सारिणी
- १. ‘अखाडा’ शब्दका अर्थ, उत्पत्ति एवं व्याप्ति
- २. अखाडोंकी विशेषताएं
- ३. अखाडोंका विशिष्टतापूर्ण अंतरंग !
- ४. शैव पंथीय अखाडे
- ५. वैष्णव पंथीय अखाडे
- ६. अखाडोंमें संघर्ष नहीं, धर्महितके अनुरूप उचित समन्वय हो !
- ७. अखाडोंद्वारा किया धर्मरक्षाका कार्य
- ८. आगामी भीषण कालको देखते हुए साधु-संतोंका धर्मरक्षा हेतु एकत्र होना एवं शस्त्रधारी रहना आवश्यक !
१. ‘अखाडा’ शब्दका अर्थ, उत्पत्ति एवं व्याप्ति
१ अ. अर्थ
‘अखाडा’ शब्द ‘अखंड’ शब्दका अपभ्रष्ट रूप है । अखंड (अखाडा) अर्थात निरंतर एवं एकजुट संगठन ।
१ आ उत्पत्ति
जैन, बौद्ध तथा इस्लाम पंथोंका भारतमें उदय होनेपर धर्मका अस्तित्व संकटमें पड गया । इसलिए मठोंने ज्ञानोपासनाके कार्यके साथ ही इन विदेशी आक्रमणोंको प्रत्युत्तर देने हेतु शस्त्रधारी दल बनाए एवं उन्हें ‘अखाडे’की संज्ञा दी ।
१ इ . व्याप्ति
उत्तर भारतसे गोदावरी नदीतक निवास करनेवाले सर्व पंथीय साधु कुल चौदह संघोंमें रहते हैं । ये १३ संघ ही १३ ‘अखाडे’ हैं ।
१ इ . अ. दशनामी अखाडे
इसमें कुल सात अखाडे हैं – महानिर्वाणी, अटल, निरंजनी, आनंद, जुना (भैरव), आह्वान एवं अग्नि ।
१ इ आ. वैष्णव अखाडे
तीन प्रमुख वैष्णव अखाडे हैं – दिगंबर, निर्मोही, निर्वाणी । ( इनमें १८ उपअखाडे एवं खालसा भी होते हैं ।)
१ इ इ. उदासीन अखाडे
इसमें दो अखाडे हैं । उदासीन पंचायती बडा अखाडा एवं उदासीन पंचायती नया अखाडा ।
१ इ ई. निर्मल अखाडा
सिखोंका यह अखाडा गुरु गोविंदसिंहकी (सिखोंके धर्मगुरुकी) प्रेरणासे स्थापित हुआ ।
१ इ उ. सर्व साधुओंके अखाडे उत्तर भारतके होनेका कारण
सर्वत्रके कुंभमेलेमें एकत्र होनेवाले सर्व अखाडे उत्तर भारतके हैं । दक्षिण भारतमें साधुओंका एक भी अखाडा नहीं है । हिंदू धर्मपर हुए आक्रमणोंका सर्वाधिक प्रभाव उत्तर भारतमें हुआ । इसकी तुलनामें दक्षिण भारत शांत रहा । इसीके परिणामस्वरूप दक्षिणमें ज्ञानमार्गी विद्वत्ता, जबकि उत्तरमें बलोपासनामार्गी भक्ति है ।
२. अखाडोंकी विशेषताएं
२ अ. शास्त्र एवं शस्त्रमें पारंगत साधु
अखाडोंसे संबंधित अधिकांशतः सर्व साधुसंन्यासी शास्त्र एवं शस्त्रपारंगत होते हैं ।
३. अखाडोंका विशिष्टतापूर्ण अंतरंग !
