मनुष्य निष्पक्षरूप से सर्व प्राणियों को उसका लाभ दिलाए ।
८ कपोत
जैसे बाज कपोत (कबूतर) का उसके परिवारसहित भक्षण करता है, उसी प्रकार काल उस मनुष्य का भक्षण करता है जो स्त्री-पुत्रादि के प्रति आसक्त होकर संसार को सुखमय मानकर चलता है । इसी कारण इन सबके प्रति मुमुक्षु का मन निर्लिप्त होना चाहिए ।
९ अजगर
प्रारब्धपर विश्वास रख अजगर एक ही स्थानपर निर्भय पडा रहता है; जिस समय जो कुछ मिले उसे ग्रहण कर संतुष्ट रहता है । वह अल्प-अधिक अथवा कडवे-मीठे का विचार नहीं करता, कभी-कभार खाने के लिए कुछ न मिले तब भी घबराता नहीं । शरीर में शक्ति होते हुए भी वह उसका उपयोग नहीं करता । उसी प्रकार मुमुक्षुओं को प्रारब्धपर पूर्ण विश्वास रख, जिस समय जो कुछ मिले, उसे ग्रहण करना चाहिए । कभी-कभार कुछ न भी मिले, तो स्वस्वरूप में लीन रहना चाहिए ।
१० समुद्र
समुद्र वर्षाकाल में अनेक नदियों का अपरिमित जल पानेपर सुखी नहीं होता एवं जल न मिलनेपर दुःखी भी नहीं होता, अतएव वर्धमान अथवा क्षीण नहीं होता । उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को स्वधर्माधीन रहकर सुख-भोग का अवसर पाकर सुखी नहीं होना चाहिए तथा न ही निरंतर दुःख से दुःखी होना चाहिए, सदैव आनंदित रहना चाहिए । समुद्र की लंबाई, चौडाई, गहराई, रत्नों की खान इत्यादि का किसी को पता नहीं लगता, उसी प्रकार अपने गुणों का किसी को पता नहीं लगने देना चाहिए; मात्र परोपकार हेतु उनका उपयोग सदैव करना चाहिए ।
११ पतंगा
जलते दीप की लौसे मोहित होकर पतंगा उसके चारों ओर मंडराता है तथा जल जाता है । उसी प्रकार जो मनुष्य स्त्रीविलासी होता है, स्त्रीके सौंदर्य एवं युवावस्था से मोहित होता है, वह पतंगे के समान उसी में अपना विनाश कर लेता है ।
१२ मधुमक्खी एवं मधुहा
अथक परिश्रमद्वारा मधुमक्खी ऊंचे वृक्षोंपर छत्ता बनाती है तथा उसमें मधु एकत्रित करती है । वह उस मधु को न तो स्वयं खाती है और न ही अन्य किसी को खाने देती है । अंत में मधु जमा करनेवाले मधुहे अचानक आकर, उसके प्राण लेकर, छत्ते समेत शहद ले जाते हैं । जब कोई कृपण महाप्रयास से द्रव्यार्जन कर उसका संग्रह करता है, तब अग्नि, चोर अथवा राजा द्वारा संपत्ति के अचानक हरण किए जानेपर अथवा संतानद्वारा संपत्ति का अनैतिक अपव्यय होनेपर अथवा निःसंतान ही उसकी मृत्यु हो जानेपर वह दुःख पाता है । वह संपत्ति वहीं रह जाती है अथवा फिर किसी अन्य को ही प्राप्त होती है । मृत्यु के समय संपत्ति के प्रति उसकी आसक्ति रह गई हो, तो पिशाच अथवा सर्प बनकर, वह उस संपत्ति का उपयोग करनेवाले को कष्ट देता है । इस प्रकार धनसंचय करने से अकाल मृत्यु हो सकती है । इसलिए मधुमक्खी से उपदेश लेकर धनसंचय छोड देना चाहिए ।
