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धूलिवंदनका महत्त्व

सारणी


 

१. धूलिवंदन

       होली ब्रह्मांडका एक तेजोत्सव है । होलीके दिन ब्रह्मांडमें विविध तेजोमय तरंगोंका भ्रमण बढता है । इसके कारण अनेक रंग आवश्यकताके अनुसार साकार होते हैं । तथा संबंधित घटकके कार्यके लिए पूरक एवं पोषक वातावरणकी निर्मिति करते हैं । इन रंगोंका स्वागत हेतु होलीके दूसरे दिन ‘धूलिवंदन’ का उत्सव मनाया जाता है ।

२. धूलिवंदनका महत्त्व

२ अ. त्रेतायुगके आरंभमें श्रीविष्णुद्वारा अवतार कार्यके आरंभकी स्मृति मनाना

       त्रेतायुगके आरंभमें पृथ्वीपर किए गए पहले यज्ञके दूसरे दिन श्रीविष्णुने यज्ञस्थलकी भूमिको वंदन किया एवं वहांकी मिट्टी दोनों हाथोंमें उठाकर उसे हवामें उडाया अर्थात श्रीविष्णुने विभिन्न तेजोमय रंगोंद्वारा अवतार कार्यका आरंभ किया । उस समय ऋषि-मुनियोंने यज्ञकी राख अर्थात विभूति शरीरपर लगाई । तब उन्हें अनुभव हुआ कि यज्ञकी विभूति पावन होती है । उसमें सभी प्रकारके रोग दूर करनेका सामर्थ्य  होता है । इसकी स्मृतिके लिए धूलिवंदन मनाया जाता है । इसे शिमगा भी कहते हैं ।

२ आ. अग्नितत्त्वका लाभ प्राप्त करना

       होलीके दिन प्रज्वलित की गई होलीमें प्रत्यक्ष अग्निदेवता उपस्थित रहते हैं । उनका तत्त्व दूसरे दिन भी कार्यरत रहता है । इस तत्त्वका लाभ प्राप्त करने हेतु तथा अग्निदेवताके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु होलीके दूसरे दिन अर्थात फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदाको सुबह होलीकी राखकी पूजा की जाती है । उसके उपरांत उस राखको शरीरपर लगाकर स्नान करते हैं । इसे धूलिवंदन कहते है ।

३. धूलिवंदनका कृत्य

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अ. सूर्य उदयके समय होलीके स्थानपर पहुंचे ।

आ. होलीपर, दूध एवं पानी छिडककर उसे शांत करें ।

इ. होलीकी विभूतिको वंदन कर प्रार्थना करें …

    वन्दितासि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शङ्करेण च ।

    अतस्त्वं पाहि नो देवि भूते भूतिप्रदा भव ।।

अर्थ :  हे धूलि, तुम ब्रह्मा-विष्णु-महेशद्वारा वंदित हो, इसलिए भूते देवी, तुम हमें ऐश्वर्य देनेवाली बनो एवं हमारी रक्षा करो ।’

ई. पश्चात् नीचे बैठकर होलीकी विभूतिको अंगूठा तथा अनामिकाकी चुटकीमें लेकर अनामिकासे अपने माथेपर अर्थात आज्ञाचक्रपर लगाएं ।

उ. उसके उपरांत वह विभूति पूरे शरीरपर लगाएं ।

४. धूलिवंदनके दिन मनाए जानेवाले शिव-शिमगाके बारेमें

        ‘शिमगा’ शब्दका अर्थ है शिवजीकी लीला । शिमगा मूलतः शिवरूप होता है । इसीलिए इसे ‘शिव-शिमगा’ भी कहते हैं । किसी भी कार्यको शिवरूपी ज्ञानमय ऊर्जाका बल प्राप्त हुए बिना वह कार्य पूरा नहीं हो सकता । शिमगा मनानेका उद्देश्य है, ईश्वरीय चैतन्यके आधारपर मानवके जीवनकी प्रत्येक कृत्यको तेजोमय ईश्वरीय अधिष्ठान प्राप्त करवाना । कुछ प्रांतोंमें धूलिवंदनके दिन अपने घरमें जन्मे नए शिशुके होलीके पहले त्यौहारपर उसकी रक्षा हेतु विशेष विधि की जाती है । इसे ‘शिव-शिमगा’ के नामसे जानते हैं ।