कुंभमेलेमें एक अखाडेसे संबंधित सर्व साधु एक ही स्थानपर रहते हैं । वहां वे आपसमें चर्चा कर आगामी योजना निर्धारित करते हैं । कुंभमेलेके समय अटल अखाडा एवं निर्वाणी अखाडाके साधु एकत्र रहते हैं, जबकि आनंद अखाडा तथा निरंजनी अखाडाके साधु एकत्र रहते हैं । न्यूनतम १२ वर्ष साधना किए अथवा विशिष्ट सिद्धि प्राप्त संन्यासीबैरागियोंको पंथीय संप्रदायकी रचनामें उच्च पद दिए जाते हैं । अखाडोंमें साधुकी आध्यात्मिक योग्यता तथा मानसिक धैर्य, इन गुणोंके आधारपर ही उसका स्थान निश्चित किया जाता है । स्थान निश्चित करते समय कोई भी जातिभेद अथवा ऊंच-नीच नहीं माना जाता । अखाडोंमें अनुशासनका पालन किया जाता है । आज्ञाका पालन न करनेवाले साधुको कठोर शारीरिक अथवा आर्थिक दंड दिया जाता है । प्रत्येक अखाडेमें महामंडलेश्वर, मंडलेश्वर, महंत जैसे कुछ प्रमुखोंकी श्रेणी होती है । अत्यंत नम्र, विद्वान तथा परमहंस पद प्राप्त ब्रह्मनिष्ठ साधुका चयन इस पदके लिए किया जाता है ।
३ आ. अखाडोंका अग्रक्रम
३ आ अ. कुंभमेलोंमें पर्वस्नान हेतु अखाडोंका अग्रक्रम ! : पूर्वकालमें धर्मरक्षाका कार्य करते समय अखाडोंके साधु-संतोंद्वारा (आक्रमणकारियोंकी) हत्या होना अपरिहार्य था । गंगास्नानसे पापक्षालन होनेके कारण अखाड़ोंके शस्त्रधारी साधु-संतोंको पर्वकालके ‘पवित्र स्नान’के समय अग्रक्रम दिया गया । आज भी यह परंपरा जारी है । इन सशस्त्र साधु-संतोंका स्नान, यही कुंभमेलेकी एक महत्त्वपूर्ण विधि मानी जाती है । साधुओंद्वारा स्नान किए बिना श्रद्धालु स्नान नहीं करते ।
४. शैव पंथीय अखाडे
आद्यशंकराचार्यने शैव परंपराके संगठित संन्यासियोंका दस गुटोंमें वर्गीकरण किया है । १. गिरी, २. पुरी, ३. भारती, ४. तीर्थ, ५. बन, ६. अरण्य, ७. पर्वत, ८. आश्रम, ९. सागर तथा १०. सरस्वती । इन संगठित गुटोंको ही ‘दशनामी अखाडे’के रूपमें जाना जाता है । इन अखाडोंके ७ प्रकार हैं । प्रत्येक अखाडेके देवता तथा ध्वज भिन्न होते हैं । शैव पंथीय संन्यासियोंके अखाडोंमें धार्मिक तथा शस्त्र चलानेकी शिक्षा दी जाती है । इसलिए उनमें क्षात्रतेज अनुभव होता है ।
५. वैष्णव पंथीय अखाडे
जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्यके कुछ शिष्य तथा श्री भावानंदाचार्यजीके शिष्य श्री बालानंदजीने प्रभु श्रीरामचंद्रको अपना आराध्यदेवता माना है । उन्होंने चारों वैष्णव संप्रदायोंको संगठित कर तीन बैरागी (वैष्णव) अखाडोंकी स्थापना की । वैष्णवोंके अखाडोंमें भी शस्त्र एवं शास्त्रका कठोर अभ्यास किया जाता है । अन्य वैष्णव अखाडोंके नाम हैं निरालंबी, संतोषी, महानिर्वाणी तथा खाकी । ये साधु ‘बैरागी’ अथवा ‘अलख’ कहलाते हैं । विधर्मी आक्रमणकरियोंसे हिंदू धर्मीय तथा उनके देवालयोंकी रक्षा करना, यही इन अखाडोंका प्रमुख कर्तव्य है ।
६. अखाडोंमें संघर्ष नहीं, धर्महितके अनुरूप उचित समन्वय हो !