१३ मधुहा
परिश्रम बिना ही मधुहा मधु प्राप्त करता है, उसी प्रकार साधक पुरुष को (व्यक्ति को) भी चूल्हा, बरतन, अग्नि, लकडी इत्यादि इकट्ठे करने के झंझट में न पडकर, गृहस्थाश्रमी के घर का पकाया भोजन ग्रहण कर, ईश्वरप्राप्ति के उद्योग हेतु समय का सदुपयोग करना चाहिए । गृहस्थाश्रमियों से भोजन स्वीकार कर ऐसे मुमुक्षु उनका कल्याण ही करते हैं ।
१४ गजेंद्र (हाथी)
अपने से अधिक बलवान हाथी को भी वश में करने के लिए भूमि में गड्ढा खोदकर मनुष्य उसपर घास बिछा देता है । लकडी की हथनी बनाकर उसे गजचर्म पहनाकर उसे घासपर खडा कर देता है । विषयसुख की लालसा से लुब्ध होकर हाथी तीव्रगति से उस लकडीकी हथनी के सम्मुख आता है एवं गड्ढे में गिर जाता है । बलवान होते हुए भी हाथी मनुष्य के हाथों सहजता से पकडा जाता है । उसी प्रकार, जो पुरुष स्त्रीसुख पाने के लिए भटकता है, वह बंधनों में अतिशीघ्र जकड जाता है । कामविकारवश आपस में लडकर हाथी मृत्यु को प्राप्त होते हैं; वही गति व्यभिचारिणी स्त्रीपर मोहित होनेवाले पुरुषों की भी होती है ।
१५ भ्रमर
सूर्यास्त होते ही कमल अपनी पंखुडियों को बंद कर लेता है । ऐसे में उसपर बैठा हुआ भ्रमर भीतर कैद हो जाता है । सीखें कि विषयासक्ति से बंधनप्राप्ति होती है; इसलिए विषयों के प्रति आसक्ति न बढने दें । एक ही कमल की सुगंध का सेवन न कर, भ्रमर अनेक कमलों की सुगंध का आनंद लेता है । प्रत्येक शास्त्र में प्रवीण होना संभव नहीं, इस बात को मानकर मुमुक्षु को शास्त्र के रहस्य को तात्पर्यस्वरूप ग्रहण करना चाहिए ।
१६ मृग
कस्तूरी मृग की पवन समान गति के कारण, वह किसी के हाथ नहीं लगता; परंतु मधुर संगीत के प्रति आसक्त होकर अपने प्राण पराधीन कर देता है । इसलिए किसी भी प्रकार के मोह में नहीं फंसना चाहिए ।
१७ मत्स्य
लोहे के कांटे में बंधे हुए मांस के टुकडे को पानी में फेंकनेपर, मछली मोहित होकर उसे कांटेसहित निगल लेती है और अपने प्राण गंवा देती है । उसी प्रकार जिव्हा के स्वाद में बद्ध हो जानेपर मनुष्य जन्म-मरणरूपी भंवर में गोते खाता रहता है ।
१८ पिंगला वेश्या
एक रात बहुत समयतक प्रतीक्षा करनेपर पिंगला नामक वेश्या के पास एक भी पुरुष नहीं आया । प्रतीक्षा एवं आशा से बेचैन, अंदरबाहर चहलकदमी करते-करते वह अंत में थक गई और उसे अचानक वैराग्य आ गया । जबतक मनुष्य की इच्छाएं प्रबल रहती हैं, तबतक उसे सुखनिद्रा नहीं आती । जो पुरुष (व्यक्ति) आशा को त्याग देता है, वह इस संसार के दुःख से भी विचलित नहीं होता ।
१९ टिटिहरी
