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हिन्दू नववर्षारंभ मनाने की पद्धति एवं शास्त्र

धर्मशास्त्र ने बताया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन तेजतत्त्व एवं प्रजापति तरंगें अधिक मात्रा में कार्यरत रहती हैं । सूर्योदय के समय इन तरंगों से प्रक्षेपित चैतन्य अधिक समय तक वातावरण में बना रहता है । यह चैतन्य जीव की कोशिका-कोशिकाओं में संग्रहित होता है और आवश्यकता के अनुसार उपयोग में लाया जाता है । अत: सूर्योदय के उपरांत ५ से १० मिनट में ही ब्रह्म ध्वज को खडाकर उसका पूजन करने से जीवों को ईश्वरीय तरंगो का अत्याधिक लाभ मिलता है ।

देखिये : ‘हिन्दू नववर्षारंभ मनाने की पद्धति’

१. नववर्षदिन मनाने हेतु पूर्वायोजन करना

किसी भी शुभकार्यके समय, धार्मिक विधि करना हो, तो प्रत्येक उत्सव, त्यौहार एवं व्रतके दिन घर-आंगनकी स्वच्छता करना, रंग-रोगन करना, घरके प्रवेशद्वारको सजाना, बंदनवार लगाना, प्रवेशद्वारकी चौखटपर स्वस्तिकादि शुभचिह्नकी रचना करना, आंगनमें रंगोली बनाना आदि कृत्य सनातन हिंदु धर्मके अनुसार अत्यावश्यक हैं । इन कृत्योंद्वारा घरके सर्व ओरके वातावरणको सात्त्विक एवं चैतन्यमय बनाया जाता है, जिससे वह विशेष पर्व मनानेसे आध्यात्मिक स्तरपर सभीको उचित लाभ मिलता है । सनातन हिंदु धर्मशास्त्रमें संवत्सरारंभ, वसंतोत्सवका प्रारंभ दिन, दीपावलीके ३ दिन अर्थात नरकचतुर्दशी, लक्ष्मीपूजनका दिन एवं बलिप्रतिपदाका दिन, इन पांच दिनोंपर विशेष रूपसे साभ्यंगस्नान अर्थात अभ्यंगस्नान करनेका महत्त्व बताया है ।

२. अभ्यंगस्नान एवं उसके लाभ

अभ्यंगस्नान अर्थात शरीरको तेल लगाकर, अंगमर्दन कर, उसे त्वचामें सोखने देकर तदुपरांत गुनगुने जलसे स्नान करना । अभ्यंगस्नानके कारण रज-तम गुण एक लक्षांश कम होता है एवं सत्त्वगुण उसी मात्रामें बढता है । नित्यके स्नानका प्रभाव तीन घंटोंतक रहता है, जबकि अभ्यंगस्नानका प्रभाव चारसे पांच घंटोंतक रहता है । त्वचामें सदैव स्निग्धता बनाए रखनेके लिए तेल लगाना चाहिए । तेल लगाकर स्नान करनेसे त्वचा एवं केशमें जितनी आवश्यक है, उतनी ही चिकनाहट बनी रहती है । इसलिए स्नानसे पूर्व तेल लगाना आवश्यक है । स्नानोपरांत तेल लगाना उचित नहीं । गुनगुना जल मंगलकारी एवं शरीरके लिए सुखदायक होता है । इसलिए गुनगुने जलसे स्नान बताया गया है । अभ्यंगस्नान करते समय देशकालकथन किया जाता है ।

३. देशकालकथन करनेका महत्त्व

देशकालकथन करते समय ब्रह्मदेवके जन्मसे लेकर अबतक ब्रह्मदेवके कितने वर्ष हुए, किस वर्षका कौनसा एवं कितना मन्वंतर चल रहा है, इस मन्वंतरके कितने महायुग तथा उस महायुगका कौनसा उपयुग चल रहा है, इन सबका उल्लेख रहता है । इस प्रकार देशकालकथन करनेसे इसके पूर्व कितना दीर्घ काल बीत चुका है एवं शेष काल भी कितना दीर्घ है, यह बोध होता है । इससे विश्वके प्रचंड कालका एवं उसकी तुलनामें अपनी लघुताका हमें भान होता है । तथा हमारा अहं नष्ट होनेमें सहायता मिलती है । वर्षप्रतिपदाके दिन संवत्सरपूजन करनेका शास्त्र है ।

