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शिवपूजन में भस्म लगाने का महत्व

पवित्र रक्षा को भस्म कहते हैं । जिस प्रकार भस्म नित्यकर्मों में आवश्यक है, उसी प्रकार यह शैव संप्रदाय की साधना का एक अत्यावश्यक अंग है । भस्मधारण किए बिना शिवपूजा आरंभ न करें ।

१. भस्म  की व्याख्या

कुछ लोगों की ऐसी अनुचित धारणा है कि भस्म अर्थात किसी भी वस्तु के जलने के उपरांत शेष राख । यज्ञ में अर्पित समिधा एवं घी की आहुति के जलने के उपरांत जो भाग शेष रहता है, उसे ‘भस्म’ कहते हैं । कुछ लोग देवतापूजन के रूपमें, राख से मूर्ति का अभिषेक करते हैं । देवता की मूर्ति के स्पर्श से पवित्र बनी राख का उपयोग ‘भस्म’  के रूप में करते हैं ।

२. भस्म का अर्थ एवं महत्त्व

‘भस्म’ शब्द में ‘भ’ अर्थात ‘भत्र्सनम्’ अर्थात ‘नाश हो’ । ‘स्म’ अर्थात स्मरण । भस्म के कारण पापों का निर्दालन होकर ईश्वर का स्मरण होता है । शरीर नाशवान है । इसे निरंतर स्मरण रखने का जो प्रतीक है, वह भस्म है; ऐसा भस्म शब्द का भावार्थ है । विभूति, रक्षा एवं राख ये भस्म के समानार्थी शब्द है।

३. भस्म की सीख

अ. अपनी आहुति देकर मनुष्य का भस्म होना, अर्थात अपनी इच्छा-आकांक्षा, दोष, अज्ञान एवं अहं का त्याग करना एवं मन की शुद्धता प्राप्त करना

आ. मनुष्यदेह नश्वर है, इसलिए मरणोपरांत उस देह को जलकर राख होना है । इसलिए कोई भी देहासक्ति न रखें । मृत्यु किसी भी क्षण हो सकती है, यह भान रख महत्प्रयास से प्राप्त मनुष्यजन्म को सार्थक करने हेतु एवं अपने प्रत्येक क्षण को पवित्र तथा आनंदमय बनाने में प्रयत्नरत रहें, यही भस्म सूचित करती है ।

इ. भस्म वैराग्य सिखाती है ।

४. भस्म के रूप में किसका प्रयोग होता है ?

अ. गोमय द्रव्य (गोबर) अग्नि में डालकर सिद्ध किया भस्म : अधिकतर इसका प्रयोग करते हैं, क्योंकि शिव को चिताभस्म अत्यंत प्रिय होते हुए भी सामान्य व्यक्तियों को चिताभस्म सहन नहीं होती ।

आ. संतोंद्वारा किए गए यज्ञ से प्राप्त भस्म

इ. अग्निहोत्री ब्राह्मण के अग्निकुंड की भस्म

ई. पुरातन यज्ञस्थान की मिट्टी

उ. गाणगापुर (कर्नाटक) में तो भस्म का पर्वत ही है ।

ऊ. चिताभस्म : मृत को मंत्राग्नि देकर दाहसंस्कार करते हैं । उसकी रक्षा (राख) को चिताभस्म कहते हैं । वाराणसी में विश्वेश्वर को सदैव चिताभस्म की अर्चना की जाती है । तांत्रिक अधिकतर इस भस्म का प्रयोग करते हैं ।

५. गाय के गोबर से भस्मनिर्माण की विधि

‘देसी गाय का गोबर धरती पर गिरने से पहले ही जमा कर लें । इस गोबर से बने उपले को जलाने पर जो राख बनती है, उसे ‘भस्म’ कहते हैं । जिस स्थान पर भस्म सिद्ध करना हो, उस स्थान को गोबर से लीपें । गोमूत्र अथवा विभूति का तीर्थ छिडककर स्थान शुद्ध करें । वहां रंगोली बनाएं । तदुपरांत हवनपात्र अथवा किसी चौडे पात्र में उपलें रखें । उन पर देसी गाय का घी डालें । कुलदेवता, इष्टदेवता एवं गुरु से प्रार्थना कर कर्पूर से उपले प्रज्वलित करें । कुलदेवता अथवा इष्टदेवता का नामजप करें । भस्म सिद्ध होने के उपरांत एक पात्र में भरें । तदुपरांत यदि संभव हो, तो उस पात्र को दर्भ अथवा दाहिने हाथ से स्पर्श कर दस बार गायत्री मंत्र कहें । ऐसा करने से भस्म अभिमंत्रित होती है । भस्म अभिमंत्रित करना, अर्थात भस्म में देवता का चैतन्य लाना । गायत्री मंत्र का पुरश्चरण कर भस्म अभिमंत्रित करने से उस भस्म के उपयोग का लाभ अधिक मिलता है । भस्म अभिमंत्रित करनेवाले व्हृाक्ति ने यदि गायत्री मंत्र का पुरश्चरण न किया हो, तो वह भावपूर्ण रूप से ‘ॐ नमः शिवाय ।’  का नामजप करे अथवा सिद्ध किए गए किसी भी शिवमंत्र का उच्चारण करे ।

६. भस्म कहां लगाएं ?

