१. श्री दत्तजयंती
दत्तजयंती दृश्यपट
२. दत्तजयंतीका महत्त्व
३. भगवान दत्तात्रेयके जन्मका इतिहास
पुराणोंमें ऐसा वर्णन मिलता है कि दत्तका जन्म वर्तमान मन्वंतरके आरंभमें प्रथम पर्यायके त्रेतायुगमें हुआ ।
अ. पुराणोंके अनुसार
अत्रि ऋषिकी पत्नी अनसूया महापतिव्रता थी, जिसके कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं महेशने निश्चय किया कि उनकी पतिव्रताकी परीक्षा लेंगे । एक बार अत्रि ऋषि अनुष्ठानके लिए बाहर गए हुए थे, तब अतिथिके वेशमें त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश) पधारे एवं उन्होंने अनसूयासे भोजन मांगा । अनसूयाने कहा, ‘ऋषि अनुष्ठानके लिए बाहर गए हैं, उनके आनेतक आप प्रतीक्षा करें ।’ त्रिमूर्ति अनसूयासे बोले, ‘‘ऋषिको आनेमें समय लगेगा, हमें बहुत भूख लगी है । तुरंत भोजन दो, अन्यथा हम कहीं और चले जाएंगे । हमने सुना है कि आप आश्रममें पधारे अथितियोंको इच्छाभोजन देते हैं, इसलिए हम इच्छाभोजन करने आए हैं ।’’ अनसूयाने उनका स्वागत किया और बैठनेकी विनती की । वे भोजन करने बैठे । जब अनसूया भोजन परोसने लगी तब वे बोले, ‘‘हमारी इच्छा है कि तुम निर्वस्त्र होकर हमें परोसो ।’’ इसपर उसने सोचा, ‘अथितिको विमुख भेजना अनुचित होगा । मेरा मन निर्मल है । मेरे पतिका तपफल मुझे तारेगा ।’ ऐसा विचार कर उसने अतिथियोंसे कहा, ‘‘अच्छा ! आप भोजन करने बैठें ।’’ तत्पश्चात् रसोईघरमें जाकर पतिका ध्यान कर उसने मनमें भाव रखा, ‘अतिथि मेरे शिशु हैं’ । आकर देखती हैं, तो वहां अतिथियोंके स्थानपर रोते-बिलखते तीन बालक थे ! उन्हें गोदमें लेकर उसने स्तनपान कराया एवं बालकोंका रोना रुक गया ।
इतनेमें अत्रिऋषि आए । उसने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाया । उसने कहा, ‘‘स्वामिन् देवेन दत्तम् ।’’ अर्थात – ‘हे स्वामी, भगवानद्वारा प्रदत्त (बालक) ।’ इस आधारपर अत्रि ऋषिने उन बालकोंका नामकरण ‘दत्त’ किया । अंतर्ज्ञानसे ऋषिने बालकोंका वास्तविक रूप पहचान लिया और उन्हें नमस्कार किया । बालक पालनेमें रहे एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनके सामने आकर खडे हो गए और प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगनेके लिए कहा । अत्रि एवं अनसूयाने वर मांगा, ‘ये बालक हमारे घरपर रहें ।’ वह वर देकर देवता अपने लोक चले गए । आगे ब्रह्मदेवतासे चंद्र, श्रीविष्णुसे दत्त एवं शंकरसे दुर्वास हुए । तीनोंमेंसे चंद्र एवं दुर्वास तप करनेकी आज्ञा लेकर क्रमशः चंद्रलोक एवं तीर्थक्षेत्र चले गए । तीसरे, दत्त विष्णुकार्यके लिए भूतलपर रहे । यही है गुरुका मूल पीठ ।
४. जन्मोत्सव मनाना
५. दत्तयाग
इसमें पवमान पंचसूक्तके पुरश्चरण (जप) एवं उसके दशांशसे अथवा तृतीयांशसे घृत (घी) एवं तिलसे हवन करते हैं । कुछ स्थानोंपर पंचसूक्तके स्थानपर दत्तगायत्रीका जप एवं हवन करते हैं । दत्तयागके लिए किए जानेवाले जपकी संख्या निश्चित नहीं है । स्थानीय पुरोहितोंके परामर्श अनुसार जप एवं हवन किया जाता है ।
६. भगवान दत्तात्रेयकी उपासनाके अंतर्गत कुछ नित्यके कृत्योंके विषयमें ईश्वरसे प्राप्त ज्ञान
प्रत्येक देवताका विशिष्ठ उपासनाशास्त्र है । इसका अर्थ है कि प्रत्येक देवताकी उपासनाके अंतर्गत प्रत्येक कृत्य विशिष्ट प्रकारसे करनेका शास्त्राधार है । ऐसे कृत्यके कारण ही उस देवताके तत्त्वका अधिकाधिक लाभ होनेमें सहायता होती है । दत्त उपासनाके अंतर्गत नित्यके कुछ कृत्य निश्चितरूपसे किस प्रकार करने चाहिए, इस संदर्भमें सनातनके साधकोंको ईश्वरसे प्राप्त ज्ञान यहां प्रस्तुत सारणीमें दिया है । ये और ऐसे विविध कृत्योंका शास्त्राधार सनातन-निर्मित ग्रंथमाला ‘धर्मशास्त्र ऐसे क्यों कहता है ?’ में दिया है ।
उपासनाका कृत्य | कृत्यविषयक ईश्वरद्वारा प्राप्त ज्ञान |
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१. दत्तपूजनसे पूर्व उपासक स्वयंको कौनसा तिलक कैसे लगाए ? | श्रीविष्णुसमान खडी दो रेखाओंका तिलक लगाए । |
२. दत्तको चंदन किस उंगलीसे लगाएं ? | अनामिकासे |
३. पुष्प चढाना
अ. कौनसे पुष्प चढाएं ? आ. संख्या कितनी हो ? इ. पुष्प चढानेकी पद्धति क्या हो ? ई. पुष्प कौनसे आकारमें चढाएं ? |
जाही एवं रजनीगंधा सात अथवा सात गुना पुष्पोंका डंठल देवताकी ओर कर चढाएं । चतुष्कोणी आकारमें |
४. उदबत्तीसे आरती उतारना
अ. तारक उपासनाके लिए किस सुगंधकी उदबत्ती ? आ. मारक उपासनाके लिए किस सुगंधकी उदबत्ती ? इ. संख्या कितनी हो ? ई. उतारनेकी पद्धति क्या हो ? |
चंदन, केवडा, चमेली, जाही एवं अंबर हीना दो दाएं हाथकी तर्जनी एवं अंगूठेके बीच पकडकर घडीकी सुइयोंकी दिशामें तीन-बार पूर्ण गोलाकार घुमाकर उतारें । |
५. इतर (इत्र) किस सुगंधकी अर्पण करें ? | खस |
६. दत्तकी न्यूनतम कितनी परिक्रमाएं करें ? | सात |
(संदर्भ – सनातनका ग्रंथ – भगवान दत्तात्रेय : खंड १)