एक बार एक टिटिहरी को अपनी चोंच में मछली लिए उडते देख सैकडों कौए एवं चील उसका पीछा करने लगे तथा चोंच मारकर उससे मछली छीनने का प्रयत्न करने लगे । टिटिहरी जहां जाती, वहां वह सेना उसका पीछा करती । अंत में थक हारकर, उसने एकदमसे मछली को छोड दिया । मछली को एक चीलने लपक लिया । यह देखने की देर थी कि, टिटिहरी को छोडकर सारे कौए तथा चील उस मछली को छीनने के लिए चील के पीछे लग गए । निश्चिंत होकर टिटिहरी एक पेडकी डालपर शांतिसे बैठ गई । इस संसार में सर्व आसक्तियों के परित्याग में ही शांति है, अन्यथा घोर विपत्ति है ।
२० बालक
जगत को प्रारब्धाधीन मानकर, मान-अपमानका विचार न कर, सर्व चिंताओं का परिहार कर, एक बालक के समान ही चिंतामुक्त एवं आनंद में रहें ।
२१ कंकण
दो कंकणों के आपस में टकराने से नाद (ध्वनि) उत्पन्न होता है । कई कंकण पहननेपर अधिक नाद होता है । साथ रहनेवाले दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप होता है; परंतु एक स्थानपर अनेक व्यक्ति साथ रहते हों, तो वहां कलह होता है । दोनों ही स्थितियों में मनोवृत्ति शांत नहीं होती । इसी कारण ध्यान-योगादि हेतु निर्जन प्रदेश ढूंढकर वहां अकेले रहना चाहिए ।
२२ बाण बनानेवाला कारीगर (शरकर्ता, शरकार, शरकट)
एक दिन एक कारीगर एकाग्र चित्त से बाण का अग्रभाग बना रहा था । उसके निकट से राजा की डोली धूमधाम से साजोसामानसहित निकली । पीछे से एक व्यक्तिने आकर उससे पूछा, ‘‘इस मार्ग से राजा की डोली गई, क्या तुमने वह दृश्य देखा ?’’ इसपर कारीगरने उत्तर दिया, ‘‘मैं अपने कार्य में इतना मग्न था कि मुझे कुछ पता नहीं चला ।’’ इस कारीगर के समान मुमुक्षु को अपनी सर्व इंद्रियों को ईश्वरके चरणों में लीन कर ध्यान धरना चाहिए ।
२३ सर्प
दो सर्प कभी भी एक साथ नहीं रहते, न विचरण करते हैं । वे भनक लगे बिना सावधानी से विचरते हैं; अपने लिए घर नहीं बनाते, जहां इच्छा होती है वहीं रह जाते हैं । वे खुलकर नहीं घूमते, दोष बिना किसी की निंदा भी नहीं करते तथा अपने ऊपर अपकार हुए बिना किसीपर कोप नहीं करते । उसी प्रकार दो बुद्धिमान व्यक्तियों को कभी एक साथ भ्रमण नहीं करना चाहिए, परीमित भाषण करना चाहिए, किसी से लडाई-झगडा नहीं करना चाहिए, सोच-समझकर आचरण करना चाहिए, सभा एकत्रित कर भाषण नहीं देना चाहिए तथा अपने लिए मठ न बनाकर, जहां मन करे वहां जीवन बिताना चाहिए । अपना घर होने से अभिमान उत्पन्न होता है एवं लोभ पनपता है ।
२४ मकडी
मकडी अपनी नाभि के तंतुदाव से जाल बुनती है, उसमें दिन-रात क्रीडा करती है; फिर अपनी इच्छानुसार उस घरको निगलकर स्वतंत्र हो जाती है । ईश्वर इच्छामात्र से जगत की उत्पत्ति कर, उसमें नाना प्रकार के खेल खेलता है एवं मन में आते ही अपनी इच्छामात्र से ही उसका नाश कर स्वयं अकेले रहता है । मकडी तंतु से बारंबार घर बना सकती है, उसी प्रकार ईश्वर इच्छामात्र से चराचर जगत उत्पन्न कर, अपनेआप में ही उसका लय कर, पुनः इच्छा होनेपर पूर्ववत् निर्माण करता है । अतः जगत में हो रही घटनाओं को महत्त्व न दें ।
