संत कबीरजी एक बार बाजार से जा रहे थे, मार्ग में उनको एक व्यापारी की पत्नी चक्की पिसती दिखाई दी । चक्की को देख के कबीरजी को रोना आ गया । अनेक लोगों ने उनसे रोने का कारण पूछा, परंतु कबीरजी कुछ नहीं बोले । इतने में वहां निपट निरंजन नाम का एक साधु आया । उन्होंने कबीरजी को रोने का कारण पूछा । उस साधु के अधिकार को जानकर कबीरजी ने कहा,‘‘इस चक्की को घूमते देखकर मेरे मन में चिंता उत्पन्न हुई,‘‘इस चक्की में डाले हुए गेहूं के दानों के पिस जाने से जैसे आटा बनता है, उसी प्रकार इस भवसागर में फंसकर मेरा भी यही हाल होगा ।’’ इस विचार से मन दु:खी हो गया । तब उस साधु ने कहा,‘‘ कबीरजी थोडा विचार करें । चक्की में डाले हुए गेहूं के दानों के पिसने से आटा बनता है, यह बात सत्य हैं, परंतु खूंटे के पास जो दाने रहते हैं, वे नहीं पिसते ।’’ वैसे ही परमेश्वर के नाम से (साधना से) जो दूर रहते हैं, वह काल के तूफान में फंस जाते हैं; परंतु नामजप करनेवालों को, ईश्वर के निकट रहनेवालों को काल का भय नहीं होता ।’
– डॉ. वसंत बालाजी आठवले (वर्ष १९९०)