कुंभमेलेमें पवित्र स्नानके लिए जानेके क्रमसे कुछ अखाडोंमें होनेवाला संघर्ष, नित्यकी बात है । पवित्र स्नानके जुलूसके समय दो अखाडोंमेंसे कौन पहले जाएगा, इस प्रश्नपर अपशब्दोंका उपयोग करना, एक-दूसरेपर शस्त्र उठाना आदि घटनाएं अनेक बार होती हैं । यह संपूर्ण आचरण हिंदू धर्मकी हानि करता है । यद्यपि दो अखाडोंमें सैद्धांतिक मतभेद हों, तब भी उसके लिए इस प्रकार संघर्ष करना उचित नहीं ! कुंभमेलेमें अखिल हिंदू समाजके प्रतिनिधि आते हैं । उनपर धर्मसंस्कार करनेका दायित्व अखाडोंके साधु-संतोंपर होता है । अतएव विभिन्न पंथीय अखाडोंको एक-दूसरेके प्रति बैर नहीं; अपितु उचित समन्वय रखना, हिंदू धर्मकी दृष्टिसे हितकारी है । इसके लिए कुंभमेलेमें एकत्र होनेवाले सर्व पंथीय साधु-संत ऐसा भाव रखें कि ‘कुंभमेलेमें आनेवाले अन्य अखाडोंके साधु हमारे धर्मबंधु हैं’ तथा उनसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करें ।
७. अखाडोंद्वारा किया धर्मरक्षाका कार्य
हिंदुओंपर अनन्वित अत्याचार करनेवाले इन इस्लामी आक्रमणकारियोंका प्रतिकार करनेमें तत्कालीन हिंदू राजसत्ता कुछ असमर्थ सिद्ध हुई । इसलिए साधु-संन्यासियोंने धर्मसंरक्षणार्थ दंड उठाया । नागा संप्रदाय और दशनामी संन्यासी एकत्र हुए । शक्तिका प्रतीक भाला उन्होंने शस्त्रके रूपमें धारण किया । मल्लविद्या तथा तलवार आदि शस्त्रोंका प्रशिक्षण दिया जाने लगा । नागा-दशनामी संन्यासियोंमें ‘प्राचीन आध्यात्मिक परंपराका संरक्षण करनेवाला शास्त्रधारी’ तथा ‘धर्मरक्षा हेतु लडनेवाला शस्त्रधारी’, ऐसे दो भाग किए गए । इन संन्यासियोंने धर्मरक्षा हेतु निम्नलिखित प्रकारसे ऐतिहासिक कार्य किया ।
७ अ. वर्ष १६८९ में प्रयाग (इलाहाबाद) एवं हरिद्वार इन तीर्थक्षेत्रोंपर हुए मुगलोंके आक्रमण नागा साधुओंने अपने महान पराक्रमसे परास्त किए ।
७ आ. वर्ष १७४८ में अहमदशाह अब्दालीका आक्रमण तथा १७५७ में मथुरापर हुआ आक्रमण असंख्य साधुओंने वीरगति स्वीकार कर समाप्त किया ।
७ इ. राजेंद्रगिरी नामक नागा साधुके नेतृत्वमें १७५१ से १७५३ के मध्य झांसीके पडोसके ३२ गांवोंकी मुगल सत्ता उखाड फेंकी और वहां स्वतंत्रताका ध्वजा फहराया । संन्यासियोंने ही नहीं; अपितु बैरागियोंने भी इसी प्रकार परधर्मीय आक्रमणकारियोंके विरुद्ध अनेक बार सशस्त्र युद्ध कर धर्मरक्षाका महत्कार्य किया । ज्ञानसंपन्न होकर भी सशस्त्र हुए शैव एवं वैष्णव अखाडोंके साधुओंके कारण ही शस्त्रहीन शांतिप्रिय हिंदू समाजको सांत्वना मिली तथा इस्लामका आक्रमण सिंधकी सीमापर एक सीमातक रुक गया, यह ऐतिहासिक सत्य है ।
८. आगामी भीषण कालको देखते हुए साधु-संतोंका धर्मरक्षा हेतु एकत्र होना एवं शस्त्रधारी रहना आवश्यक !
आज भी हिंदू समाज तथा साधु-संतोंको लक्ष्य करने हेतु सीमासे जिहादियोंके आतंकी आक्रमण जारी हैं । संपूर्ण भारतमें हो रहे बम-विस्फोट, इसीके संकेत हैं । १२.१०.२००६ को श्रीनगरमें भगवान शंकरके शस्त्र रखे दशनामी अखाडेके मठपर जिहादी आतंकवादियोंने आक्रमण किया । यह आक्रमण इस बातका संकेत है कि जिहादियोंकी लक्ष्यसूचीमें (‘हिटलिस्ट’पर) साधु-संतोंके अखाडे भी हैं । वर्ष १५४७ में हरद्वारके (हरिद्वारके) कुंभमेलेमें देवालयोंकी रक्षा हेतु नागा, दशनामी, उदासी, बैरागी आदि संप्रदायोंके चयनित साधुओंने एकत्र होकर ‘आवाहन अखाडे’की स्थापना की थी । इन अखाडोंने प्राचीन देवालयोंकी रक्षाका दायित्व स्वयंपर लिया था । आज भी जिहादियोंकी आतंकवादी चुनौतियोंका सामना करने हेतु साधु-संतोंको पुनः एक होना चाहिए । धर्मरक्षा, यह विशिष्ट उद्देश्य सामने रखकर ही अखाडोंकी निर्मिति हुई है । इसलिए अखाडोंके साधु-संतोंको अपने पराक्रमी इतिहास पर जाज्वल्य अभिमान करनेके साथ ही आगामी भीषण कालको देखते हुए धर्मरक्षा का नया इतिहास रचानेके लिए शीघ्रातिशीघ्र संगठित एवं शस्त्रधारी बनना होगा ।
(संदर्भ – सनातनका ग्रंथ – कुंभमेलेकी महिमा एवं पवित्रताकी रक्षा)