१. रात्रिकाल में पालन करने योग्य आचार
अ. रात्रिकाल में दर्पण न देखें !
‘रात का समय रज-तमात्मक वायुसंचार हेतु पूरक होता है । अतः वह सूक्ष्म रज-तमात्मक गतिविधियों एवं अनिष्ट शक्तियों की सजगता से संबंधित होता है । दर्पण में दिखाई देनेवाली देह का प्रतिबिंब देह से प्रक्षेपित जीव की सूक्ष्म-तरंगों से अधिक संबंधित होता है, इसलिए इस प्रतिबिंब पर वातावरण में स्थित प्राबल्यदर्शक अनिष्ट शक्तियां तुरंत ही आक्रमण कर सकती हैं । इसके विपरीत सवेरे वायुमंडल सात्त्विक तरंगों से युक्त होता है । अतः दर्पण में दिखाई देनेवाले सूक्ष्म-प्रतिबिंब पर, वायुमंडल में स्थित सात्त्विक तरंगों की सहायता से आध्यात्मिक उपाय होते हैं एवं स्थूलदेह अपनेआप ही हलकी हो जाती है । इसलिए प्रातः दर्पण में प्रतिबिंब देखना लाभदायक है, तथापि वही प्रतिबिंब रज-तमात्मक गतिविधियों के लिए पूरक रात्रिकाल में देखना कष्टदायक हो सकता है ।’
आ. रात के समय हो हल्ला न मचाएं अथवा सीटी न बजाएं !
‘हो हल्ला मचाने’ को मांत्रिक की भाषा में ‘चित्कार’ कहते हैं । इस प्रकार की ध्वनि उत्पन्न कर मांत्रिक कनिष्ठ स्तर की दास्य अनिष्ट शक्तियों को बुलाते हैं । अघोरी विधि द्वारा सीटी समान ध्वनि उत्पन्न कर कनिष्ठ स्तर की अनिष्ट शक्तियों की शक्ति जगाते हैं एवं उन्हें अनिष्ट कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं । इसलिए ‘हो हल्ला मचाना’ तामसिकता का अर्थात अनिष्ट शक्तियों का आवाहन करने का, जब कि ‘सीटी बजाना’ रजोगुण का, अर्थात अनिष्ट शक्तियों में विद्यमान कार्यशक्ति को जगाने का लक्षण है । अतः रात्रि के रज-तमोगुणी काल में हो हल्ला न मचाएं अथवा सीटी न बजाएं ।’
इ. मद्यपान कर नाच-गाने से बचें !
‘रात के समय मनोरंजन, रुचि अथवा समय बिताने के लिए मद्यपान कर डान्सबार में (मद्य पीकर संगीत की ताल पर नृत्य करने का स्थान) नाचने और गाना गाने से अल्पावधि में तमोगुण अत्यधिक बढता है । इससे व्यक्ति को अनिष्ट शक्तियों का तीव्र कष्ट होने की आशंका रहती है तथा व्यक्ति में बढे हुए तमोगुण का परिणाम उसके आस-पास के एवं घर के वातावरण पर होता है । परिणामस्वरूप वातावरण भी दूषित हो जाता है ।’
२. सायंकाल में पालन करने योग्य आचार
अ. संधिकाल की परिभाषा
‘प्रातः सूर्योदय के पूर्व और सायंकाल सूर्यास्त के उपरांत ४८ मिनटों के (दो घटिकाओं के) काल को ‘संधिकाल’ कहते हैं । संधिकाल का पर्यायवाची शब्द ‘पर्वकाल’ है ।
आ. संधिकाल में आचार पालन का महत्त्व
संधिकाल अनिष्ट शक्तियों के आगमन का काल है । उनसे रक्षण होने के लिए धर्म ने इस काल में आचार पालन को महत्त्व दिया है । पर्वकाल में कोई भी हिंसात्मक कृत्य नहीं करते ।
३. सायंकाल घर में धूप दिखाएं
अध्यात्मशास्त्र : ‘इस आचार द्वारा वास्तु के साथ ही कपडों की भी शुद्धि होने में सहायता होती है ।’
४. सायंकाल देवता के समक्ष दीप जलाकर उसे नमस्कार करें
सायंकाल संध्या करें तथा देवता के समक्ष दीप जलाएं । इसी समय आंगन में तुलसी के पास भी दीप जलाएं । देवता के सामने २४ घंटे दीप जलाए रखना चाहिए । सायंकाल दीपक की बाती पर आई कालिख निकालें । आजकल अधिकांश लोगों के घरमें २४ घंटे दीप नहीं जलता है । इसलिए वे सायंकाल होने पर देवता के समक्ष दीप जलाएं ।
सांझ के समय घर में तथा तुलसी के पास दीप जलाने से घर के सर्व ओर देवताओं की सात्त्विक तरंगों का सुरक्षा-कवच निर्माण होना; उस समय वातावरण में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों का कष्ट न हो, इस हेतु घर पर ही रहना : ‘सांझ के समय, अर्थात दीप जलाने के समय देवता एवं तुलसी के समीप दीप जलाने से घर के सर्व ओर देवताओं की सात्त्विक तरंगों का सुरक्षा-कवच निर्माण होता है । वातावरण में अनिष्ट शक्तियों के संचार से प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगों से घर की तथा व्यक्तियों की इस कवच से रक्षा होती है । इसलिए यथासंभव दीप जलाने के समय से पूर्व घर लौटें अथवा दीप जलाने के उपरांत घर से बाहर न निकलें । अधिकांश लोगों को सांझ के समय अनिष्ट शक्तियों की बाधा सर्वाधिक होती है । अघोरी विद्या के उपासक सांझ के समय वातावरण की परिधि में प्रविष्ट अनिष्ट शक्तियों को अपने वश में कर उनसे अनिष्ट कृत्य करवाते हैं । इसलिए सांझ के समय अधिक मात्रा में दुर्घटनाएं एवं हत्याएं होती हैं अथवा बलात्कार के कृत्य होते हैं । इस काल को ‘साई सांझ’ अर्थात ‘कष्टदायक अथवा विनाश का समय’ कहते हैं ।’