४. संवत्सर पूजन

वर्षप्रतिपदाके दिन प्रथम नित्यकर्म देवपूजा करते हैं । उसके उपरांत महाशांति करते हैं । शांतिके प्रारंभमें विश्वकी निर्मिति करनेवाले ब्रह्मदेवकी पूजा की जाती है । पूजामें उन्हें तेज सुगंधके पत्तोंवाला दौना चढाते हैं । दौना शीतलता प्रदान करता है । चंदन एवं दौनेमें शीतलता प्रदान करनेकी समान क्षमता होती है; परंतु चंदन जबतक नम अर्थात् गीला हो, तबतकही शीतलता दे सकता है, जबकि दौना दिनभर शीतलता प्रदान करता है । पूजाके उपरांत होमहवन तथा यथासंभव ब्राह्मणोंको भोजन, दान एवं दक्षिणा दी जाती है । इसके उपरांत अनंत रूपोंमें अवतरित होनेवाले भगवान श्रीविष्णुकी पूजा करते हैं । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको दक्षिणा देते हैं । संभव हो, तो ब्राह्मणको ऐतिहासिक अथवा पौराणिक ग्रंथोंका दान देते हैं । संवत्सरारंभपर देवताके आशीर्वाद प्राप्त होने हेतु एवं ब्रह्मांडसे प्रक्षेपित तरंगें ग्रहण होने हेतु प्रार्थना करनेका विशेष महत्त्व है ।  ‘हे ईश्वर, आज आपसे प्रक्षेपित शुभाशीर्वाद एवं ब्रह्मांडसे प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें मैं अधिकाधिक ग्रहण कर पाऊं । आप ही मुझे इन सात्त्विक तरंगोंको ग्रहण करना सिखाएं, यही आपसे प्रार्थना है ।’

अ. चैत्र शुक्ल प्रतिपदाके दिन संवत्सरपूजन करनेसे होनेवाले लाभ

  • सर्व पापोंका नाश होता है,
  • आयुमें वृद्धि होती है,
  • विवाहित स्त्रियोंके सौभाग्यकी वृद्धि होती है,
  • धन-धान्यकी समृद्धि होती है,
  • शांतिकी अनुभूति होती है ।

इस प्रकार ब्रह्मदेवके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए, सभीकी मंगलकामना एवं सुरक्षाके लिए संवत्सरपूजन किया जाता है । इस तिथिको जो दिन होता है, उस दिनके देवताका भी पूजन करते हैं ।

आ. चैत्र शुक्ल प्रतिपदाको जो दिन होता है, उस दिनके देवताका भी पूजन करते हैं ।

  • सोमवार, सोम का अर्थ है, चंद्र । इनके देवता हैं, शंकर
  • मंगलवारके देवी-देवता हैं, पार्वती, लक्ष्मी, श्री गणपति एवं हनुमान
  • बुधवार के पांडुरंग
  • गुरुवारके दत्तात्रेय देवता
  • शुक्रवारके पार्वती एवं लक्ष्मी
  • शनिवारके हनुमान
  • रविवारके रवि अर्थात सूर्य

संवत्सरपूजनके उपरांत गुडी खडी करते हैं । धर्मशास्त्रमें इसे ‘ब्रह्मध्वज’ कहा गया है । कुछ लोग इसे ‘इंद्रध्वज’ भी कहते हैं ।

