यह तीर्थक्षेत्र मध्यप्रदेशमें क्षिप्रा नदीके तटपर बसा है । इसे ‘उज्जयिनी’ अथवा ‘अवंतिका’ भी कहते हैं । स्कंदपुराणमें इस क्षेत्रको ‘महाकालवन’ कहा गया है ।
उत्पत्ति
स्कंदपुराणके अंतर्गत आवंत्य खंडमें वर्णन मिलता है कि पुराणकालमें भगवान शंकरने यहां त्रिपुरासुरको पराजित किया था । इसलिए इस स्थानका नाम ‘उज्जयिनी’ पडा ।
क्षेत्रकी महिमा
१. सप्त मोक्षदायिनी पुरियोंमें एक : अयोध्या, मथुरा, माया आदि सात मोक्षदायी पुरियोंमें अवंतिका अर्थात उज्जैन नगरीका समावेश है ।
२. देहरूप तीर्थस्थानोंका नाभिप्रदेश : वराहपुराणके अनुसार समग्र तीर्थस्थानोंको यदि एक देह माना जाए, तो अवंतिका नगरी इसका नाभिप्रदेश है ।
३. द्वादश ज्योतिर्लिंगोंमें एक : यहां द्वादश ज्योतिर्लिंगोंमेंसे एक ‘महाकाल’ नामक ज्योतिर्लिंग है । भक्तोंकी ऐसी श्रद्धा है कि महाकालके दर्शनसे अकालमृत्यु टल जाती है तथा मुक्ति मिलती है ।
४. इक्यावन शक्तिपीठोंमेंसे एक : यहां ‘हरसिद्धिदेवी’का प्राचीन मंदिर है । यहां सतीकी कोहनी गिरी थी, इसलिए यह इक्यावन शक्तिपीठोंमेंसे एक है । यहां मंदिरमें हरसिद्धिदेवीकी मूर्तिकी अपेक्षा उनकी कोहनीकी पूजा होती है ।
स्थानदर्शन
यहां श्री महाकालेश्वर मंदिर, श्री हरसिद्धिदेवीका मंदिरके साथ श्री मंगलनाथ मंदिरका विशेष महत्त्व है । पुराणमें उल्लेख है, ‘उज्जैन’ मंगल ग्रहका जन्मस्थान है । इसलिए जिनकी जन्मकुंडलीमें मंगल प्रबल होता है, वे श्रद्धालुजन यहां आकर पूजा-अर्चना करते हैं ।
१. श्री महाकालेश्वर मंदिर
२. श्री हरसिद्धिदेवी मंदिर
३. श्री मंगलनाथ मंदिर
४. श्री कालभैरव मन्दिर
५. त्रिवेणी नवग्रह (शनि मन्दिर)
६. गढ़कालिका मन्दिर
७. श्री रामजनार्दन मन्दिर
८. श्री सिद्धवट मन्दिर (शक्तिभेद तीर्थ)
९. सांदिपनी आश्रम
१. श्री महाकालेश्वर मंदिर
उज्जैन के अधिपति भगवान शिव की महिमा यहाँ के कण-कण में विराजमान हैं। भारत के हृदयस्थल मध्यप्रदेश के उज्जैन में पुण्य सलिला शिप्रा के तट के निकट भगवान शिव ‘महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के रूप में विराजमान हैं। महाकाल ज्योतिर्लिंग का भव्य मन्दिर पाँच मंज़िल वाला है तथा क्षिप्रा नदी से कुछ दूरी पर अवस्थित है। मन्दिर के ऊपरी भाग में श्री ओंकारेश्वर विद्यमान हैं। भूतल पर महाकालेश्वर का ज्योतिर्लिंग स्थापित है। यह शिवलिंग समतल भूमि से भी कुछ नीचे है। यहाँ के रामघाट और कोटितीर्थ नामक कुण्डों में भी स्नान किया जाता है तथा पितरों का श्राद्ध भी विहित है अर्थात यहाँ पितृश्राद्ध करने का भी विधान है। इन कुण्डों के पास ही अगस्त्येश्वर, कोढ़ीश्वर, केदारेश्वर तथा हरसिद्धि देवी आदि के दर्शन करते हुए महाकालेश्वर के दर्शन हेतु जाया जाता है।
२. श्री हरसिद्धिदेवी मंदिर
उज्जैन के प्राचीन पवित्र स्थलों की आकाशगंगा में यह मन्दिर एक विशेष स्थान रखता है। यह मंदिर देवी अन्नपूर्णा को समर्पित है जो गहरे सिंदूरी रंग में रंगी है। देवी अन्नपूर्णा की मूर्ति देवी महालक्ष्मी और देवी सरस्वती की मूर्तियों के बीच विराजमान है।
श्रीयंत्र शक्ति की शक्ति का प्रतीक है और श्रीयंत्र भी इस मंदिर में प्रतिष्ठित है। इस जगह का पुराणों में बहुत महत्व है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जब सती बिन बुलाये अपने पिता के घर गईं और वहाँ पर दक्ष के द्वारा अपने पति का अपमान सहन न कर सकने पर उन्होंने अपनी काया को अपने ही तेज से भस्म कर दिया। जब माता सती के जलते हुए शरीर को भगवान शिव अपने साथ ले जा रहे थे, तब उनकी कोहनी इस जगह पर गिरी थी। इस मंदिर का पुनर्निर्माण मराठों के शासनकाल में किया गया था, अतः मराठी कला की विशेषता दीपकों से सजे हुए दो खंभों पर दिखाई देती है। मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुआँ है तथा मंदिर के शीर्ष पर एक सुंदर कलात्मक स्तंभ है।