५. शिव-शिमगा मनानेके लिए आवश्यक सिद्धताएं (तैयारियां)

        शिशुके लिए श्वेत रंगके नये कपडे सिलाकर उसे पहनाएं । एक थालीमें थोडासा गुलाल, शक्करके पदकोंकी माला रखें । ताम्रपात्रमें शिशुके औक्षणके लिए निरांजनमें फूलबाती एवं तेल, अक्षत, सुपारी तथा सोनेकी अंगुठी रखें । बैठनेके लिए पीढा रखें । पीढेके चारों ओर रंगोली बनाए । रंगोलीपर हलदी-कुमकुम चढाएं ।

६. शिशुका शिमगा मनानेका प्रत्यक्ष कृत्य

        शिशुकी माताको शिशुमे गोदमें लेकर पीढेपर बिठाएं । अब शिशुका औक्षण करें । औक्षण करते समय प्रथम शिशुके माथेपर अपने दाहिने हाथकी मध्यमासे कुमकुम लगाएं एवं उसपर अक्षत भी लगाएं । अब ताम्रपात्रमें रखी अंगूठी एवं सुपारीको हाथमें लेकर शिशुके आज्ञा-चक्रके स्थानपर अंगूठी एवं सुपारीका एक साथ स्पर्श करवाएं । अब उसके दाहिने कंधेसे ऊपरकी ओर आज्ञा-चक्रके स्थानसे आगे बाएं कंधेतक आएं । इसी प्रकार विपरीत दिशामें अंगूठी एवं सुपारीको दाहिने कंधेतक ले आएं । अब हाथमें रखी अंगूठी एवं सुपारीका ताम्रपात्रको स्पर्श करें । ऐसा तीन बार करें । अब ताम्रपात्रमें रखे दीपसे शिशुके दाहिने कंधेसे बाएं कंधेतक तथा इसकी विपरीत दिशामें दाहिने कंधेतक आरती घुमाएं । इस प्रकार तीन बार आरती उतारें । इसके उपरांत नीचे अक्षत रखें एवं उसपर औक्षण अर्थात आरतीका ताम्रपात्र रखें । अब शिशुके मस्तकपर गुलाल लगाएं एवं उसके गलेमें शक्करके पदकोंकी माला पहनाएं ।

७. शिव-शिमगा विधिमें

बालकको श्वेत वस्त्र पहनानेका शास्त्राधार

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        होलीके दूसरे दिन ब्रह्मांडकक्षामें तेजकणोंका भ्रमण अधिक होता है । ब्रह्मांडमें विद्यमान तेजतरंगें भी कार्यरत रहती हैं । श्वेत वस्त्रमें इन तेजकणो एवं तेजतरंगोंको आकृष्ट करनेकी अत्यधिक क्षमता होती है । इस दिन बालकको पहनाए गए श्वेत वस्त्रके स्पर्शसे उसके मणिपूर-चक्रकी जागृति होती है । वस्त्रके सर्वसमावेशक श्वेत रंगके कारण बालकको उसकी प्रकृतिके अनुसार ब्रह्मांडमें विद्यमान तेज तरंगोंका आवश्यक लाभ प्राप्त होता है । बालकके मनपर संस्कार अल्प होते हैं । इस अवस्थामें बालक ब्रह्मांडकी चैतन्यमय तरंगोंको तत्काल ग्रहण करता है ।