५. देवता के पास दीप जलाने के उपरांत श्लोक बोलें ।
अ. श्लोक
शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यं धनसंपदा ।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।।
अर्थ : शुभ एवं कल्याणकारी, स्वास्थ्य एवं धनसंपदा प्रदान करनेवाली तथा शत्रुबुद्धि का नाश करनेवाली, हे दीपज्योति, मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं ।
दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः ।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।।
अर्थ : दीप का प्रकाश परब्रह्म स्वरूप है । दीप की ज्योति जगत् का दुख दूर करनेवाला परमेश्वर है । दीप मेरे पाप दूर करे । हे दीपज्योति, आपको नमस्कार करता हूं ।
आ. श्लोकपाठ के लाभ
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‘शुभं करोति कल्याणम् …’ जैसे श्लोक बोलने से दीप की स्तुति द्वारा अनिष्ट शक्तियों को निरस्त करने का मारक कार्य साध्य किया जाता है ।’
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‘स्तोत्र पाठ द्वारा निर्मित सात्त्विक स्पंदनों से घर की शुद्धि होती है । इसलिए अनिष्ट शक्तियों की पीडा भी न्यून होती है ।
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दीप जलाने के उपरांत स्तोत्र पाठ करने से बच्चों की स्मरण शक्ति बढती है, वाणी शुद्ध होती है एवं उच्चारण भी स्पष्ट होने में सहायता मिलती है ।’
६. सायंकाल के संधिकाल में बताई गई निषिद्ध बातें
संधिकाल में अनिष्ट शक्तियां प्रबल होने के कारण इस काल में निम्नलिखित बातें निषिद्ध बताई हैं ।
१. सोना, खाना-पीना एवं भोजन करना
२. शुभ कार्य का प्रारंभ
३. वेदमंत्रों का पाठ
४. दूसरे को श्वेत वस्तु देना
५. धन का लेन-देन
६. अश्रुमोचन (रोना)
७. यात्रा के लिए निकलना
८. शपथ लेना; गालियां देना; झगडे करना तथा अभद्र एवं असत्य बोलना
९. गर्भवती स्त्री यह न करे –
अ. चौखट पर खडे रहना : इससे गर्भ को हानि होती है ।
आ. सायंकाल घर लौटनेवाले प्राणियों को देखना : भूत-पिशाच प्राणियों के पैरों में प्रवेश कर घर में घुसने का प्रयत्न करते हैं । इसलिए सायंकाल घर लौटते हुए प्राणियों को न देखें ।
१०. अग्निहोत्रियों के लिए : अग्निहोत्री संधिकाल के पूर्व ही अग्नि प्रज्वलित करते हैं; परंतु संधिकाल बीतने के उपरांत होम करते हैं ।
११. यथासंभव गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों के तट पर न बैठें
यथासंभव संध्या समय गंगा के अतिरिक्त अन्य नदियों के किनारे न बैठने का अध्यात्मशास्त्रीय आधार : ‘गंगा नदी को ‘गंगोत्री’ (सात्त्विक तरंगों का शिवरूपी स्रोत प्रदान करनेवाली)’ भी कहते हैं । गंगा के जल से प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगों के कारण गंगातट का वायुमंडल शुद्ध एवं चैतन्यमय बना रहता है । इसलिए इस वातावरण में अनिष्ट शक्तियों द्वारा पीडा होने की आशंका अत्यल्प होती है । इसके विपरीत, अन्य नदियों के तट पर सात्त्विकता अपेक्षाकृत न्यून होती है । इसलिए नदी के किनारे बैठे जीव को अनिष्ट शक्तियों के संचार के कारण कष्ट होने की आशंका अधिक होती है । नदी के किनारे विचरनेवाली कनिष्ठ स्तर की अनिष्ट शक्तियों में पृथ्वी एवं आपतत्त्व प्रबल होने से, ये शक्तियां पृथ्वी एवं आपतत्त्वों से बनी मानवीय देह के साथ अल्पावधि में एकरूप हो सकती हैं । इसलिए यथासंभव संध्यासमय नदी के तट पर न बैठें एवं नदी के तट पर घूमने से बचें ।’
संदर्भपुस्तक : सनातनका सात्विकग्रन्थ ‘आदर्श दिनचर्या (भाग १) स्नानपूर्व आचार एवं उनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार‘