३. श्री मंगलनाथ मंदिर
अंकपात के निकट क्षिप्रा तट के एक टीले पर मंगलनाथ का मन्दिर है। मंगलेश्वर का भव्य मन्दिर क्षिप्रा तट पर स्थित है। मंदिर के निकट क्षिप्रा का विशाल घाट है। पौराणिक परंपरा से यह मान्यता है कि उज्जैन मंगलग्रह की जन्मभूमि है। ऐसा भी माना जाता है कि मंगलनाथ के ठीक शीर्ष के ऊपर ही आकाश में मंगलग्रह स्थित है। यह महादेव चौरासी महादेव में तैंतालीसवें महादेव है।
मत्स्यपुराण में लिखा है कि –
आवंत्या च कुजो जातो मगधे चहि माशुनः
इसी प्रकार कर्मकाण्डों और संकल्पों में भी – “अवन्तिदेशोद्भवभौमः”
इत्यादि अनेक प्रमाणों से मंगल की जन्मभूमि उज्जैन मानी जाती है। स्कंदपुराण एवं मत्स्यपुराण के अनुसार मंगल गृह की उत्पत्ति यहीं से हुई है। सम्भवतः प्राचीनकाल में मंगल गृह यहाँ से निकट से देखा जाता था। अध्यन के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान रहा होगा। मंगलवार ,सोमवती अमावस्या , एवं वैशाख मास में यहाँ दर्शनार्थ हजारों यात्री आते है। मंगल की पूजा एवं आराधना ‘मंगलो भूमि पुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रदः ‘ के अनुसार ऋण निवारण एवं धन प्राप्ति के लिए भी की जाती है।
४. श्री कालभैरव मन्दिर
आठ भैरव की पूजा शैव परंपरा का एक हिस्सा है और इनमें से काल भैरव को प्रधान माना जाता है। कहते हैं कि क्षिप्रा के तट पर काल भैरव के मंदिर का निर्माण राजा भद्रसेन ने करावाया था। भगवान काल भैरव को उज्जैन नगर का सेनापति भी कहा जाता है और प्रसाद के रूप में मदिरा का भोग लगाया जाता है। शत्रु नाश मनोकामना के संबंध में कहा जाता है कि यहाँ मराठा काल में महादजी सिंधिया ने युद्ध में विजय के लिए भगवान को अपनी पगड़ी अर्पित की थी। पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के बाद तत्कालीन शासक महादजी सिंधिया ने राज्य की पुनर्स्थापना के लिए भगवान के सामने पगड़ी रख दी थी। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि युद्ध में विजयी होने के बाद वे मंदिर का जीर्णोद्धार करेंगे। कालभैरव की कृपा से महादजी सिंधिया युद्धों में विजय प्राप्त होती रही। इसके बाद उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। तब से मराठा सरदारों की पगड़ी भगवान कालभैरव के शीश पर पहनाई जाती है।
५. त्रिवेणी नवग्रह (शनि मन्दिर)
शिप्रा नदी के त्रिवेणी घाट पर नवग्रह का यह मन्दिर यात्रियों का प्रमुख केन्द्र है। त्रिवेणी घाट के पास क्षिप्रा नदी पर खान नदी से संगम है. इस नदी का नाम पास ही इन्दौर नगर में बाणगंगा है। कुछ लोग इस नदी को तुंगभद्रा भी मानते थे। त्रिवेणी संगम की कल्पना के साथ अदृश्य नदी सरस्वती की पौराणिक मान्यता इस स्थान के साथ भी जुड़ी हुई है। शनिचरी अमावस्या पर नवग्रह मन्दिर पर बड़ी संख्या में लोग एकत्र होते हैं। इस स्थान का धार्मिक महत्व वर्तमान युग में बढता गया है, यद्यपि पुरातन संदर्भों में इस स्थान का विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
६. गढ़कालिका मन्दिर