२५ ततैया (भ्रमर)
कोई प्राणी जब सदैव किसी का ध्यान करता है, वह परिणामस्वरूप तदाकार हो जाता है । ततैया मिट्टी से घर बनाकर उसमें एक कीट लाकर रखता है एवं उसपर फूंक मारता रहता है । इससे उस कीट को ततैये का सदैव ध्यान लगा रहता है और वह भी अंत में ततैया बन जाता है । उसी प्रकार मुमुक्षु को गुरु-उपदिष्ट मार्गद्वारा ईश्वर का ध्यान करना चाहिए; इससे वह ईश्वररूप हो जाएगा ।
२. उपगुरु
१ वृक्ष
जो मनुष्य तमोगुणाधीन होकर असत्य कर्मों का आचरण करता है, वह वृक्ष बन जाता है और आगे उसे अपने अभिमान के कारण आजन्म खडे रहना पडता है । वृक्ष परस्वाधीन होते हैं; परंतु प्रसन्न चित्त से मरणकालतक परोपकार कर पूर्वजन्म में किए गए पापों का क्षालन करते हैं । इसी कारण वे पक्षियों इत्यादि को सहर्ष आश्रय देते हैं । इतना ही नहीं तो सर्दी, हवा, ग्रीष्म आदि स्वयं सहकर आश्रितों का संरक्षण करते हैं तथा अपनी पत्तियां, फूल, फल उन्हें निर्वाह हेतु अर्पण करते हैं । मनुष्य जाति उन्हें तोडती है, काटती है, कुरेदती है, जडसे उखाड देती है; उनके फल, फूल, पत्तियां, रस भी निकाल लेती है, उन्हें छीलकर, चीरकर, पीसकर घर में उनका उपयोग करती है, जलाती है; स्वेच्छासे उन्हें दुःख देकर, उनका मनोवांच्छित उपयोग करती है । फिर भी वृक्षजाति मानवजातिद्वारा दिए गए सभी दुःखों को सहकर, आजीवन परोपकार करती है । उसी प्रकार मुमुक्षु जनों को सर्व दुःख सहन कर, देह के रहते परोपकार करते रहना चाहिए । वृक्ष यात्रियों को विश्रांति देता है; उसी प्रकार गृहस्थामियों को द्वारपर आए अतिथि को भोजन करवाकर उसे आश्रय देना चाहिए । दैवयोग से लक्ष्मी प्राप्त होनेपर उन्मत्त नहीं होना चाहिए । जिस प्रकार फलपुष्पों से लदकर वृक्ष और भी नम्र हो जाता है एवं अधिक परोपकार करता है, उसी प्रकार संपत्ति प्राप्त होनेपर मनुष्य को विनम्र होकर परोपकार करना चाहिए ।
२ पर्वत
पर्वत एवं पृथ्वी अपने उदर में रत्न आदि की खानों का संचय कर रखते हैं, जिसके द्वारा वे लोगोंपर अनंत उपकार करते हैं । उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को विद्या प्राप्त कर, संचय कर उसका उपयोग परोपकारार्थ करना चाहिए । ग्रीष्मकाल में शीतल जल के झरने उत्पन्न कर पर्वत तप्त लोगों को शांत करते हैं, उसी प्रकार मीठा बोलने की वृत्ति बनाकर सबको आनंद दें । भगवान दत्तात्रेय ने ऐसे अनेक उपगुरु भी किए ।
(‘ब्रह्मीभूत श्रीमत् प.प. वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे) स्वामीजीका चरित्र’ (मराठी) पर आधारित)
( संदर्भ – सनातनका लघुग्रंथ – दत्त )