५. संवत्सरारंभपर ध्वजा खडी करनेका शास्त्र

देवासुर संग्राममें श्रीविष्णुने देवसैनिकोंको युद्धके प्रत्येक स्तरपर लाभान्वित करनेके लिए युद्धमें जानेसे पूर्व, युद्धके समय एवं युद्धसमाप्तिपर विविध प्रकारकी ध्वजा ले जानेके लिए बताया । देवताओंके विजयी होनेपर देवसैनिकोंने सोनेकी लाठीपर रेशमी वस्त्र लगाकर उसपर सोनेका कलश रखा । इस प्रकार ध्वजा खडी करनेसे ध्वजाद्वारा संपूर्ण वातावरणमें चैतन्य प्रक्षेपित होता है । इस चैतन्यका उस वातावरणमें विद्यमान जीवोंपर भी प्रभाव पडता है । स्वर्गलोकका वातावरण सात्त्विक एवं चैतन्यमय होता है । इस कारण धर्मध्वजाको केवल वस्त्र लगानेसेही धर्मध्वजामें उच्च लोकोंसे प्रक्षेपित तरंगें आकृष्ट होती हैं । इनका देवताओंको लाभ होता है । धर्मध्वजामें विद्यमान देवतातत्त्वका सम्मान करनेके लिए कभी-कभी उसे पुष्पमाला अर्पण करते हैं । पृथ्वीका वातावरण रज-तमात्मक होता है । साथही पृथ्वीवासियोंमें ईश्वरके प्रति भाव भी अल्प होता है । उन्हें धर्मध्वजाका लाभ मिले, इसलिए धर्मध्वजाको नीमके पत्ते एवं शक्करके पदकोंकी माला लगाई जाती हैं । स्वर्गलोककी धर्मध्वजामें पृथ्वीकी गुडीकी अपेक्षा २० प्रतिशत अधिक मात्रामें चैतन्य ग्रहण होता है । उसके प्रक्षेपणकी मात्रा भी १० से १५ प्रतिशत अधिक होती है ।

६. ध्वजारोपण अर्थात् ब्रह्मध्वज खडा करने की एक पद्धति

अ. ब्रह्मध्वज अर्थात गुडी खडी करने के लिए आवश्यक सामग्री

हरा गीला १० फुट से अधिक लंबाई का बांस, तांबे का कलश, पीले रंग की सोने के तार की किनारवाला अथवा रेशमी वस्त्र, कुछ स्थानों पर लाल वस्त्र का भी प्रयोग किया जाता है, नीम के कोमल पत्तों की मंजरी सहित अर्थात पुष्पों(फूलों) सहित छोटी टहनी, शक्कर के पदकों की माला एवं पुष्पमाला (फूलों का हार), ध्वजा खडी करने के लिए पीढा ।

आ. गुडी सजाने की पद्धति

१. प्रथम बांस को पानी से धोकर सूखे वस्त्र से पोंछ लें ।

२. पीले वस्त्र की चुन्नट बना लें ।

३. अब उसे बांस की चोटी पर बांध लें ।

४. उस पर नीम की टहनी बांध लें ।

५. तदुपरांत उस पर शक्कर के पदकों की माला बांध लें ।

६. फिर पुष्पमाला (फूलों का हार) चढाएं ।

७. कलश पर कुमकुम की पांच रेखाएं प्रकार बनाएं ।

८. इस कलश को बांस की चोटी पर उलटा रखें ।

९. सजी हुई गुडी को पीढे पर खडी करें एवं आधार के लिए डोरी से बांधें ।

इ. ब्रह्मध्वज को सजाने के उपरांत उसके पूजन के लिए आवश्यक सामग्री

नित्य पूजा की सामग्री, नववर्ष का पंचांग, नीम के पुष्प (फूल) एवं पत्तो से बना नैवेद्य । यह नैवेद्य बनाने के लिए नीम के पुष्प (फूल) एवं १०-१२ कोमल पत्ते, ४ चम्मच भिगोई हुई चने की दाल, १ चम्मच जीरा, १ चम्मच मधु (शहद) तथा स्वाद के लिए एक चुटकी भर हिंग लें । इस सामग्री को एक साथ मिला लें एवं इस मिश्रण को पीसें । यह बना ध्वज को समर्पित करने के लिए नैवेद्य । वर्षारंभ के दिन ब्रह्मध्वजा को निवेदित करने के लिए यह विशेष पदार्थ बनाया जाता है एवं उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है । कई स्थानों पर इसमें काली मिर्च, नमक एवं अजवाईन भी मिलाते हैं । नीम के पत्तों से बने प्रसाद की सामग्री में इस दिन जीवों के लिए आवश्यक ईश्वरीय तत्त्वों को आकृष्ट करने की क्षमता अधिक होती है ।

७. नीम के पत्तों का प्रसाद एवं उनकी सूक्ष्म स्तरीय प्रक्रिया

यह समझने के लिए एक-एक प्रकार के तरंगों की प्रक्रिया पूर्णरूप से दर्शाई गई है । इस प्रक्रिया को अब हम समझ लेते हैं . . .

