स्वमाता, भूमाता (राष्ट्र) तथा गोमाता को संकटमुक्त करने की प्रतिज्ञा कर, उसे सफल बनाने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहें !
‘तीनों लोकों का स्वामी मां बिना भिखारी’, ‘जिसके हाथों में पालना डोर, वही करे जग का उद्धार’, कुछ ऐसे सुवचनों से मां, अर्थात मातृदेवता की महत्ता का गायन हुआ है । हमारी भारतीय संस्कृति में, ‘मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव ।’, अर्थात माता, पिता एवं गुरु को देवता समान माना गया है । इसमें भी मां को प्रथम स्थानपर रखा गया है । एक काव्यपंक्ति में मां की महत्ता का वर्णन इस प्रकार किया गया है, ‘प्रेमस्वरूप मां, वात्सल्यसिंधु मां, बुलाऊं अब तुझे किस नाम से ।’
१. मां की महत्ता
१ अ. आध्यात्मिक संस्कारों से बालक को सुसंस्कारित एवं चारित्र्यसंपन्न बनाकर ईश्वरतक पहुंचानेवाली मां !
कुछ संतों ने, विशेषतः सिंधुदुर्ग जनपद के वराड, मालवण निवासी संत प.पू. परूलेकर महाराज ने मां के विषय में ऐसा भी कहा है कि ‘आ’ का अर्थ है, आकार एवं ‘ई’ का अर्थ है, ईश्वर । अर्थात, जो जीवन को सार्थक आकार देकर उसे ईश्वरतक ले जाती है, वह आई, अर्थात ‘मां’ (आर्इ) है । जो बालक को अनेक आध्यात्मिक संस्कारों से सुसंस्कारित कर, उसे चारित्र्यसंपन्न बनाकर तथा उससे साधना करवाकर गुरु, अर्थात सगुण ईश्वरतक पहुंचाती है, वही खरे अर्थों में ‘मां’ कहलाने योग्य है ।
मां की महत्ता में शंकराचार्य ने कहा है,
‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।’
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अर्थ : एक बार कुपुत्र का जन्म संभव है; किन्तु कोई मां कुमाता नहीं हो सकती ।
१ आ. लडका बाल्यावस्था से मां के साथ अधिक समय रहता है । इसलिए उसके चरित्र-निर्माण का दायित्व पिता से अधिक मां पर
छत्रपति शिवाजी को बनाने में जीजा मां का योगदान सर्वाधिक था, यह सब जानते हैं । माणगांव, जनपद सिंधुदुर्ग निवासी दत्तात्रय भगवान के अवतार संत प.पू. वासुदेवानंद सरस्वती टेंब्ये स्वामी महाराज भी परम मातृभक्त थे । लडके का चरित्र-निर्माण कर उसके व्यक्तित्त्व का विकास करने का दायित्व स्वाभाविकरूप से पिता से अधिक मां पर होता है । लडका समझदार होने तक मां के साथ अधिक रहता है ।
१ इ. मां के प्रीति की तुलना केवल परमेश्वर एवं गुरु की प्रीति से संभव
मां, माता, जननी ये समानार्थी शब्द हैं । हम गुरुमां, गुरुमाऊली, ज्ञानेश्वरमाऊली, विठूमाऊली, असे शब्द पढते और सुनते हैं । उस मांका प्रेम ईश्वरतुल्य, गुरुतुल्य होती है अथवा ईश्वर का एवं गुरु का प्रेम मांके समान होता है । (पुनरावृत्ति दोष – मां के प्रीति की, वात्सल्य की तुलना केवल परमेश्वर एवं गुरु के प्रीति से की जा सकती है ।)
२. मातृदिन मनाने तक सीमित न हो, मातृभक्ति स्थायी होना आवश्यक !
मातृदिन मनाने के उपलक्ष्य में एक बात अवश्य कहना चाहता हूं, वह यह कि आजकल विविध नाम के दिन मनाने की प्रथा चल पडी है । मातृदिन मनाने का अर्थ केवल इस दिन मां की महत्ता का बखान करना तथा उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने तक सीमित न हो, मातृभक्ति का भाव हम में स्थायी होना चाहिए ।
३. समर्थ हिंदु राष्ट्र की स्थापना हेतु धर्मनिष्ठ एवं राष्ट्रनिष्ठ माता एवं पुत्र आवश्यक
३ अ. राष्ट्र एव धर्म की दशा दयनीय, भयानक एवं लज्जाजनक होने का मुख्य कारण है, मां शब्द के अर्थानुसार आचरण करनेवाली स्त्रियों का अभाव !
दुर्भाग्य से आजकल, ‘मां’, इस शब्द के लिए पात्र महिलाओं की संख्या नगण्य है । इसीलिए, छत्रपति शिवाजी महाराज तथा स्वामी विवेकानंद समान सुपुत्रों की संख्या नगण्य है । वर्तमान में, राष्ट्र तथा धर्म की स्थिति अत्यंत दयनीय, भयावह एवं लज्जाजनक हो गयी है । इसके कुछ प्रमुख कारणों में एक है, ‘मां’, इस शब्द के लिए पात्र स्त्रियों का अभाव तथा जो स्त्रियां मां शब्द के लिए पात्र हैं, उन्हें उनका सुपुत्र (कुपुत्र) वृद्धाश्रम में रखता है ।
३ आ. विनाश के कगारपर खडे राष्ट्र एवं धर्म को संकटों से मुक्त करना, प्रत्येक सुपुत्र का कर्तव्य !
आज स्वमाता, भूमाता (राष्ट्र) एवं गोमाता संकटों में हैं । इन्हें संकटमुक्त करना, प्रत्येक सुपुत्र का कर्तव्य है । आज मातृदिन के उपलक्ष्य में प्रत्येक सुपुत्र को प्रतिज्ञा कर, उसे साकार करना आवश्यक है । मातृदिनपर साररूप में इतना ही कहा जा सकता है कि आज विनाश के कगारपर खडे राष्ट्र एवं धर्म को बचाने के लिए, अर्थात समर्थ हिंदु राष्ट्र की स्थापन हेतु धर्मनिष्ठ एवं राष्ट्रनिष्ठ अनेक माताएं एवं अनेक पुत्रों की आवश्यकता है ।
४. प्रत्येक स्त्री का धर्मकार्य में सम्मिलित होना काल की आवश्यकता
भगवान श्रीकृष्ण के संकल्प से सामर्थ्यवान हिंदु राष्ट्र बननेवाला है । किन्तु, इसके लिए समस्त हिन्दू माताओं, बहनों एवं कन्याओं को अपने-अपने स्तरपर साधना के रूप में इस धर्मकार्य में सम्मिलित होना काल की आवश्यकता है ।
॥ जयतु जयतु हिन्दुराष्ट्रम् ॥
– श्री. दत्तात्रय रघुनाथ पटवर्धन, कुडाल, सिंधुदुर्ग. (६.५.२०१४)