यह मन्दिर कालिका देवी को समर्पित है, जो हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार बहुत शक्तिशाली देवी हैं। कालजयी कवि कालिदास गढ़ कालिका देवी के उपासक थे। कालिदास के सम्बन्ध में मान्यता है कि जब से वे इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे तभी से उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का निर्माण होने लगा। कालिदास रचित ‘श्यामला दंडक’ महाकाली स्तोत्र एक सुंदर रचना है। ऐसा कहा जाता है कि महाकवि के मुख से सबसे पहले यही स्तोत्र प्रकट हुआ था। माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। सातवीं शताब्दी के दौरान हर्षवर्धन द्वारा इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया था। परमार शासन काल में भी इसके जीर्णोद्धार के प्रमाण मिलते हैं और इसके प्रति जन आस्था को देखते हुए बाद में ग्वालियर के शासकों ने इस पवित्र तीर्थ का पुनर्निर्माण कराया।
७. श्री रामजनार्दन मन्दिर
प्राचीन विष्णु सागर के तट पर स्थित यह विशाल परकोटे से घिरा मन्दिर समूह है। इसमें एक राममंदिर है दूसरा जनार्दन (विष्णु) का मन्दिर है। इसे सवाई राजा एवं मालवा के सूबेदार जयसिंह ने बनवाया था। परकोटा तथा कुण्ड मराठाकाल में निर्मित हुए। होल्कर महारानी अहिल्याबाई ने इसका जीर्णोद्धार कराया था। इस मन्दिर में मराठा कालीन चित्रकला के आकर्षक नमूने जनार्दन मंदिर में देखे जा सकते है। यह समीप चौरासी महादेवों में एक मार्कण्डेश्वर महादेव का मन्दिर भी है। यह स्थान विष्णु सागर के समीप होने से प्राकृतिक दृश्यों से युक्त एवं अच्छा पर्यटन स्थल है। यहाँ परमारकालीन गिरधर कृष्ण ,शेषशायी विष्णु ,ब्रह्मा ,महेश ,गरुड़ की प्रतिमाएँ हैं।
८. श्री सिद्धवट मन्दिर (शक्तिभेद तीर्थ)
उज्जैन का सिध्दवट प्रयाग के अक्षयवट, वृन्दावन के वंशीवट तथा नासिक के पंचवट के समान अपनी पवित्रता के लिए प्रसिध्द है। पुण्यसलिला क्षिप्रा के सिध्दवट घाट पर अन्त्येष्टि-संस्कार सम्पन्न किया जाता है। स्कन्द पुराण में इस स्थान को प्रेत-शिला-तीर्थ कहा गया है। एक मान्यता के अनुसार पार्वती ने यहाँ तपस्या की थी। वह नाथ सम्प्रदाय का भी पूजा स्थान है। सिध्दवट के तट पर क्षिप्रा में अनेक कछुए पाए जाते है। उज्जयिनी के प्राचीन सिक्कों पर नदी के साथ कूर्म भी अंकित पाए गए हैं. इससे भी यह प्रमाणित होता है कि यहाँ कछुए अति प्राचीनकाल से ही मिलते रहे होंगे. कहा जाता है कि कभी इस वट को कटवाकर इस पर लोहे के तवे जड़ दिए गए थे, परन्जु यह वृक्ष तवों को फोड़कर पुन: हरा-भरा हो गया।
९. सांदिपनी आश्रम
सांदिपनी आश्रम का पौराणिक महत्व है।विश्व की प्राचीनतम शिक्षास्थली सांदीपनी का गुरुकुल व श्री कृष्ण का विद्याकेंद्र विश्वविख्यात हें। गुरु सांदिपनी के इस आश्रम में ही श्रीकृष्ण, उनके मित्र सुदामा और भाई बलराम ने शिक्षा ग्रहण की। इस जगह का उल्लेख महाभारत में किया गया है। अब इस आश्रम को एक मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया है, जो गुरु सांदिपनी को समर्पित है। इस आश्रम के पास एक पत्थर पर 1 से 100 तक गिनती लिखी है और ऐसा माना जाता है कि यह गिनती गुरु सांदिपनी द्वारा लिखी गई थी। सांदिपनी आश्रम के पास गोमती कुंड है। ऐसा माना जाता है कि श्रीकृष्ण ने पवित्र गोमती नदी का आवाहन इस कुंड में किया था ताकि गुरु सांदिपनी को आसानी से पवित्र जल मिलता रहे। गुरु सांदिपनी के समय में इस आश्रम में युद्ध कलाएँ भी सिखाई जाती थीं।
संदर्भ : सनातनका ग्रंथ – कुंभमेलेकी महिमा एवं पवित्रताकी रक्षा एवं सिंहस्थ उज्जैन