अ. नीम के पत्तों का प्रसाद

१. प्रसाद में ईश्वर से शक्ति का प्रवाह आकृष्ट होता है ।

२. उसमें कार्यरत मारक शक्ति का वलय निर्माण होता है ।

३. तेजतत्त्वात्मक शक्ति के कण भी उसमें निर्माण होते हैं ।

४. तेजतत्त्वात्मक तारक-मारक शक्ति के कणों का वातावरण में संचार होता है ।

५. प्रसाद में ईश्वरीय चैतन्य का प्रवाह आकृष्ट होता है ।

६. उसका वलय निर्माण होता है ।

७. इस चैतन्य के वलयद्वारा चैतन्य के प्रवाहों का वातावरण में प्रक्षेपण होता है ।

८. ईश्वर से आनंद का प्रवाह प्रसाद में आकृष्ट होता है ।

९. इस आनंद का प्रसाद में वलय निर्माण होता है ।

यह प्रसाद ग्रहण करने से व्यक्ति के देह में आनंद के स्पंदनों का संचार होता है ।

८. प्रत्यक्ष ध्वजपूजनकी कृति

१. सूर्योदय के ५-१० मि. उपरांत ध्वजपूजन आरंभ करने के लिए पूजक पूजास्थल पर रखे पीढे पर बैठे ।

२. प्रथम (वह) आचमन करे ।

३. उपरांत प्राणायाम करे ।

४. अब देशकालकथन करे ।

५. उसके उपरांत ध्वजापूजन के लिए संकल्प करे ।

अस्मिन प्राप्ते, नूतन संवत्सरे, अस्मत गृहे, अब्दांतः नित्य मंगल अवाप्तये ध्वजारोपण पूर्वकं पूजनं तथा आरोग्य अवाप्तये निंबपत्र भक्षणं च करिष्ये ।

अब गणपतिपूजन करें ।

६. तदुपरांत कलश, घंटा एवं दीपपूजन करें ।

७. तुलसी के पत्ते से संभार प्रोक्षण करें; अर्थात पूजा सामग्री, आस-पास की जगह तथा स्वयंपर तुलसीपत्र से जल छिडकें ।

८. अब ‘ॐ ब्रह्मध्वजाय नमः ।’ इस मंत्र का उच्चारण कर ध्वजापूजन आरंभ करें ।

९. प्रथम चंदन चढाएं ।

१०. तदुपरांत हलदी कुमकुम चढाएं ।

११. अक्षत समर्पित करें।

१२. पुष्प चढाएं ।

१३. इसके उपरांत उदबत्ती दिखाएं ।

१४. तदुपरांत दीप दिखाएं ।

१५. नैवेद्य निवेदित करें ।

१६. अब इस प्रकार प्रार्थना करें ।

ब्रह्मध्वज नमस्तेस्तु सर्वाभीष्ट फलप्रद ।

प्राप्तेस्मिन् वत्सरे नित्यं मद्गृहे मंगलं कुरू ।।

पूजन के उपरांत परिजनों के साथ प्रार्थना करें ; ‘हे ब्रह्मदेव, हे विष्णु, इस ध्वज के माध्यम से वातावरण में विद्यमान प्रजापति, सूर्य एवं सात्त्विक तरंगें मुझसे ग्रहण हों । उनसे मिलनेवाली शक्ति तथा चैतन्य निरंतर बना रहे । इस शक्ति का उपयोग मुझसे अपनी साधना हेतु हो, यही आपके चरणों में प्रार्थना है !