८. शिव-शिमगा विधिमें बालकको

शक्करके पदकोंकी माला पहनानेका शास्त्राधार

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        बालकके गलेमें लंबाईमें उसके अनाहत-चक्रतक अर्थात हृदयके स्थानतक आनेवाले शक्करके पदकोंकी माला पहनाई जाती है । इस मालाका श्वेत वस्त्रको जब स्पर्श होता है, तब श्वेत वस्त्रमें विद्यमान तेजकणोंसे यह माला आवेशित होती है । शक्करमें आपतत्त्व अत्यधिक रहता है, जिसके माध्यमसे यह माला वायुमंडलमें इन तेजकणोंका प्रभावी प्रक्षेपण करती है । इससे बालकके सर्व ओर सुरक्षाकवच निर्माण होता है । इस प्रकार छोटे शिशुको भी आध्यात्मिक दृष्टिसे संस्कारित करनेका तथा उसकी रक्षाका प्रावधान भी हिंदु धर्म हमें सिखाता है ।

९. शिव-शिमगा विधिमें

बालकको गुलाल लगानेका शास्त्राधार

        शिमगा मनाते समय बालकके आज्ञाचक्रपर गुलाल लगाया जाता है । गुलालसे प्रक्षेपित पृथ्वी एवं आप, इन तत्त्वोंकी तरंगोंके कारण बालकके देहकी सात्त्विक तरंगें ग्रहण करनेकी क्षमता बढती है । साथ ही बालकके आज्ञाचक्रसे प्रक्षेपित शक्तिरूपी चैतन्य उसके पूरे देहमें संक्रमित होता है । इससे उसकी, वायुमंडलमें भ्रमण करनेवाली चैतन्यतरंगें ग्रहण करनेकी क्षमता भी बढती है । इस विधिसे बालक चैतन्यके स्तरपर अधिक संस्कारक्षम बनता है । इस प्रकार शैशव अवस्थामें ही जीवको सूक्ष्म स्तरपर ईश्वरीय चैतन्यके साथ संबंध स्थापित करनेका संस्कार करना हिंदू धर्म हमें सिखाता है । धूलिवंदनके दिन कई लोग रंग भी खेलते हैं; परंतु यह केवल रूढि मात्र है । शास्त्रानुसार पंचमीके दिन ही रंग खेलने का विधान बताया है । यह रूढि प्रलति होनेके दो कारण हैं ।

९ अ. श्रीविष्णुके करस्पर्शसे अर्थात हस्तस्पर्शसे रंगे धूलिकणोंका प्रतीक होना

        प्रथम त्रेतायुगमें पृथ्वीपर किए गए प्रथम यज्ञके दूसरे दिन श्रीविष्णुजीने माथेपर यज्ञकुंडके पासकी मिट्टीका तिलक कियाएवं उसे अंजुलीमें लेकर हवामें उछाला । श्रीविष्णुजीके कर स्पर्शसे उन धूलिकणोंमें गुलालकी छटा आ रही थी । इसीलिए आज भी होलीके दूसरे दिन एक-दूसरेके माथेपर गुलालका टीका लगाया जाता है । साथ ही गुलालको हवामें उडाया जाता है ।

९ आ. अनिष्ट शक्तियोंके निवारण एवं समाप्तिका प्रतीक होना

        होलीके दिन प्रदीप्त हुई अग्निसे वायुमंडलके रज-तम कणोंका विघटन होता है । तथा ब्रह्मांडमें विद्यमान देवताओंका रंगरूपी सगुण तत्त्व कार्यानुरूप विभिन्न स्तरोंपर अवतरित होता है । इसका आनंद एक प्रकारसे रंग उडाकर मनाया जाता है । इस दिन खेला जानेवाला रंग, विजयोत्सवका अर्थात रज-तमके विघटनके कारण अनिष्ट शक्तियोंके निवारणका एवं कार्यकी समाप्तिका प्रतीक है । इसके उपरांत फाल्गुन कृष्ण पंचमीको आता है, विविध रंगोंके साथ मनाया जानेवाला रंगोत्सव !  जो विक्रम संवत् कालगणना अनुसार उत्तर भारतमें चैत्र कृष्ण पंचमीको मनाया जाता है । यह रंगोत्सव अपने साथ ले आता है, आनंद और हर्षोल्लास!

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