भस्मधारण मंत्रोच्चारसहित करना चाहिए । ‘भस्मधारणकी विधि आगे बताए अनुसार करें ।

अ. मंत्रसहित

‘सद्योजात’ जैसे मंत्र जपते हुए पवित्र भस्म को हथेली पर रखें एवं उसे ‘अग्निरिति’ इत्यादि मंत्रों से मंत्रित करें ।। २०० ।।
‘मानस्तोके’ इत्यादि मंत्रों का उच्चारण करते हुए पवित्र भस्म को अंगूठे से रगडें । ‘त्र्यंबक’ इत्यादि मंत्र बोलते हुए उसे मस्तक पर लगाएं ।। २०१ ।।
‘त्र्यायुषे’ मंत्र का उच्चारण करते हुए उसे मस्तक एवं भुजाओं पर लगाएं । उसी मंत्र का उच्चारण करते हुए उस भस्म को अपने शरीर पर लगाएं ।। २०२ ।।
(श्री गुरुचरित्र, अध्याय २९ का अनुवाद)

आ. भावसहित

मंत्रों का ज्ञान न हो, तो भक्तिभाव से भस्म लगाएं । उसकी महिमा अपरंपार है । (श्री गुरुचरित्र, अध्याय २९, पंक्ति २०४ का अनुवाद)

इ. ऋग्वेदीय ब्रह्मकर्मानुसार

भस्मधारण की विधि ऋग्वेदीय ब्रह्मकर्म में दी है । उसका संक्षिप्त सार ऐसा है – आचमन तथा प्राणायाम कर, बार्इं हथेली पर
थोडी भस्म लेकर वह ‘ॐ मानस्तोके’ इस मंत्र से पानी में भिगोएं । वह भस्म ‘ॐ ईशानः’ इस मंत्र से मस्तक, ‘ॐ तत्पुरुषाय’ इस मंत्र से मुख, ‘ॐ अघोरेभ्यो’ इस मंत्र से हृदय, ‘ॐ वामदेवाय’ इस मंत्र से गुह्य भाग एवं ‘ॐ सद्योजात’ इस मंत्र से दोनों पैरों में लगाएं ।

७. त्रिपुंड्र (भस्म के तीन समानांतर पट्टे)

अ. ऋग्वेदीय ब्रह्मकर्मानुसार त्रिपुंड्र लगाने की पद्धति

बार्इं हथेली पर रखी भस्म को दाएं हाथ से स्पर्श कर, ‘ॐ अग्निरिति भस्म, वायुरिति भस्म’ इत्यादि ७ मंत्रों से अभिमंत्रित करें । दाएं हाथ की मध्य की तीन उंगलियों एवं बाएं हाथ की मध्य की तीन उंगलियों से यह भस्म दोनोें हाथों पर मलें । ‘ॐ नमः शिवाय ।’ यह मंत्रोच्चार करते हुए दाएं हाथ की मध्य की तीन उंगलियों से यह भस्म कपाल, हृदय, नाभि एवं कंठ पर आडे लगाएं । तत्पश्चात दाएं हाथ से शरीर के बाएं भाग के तथा बाएं हाथ से शरीर के दाएं भाग के कंधा, बांह, कलाई, पाश्र्व (बगल) एवं पांवों पर आडे भस्म लगाएं । तदुपरांत संपूर्ण शरीर पर लगाएं ।’’

सर्वप्रथम मध्यमा एवं अनामिका से ऊपर एवं नीचे के पट्टे, बाएं से दाएं की ओर खींचें । तत्पश्चात दूसरे हाथ के अंगूठे से मंझली धारी विपरीत दिशामें, दाएं से बाएं की ओर खींचें । (दोनों दिशाओं में पट्टे खींचने से दार्इं एवं बार्इं नाडी कार्यरत नहीं होती, अपितु सुषुम्ना नाडी के कार्यरत होने में सहायता मिलती है ।) (श्री गुरुचरित्र, अध्याय २९, पंक्ति २०४ का अनुवाद) त्रिपुंड्र भौहों के आकार का हो । त्रिपुंड्र के बीच में प्रायः भस्म का एक बिंदु भी लगाते हैं ।

आ. तीन पट्टों का भावार्थ

  • १. शिव के तीन नेत्र
  • २. त्रिपुंड्र अर्थात ज्ञान, पवित्रता एवं तप (योगसाधना)
  • ३. वासुदेवोपनिषदानुसार त्रिमूर्ति, तीन व्याहृती (संध्या के समय उच्चारण किए जानेवाले विशेष मंत्र) एवं तीन छंद, इनका प्रतीक है त्रिपुंड्र ।
  • ४. ज्योतिषशास्त्रानुसार ऊपरी रेखा गुरु, मंझली रेखा शनि एवं निचली रेखा रवि का प्रतीक हैं ।

८. भस्म किसे लगानी चाहिए ?

