राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज आधुनिक युग के महान संत थे । उनके गुरु का नाम अडकोजी महाराज था । उनका विशेष रूप से संचार विदर्भ में था । वे महाराष्ट्र में ही नहीं, पूरे देश में भ्रमण कर आध्यात्मिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकात्मता का प्रबोधन करते थे । इतना ही नहीं उन्होंने जापान जैसे देश में जाकर सबको विश्वबंधुत्व का संदेश दिया ।
उनकी लगन एवं विचारप्रणाली थी कि भारत ग्रामवासियों का देश है, यह ध्यान में रखकर ग्रामविकास होनेपर ही राष्ट्र का विकास होगा, । समाज के सभी घटकों में स्थित लोगों का उद्धार कैसे होगा, इसकी उन्हें सदैव लगन रहती थी । ग्रामोन्नति एवं ग्रामकल्याण ही उनकी विचारप्रणाली का केंद्रबिंदु था । भारत के ग्रामवासियों की स्थिति की उन्हें पूर्ण रूप से कल्पना थी । इसी कारण उन्होंने ग्रामविकास की विविध समस्याओं के मूलभूत स्वरुप का विचार किया और वह कैसे सुलझा जाए, इसके विषय में उपाययोजना भी सुझाई । यह उपाययोजना उनके समयपर तथा पश्चात् भी उपयोगी हुई । यह आज (उनकी जीवनयात्रा समाप्त होनेके पश्चात् भी) प्रकर्षता के साथ ध्यान में आ रहा है । इससे ही राष्ट्रसंतों का द्रष्टापन व्यक्त हुआ है ।
अमरावती के पास मोझरी के गुरुकुंज आश्रम की स्थापना करना यह जैसे उनके जीवन का लक्षणीय कार्य है, उसी प्रकार ग्रामगीत का लेखन यह भी उनके जीवन कार्य का अत्यंत महत्वपूर्ण टप्पा है । ग्रामगीता अर्थात् तुकडोजी महाराज की वाङमयीन पूर्ति है । वे स्वयं को ‘तुकड्यादास’ कहते थे, कारण भजन गाते समय जो भीख मिलती थी, उसपर ही उनका बचपन का जीवन बीता था, ऐसी उनकी श्रद्धा थी । उनका मूल नाम माणिक था, अपितु उनका ‘तुकडोजी’ नाम उनके गुरु अडकोजी महाराजने रखा था ।
गांव-देहात स्वयंपूर्ण कैसे होगा, इसके विषय की उपाययोजना उन्होंने बताई । वह अत्यंत परिणामकारक रही । ग्राम सुशिक्षित हो, सुसंस्कृत हो, ग्रामोद्योग संपन्न हो, गांव ही देश की आवश्यकताएं पूर्ण करे, ग्रामोद्योग को प्रोत्साहन मिले, प्रचारक के स्वरूप में गांव को नेतृत्व मिले, ऐसी उनकी इच्छा थी । उसका प्रतिबिंब ग्रामगीत में दिखाई देता है । देवताओं के विषय में अनावश्यक पुरानी अंधश्रद्धा नष्ट होने के लिए उन्होंने अविरत प्रयास किए ।
सर्वधर्मसमभाव यह भी राष्ट्रसंतों के विचार विश्व का एक वैशिष्ट्य ही था । उसके कारण सर्वधर्मीय प्रार्थना का आग्रहपूर्वक समर्थन किया । एकेश्वरवाद का भी उन्होंने विवेकनिष्ठ जीवन दृष्टि से अंगीकार किया था । धर्म में बताए गए अनावश्यक कर्मकांड को उन्होंने त्याग दिया । आयुष्य के अंतिम समयतक अपने प्रभावी खंजडी भजन के माध्यम से उनकी विचारप्रणाली का प्रचार तथा आध्यात्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय प्रबोधन किया । स्वतंत्र्यता के आंदोलन के लिए उचित पाश्र्वभूमि निर्माण करने हेतु उन्हें कारावास भी भुगतना पडा । अखिल भारतीय स्तरपर उन्होंने साधु संगठन की स्थापना की । गुरुकुंज आश्रम की शाखोपशाखा स्थापन कर उन्होंने अनुशासनबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक पक्ष निर्माण किया । गुरुकुंज से संबंधित सभी निष्ठावंत कार्यकर्ता आज भी उनका यह कार्य अखंड व्रत के समान आगे चला रहे हैं ।
तुकडोजी महाराज के विचारप्रणाली का एक लक्षणीय भाग स्त्री की उन्नति है । कुटुंबव्यवस्था, समाजव्यवस्था, राष्ट्रव्यवस्था स्त्रीपर कैसी निर्भर होती है, यह उन्होने अपने कीर्तन द्वारा समाज को बताया । उसी प्रकार स्त्री को अज्ञानता में एवं दास्यता में रखना अन्यायकारक है, यह भी उन्होंने अत्यंत प्रभावी रूप से समाज को समझाया ।
देश के युवक राष्ट्र के भविष्य के आधारस्तंभ हैं । वे बलोपासक होगें, तो ही समाज की एवं राष्ट्र की सुरक्षा कर सकेंगे । उन्होंने युवकों को नीतिमान और सुसंस्कृतयुक्त बनाने हेतु उपदेशात्मक तथा मार्गदर्शनात्मक लेखन किया । राष्ट्रसंतोंने अपने लेखन द्वारा व्यसनाधीनता की तीव्र भर्त्सना की है ।
ऐहिक एवं पारलौकिकता का सुंदर संयोग राष्ट्रसंतों के साहित्य में हुआ है । उन्होंने मराठी की तरह हिंदी भाषा में भी अनेक लेखन किए हैं । आज भी उनका यह साहित्य हमें मार्गदर्शन कर रहा है, इससे उनके साहित्य का महत्त्व समझ में आता है । राष्ट्रपतिभवन में उनका खंजडी भजन सुनकर राष्ट्रपति राजेंद्रप्रसादजीने तुकडोजी महाराज को राष्ट्रसंत कहकर संबोधित किया था ।