१७. प्रार्थना करने के उपरांत ध्वजा को चढाया गया नीम के पत्तों का नैवेद्य वहां उपस्थित सभी में प्रसाद के रूप में बांटें एवं स्वयं ग्रहण करें ।

९. कलश पर कुमकुम की रेखाएं खींचनेवाले पर होनेवाला परिणाम

         कलश पर कुंकम की पाच रेखाए खींचने का कृत्य भावपूर्ण और सेवाभावी वृत्ती से करने के कारण व्यक्ती में शरणागत भाव का वलय निर्माण होता है । व्यक्ति के ओर शक्ति का प्रवाह आकृष्ट होता है । उसके अनाहत चक्र के स्थान पर शक्ति का वलय निर्माण होता है । उसके हाथों द्वारा शक्ति की तरंगे कलश में आती है । ईश्वर से चैतन्य का प्रवाह व्यक्ति के ओर आकृष्ट होता है । उसके अनाहतचक्र के स्थान पर चैतन्य का वलय निर्माण होता है ।

१०. कलश पर होनेवाला परिणाम

         ईश्वर से शक्ति का प्रवाह कलश की ओर आकृष्ट होता है । भावपूर्ण रिती से कलश को कुंकूम लगाने से कुंकूम के कारण कलश पर मारक शक्ती की तरंगे उपर से निचे की ओर प्रवाहित होती हैं । कलश के भीतर की रिक्ती में शक्ति के वलय निर्माण होते है । इन वलयोंद्वारा शक्ति के प्रवाहों का वातावरण में प्रक्षेपण होता है । कलश में शक्ति के कण घूमते रहते हैं । ध्वजपर कलश उलटा रखने से कलश के मुखद्वारा शक्ति का प्रवाह ध्वज के वातावरण में भी प्रक्षेपित होता है । ध्वज सजाने के उपरांत उसे पिढे पर खडा किया जाता है ।

११. ध्वज खडा करने के परिणाम

         यहां एक बात का ध्यान रहे । ब्रह्मध्वज में शक्ति एवं चैतन्य की निर्गुण तत्त्व की तरंगे एक ही समय पर आकृष्ट होती है । परंतु उनकी आगे की प्रकिया समझने के लिए प्रत्येक तरंगो के लिए जानकारी पूर्ण रूप से दर्शाई गई है । व्यक्तिद्वारा भावपूर्ण रिती से तथा सेवाभाव के वृत्ती से ब्रह्मध्वज को खडा करने से  उनके अनाहत चक्र के स्थान पर भाव का वलय निर्माण होता है । सेवाभाव के कारण व्यक्ति का ईश्वर से संधान साध्य होता है । ईश्वर से चैतन्य का आशीर्वादात्मक प्रवाह वहां उपस्थित व्याक्तियों की ओर आकृष्ट होता है । उनके अनाहत चक्र के स्थान पर चैतन्य का वलय निर्माण होता है । ब्रह्मांडमंडल से तेजतत्त्वामक शक्ति का प्रवाह ध्वज में आकृष्ट होता है । ब्रह्मध्वज में प्रयुक्त कलश में शक्ति का वलय निर्माण होता है । वस्त्र में तारक शक्ति की तरंगे प्रसारित होती है । बास में भी शक्ति का प्रवाह आकृष्ट होता है । मारक शक्ति के कण संचारित होते है । ईश्वरीय चैतन्य का प्रवाह कलश में आकृष्ट होता है । इस कलश में चैतन्य का वलय निर्माण होता है । ब्रह्मध्वज में प्रयुक्त बास में  चैतन्य का प्रवाह आकृष्ट होता है ।  शक्ती स्वरूप चैतन्य के कण ब्रह्मांड से भूमी की ओर संचारित होते हैं । परमेश्वरीय निर्गुण तत्त्व कलश में आकृष्ट होकर उसका एक  स्थिर वलय निर्माण होता है । अनिष्ट शक्तियोंद्वारा ब्रह्मध्वज पर आक्रमण करने का प्रयत्न होता है ।  पूजाविधी के उपरांत प्रक्षेपित शक्ति के कारण ये अनिष्ट शक्तियां दूर हटती है ।  इस प्रकार भावपूर्ण रिती से ध्वज खडा करते ही उसमें सूक्ष्म स्तरपर पर गतिविधियां आरंभ होती हैं । ईश्वरीय तरंगे उसकी ओर आकृष्ट होने लगती हैं ।

(संदर्भ – सनातनका ग्रंथ – त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)

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