श्राद्ध, यज्ञ, होम, देवतापूजन एवं वैश्वदेव, ये कर्म करने से पूर्व ब्राह्मणों को भस्म लगानी चाहिए । ब्राह्मणों के साथ ही अन्य वर्णियों को भी भस्म लगाने का अधिकार है । ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी एवं संन्यासी, इन सभी वर्णियों को भस्म लगाने का अधिकार है ।

९. पुरुषद्वारा माथे पर भस्म के तीन पट्टे बनाने के सूक्ष्म-स्तरीय लाभ दर्शानेवाला चित्र


अ. चित्र में अच्छे स्पंदन : २ प्रतिशत’ – प.पू. डॉ. जयंत आठवले

आ. ‘सूक्ष्म-स्तरीय लाभ दर्शानेवाले चित्र में स्पंदनों की मात्रा : शांति (प्रतीत होना) ०.७५ प्रतिशत, शिवतत्त्व २ प्रतिशत, चैतन्य १ प्रतिशत एवं प्रकट शक्ति २.७५ प्रतिशत

इ. अन्य सूत्र

  • १. पुरुषद्वारा भालप्रदेश पर भस्म के तीन पट्टे अनामिका, मध्यमा एवं तर्जनी से एक ही बार बनाने से उससे व्यक्ति को आप, तेज एवं वायु, इन तत्त्वों के अंशात्मक तत्त्व प्राप्त होते हैं ।
  • २. मस्तकपर बनाए भस्म के पट्टे मस्तक की भाग्यरेखाओं से संबंधित होते हैं ।
  • ३. शिवतत्त्व आकर्षित करनेवाले भस्म के पट्टों की विशेषताएं : देवता के तत्त्वानुसार मस्तक पर लगाए तिलक का आकार निर्धारित होता है, उदा. मस्तकपर बनाए भस्म के पट्टों में शिवतत्त्व आकर्षित होता है एवं शिव लय से संबंधित देवता होने से शिवतत्त्व आकर्षित करनेवाली सीधी रेखाएं मस्तक पर बनाई जाती हैं । सीधी रेखा शांति एवं स्थिरता दर्शाती है । उसी प्रकार मस्तक के ये तीन पट्टे त्रिगुण, तथा उत्पत्ति, स्थिति एवं लय से संबंधित होते हैं ।
  • ४. भस्म धारण करनेवाले व्यक्तियों की विशेषताएं : तिलक से निर्मित स्पंदन देह में कार्यरत होते हैं । तिलक के आकारानुसार व्यक्ति की प्रकृति तथा साधनामार्ग की पहचान होती है, उदा. भस्म धारण करनेवाले व्यक्तियों की प्रकृति बाह्यतः शांत एवं भीतर से कोपिष्ट (क्रोधी) होती है । साथ ही ये व्यक्ति शिव-उपासक होने से ध्यानमार्गी होते हैं तथा उनमें वैराग्य अधिक होता है ।
  • ५. भस्म में शांति के स्पंदन प्रतीत हुए ।’ – कु. प्रियांका लोटलीकर

१०. भस्म के अन्य उपयोग

अ. ‘भस्म ब्रह्मविद्या की प्राप्ति में भी उपकारक है । – जाबालश्रुति

आ. भस्म के लिए दूसरा शब्द है ‘विभूति’ । मंत्र-तंत्र, जादूटोना इत्यादि अंतर्गत दिशाबंधन अथवा आत्मरक्षण हेतु विभूति का उपयोग करते हैं ।

इ. विभूति को अभिमंत्रित कर, उसे बालकों अथवा रोगियों के कपाल पर लगाते हैं ।

ई. आयुर्वेद में लोहा, सोना, मोती, हीरे जैसे विविध पदार्थों की भस्म का प्रयोग औषधि के रूप में करते हैं । वह अत्यंत गुणकारी है ।’

उ. विभूति अनिष्ट शक्तियों की पीडा से रक्षा करती है । इसलिए प्रभावित स्थानों पर उसे फूंकते हैं तथा पीडित व्यक्ति को भी लगाते हैं ।

संदर्भ : भगवान शिव (भाग २) शिवजी की उपासना का शास्त्रोक्त आधार

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