पाताल गंगा नदी के तीर तट पर चार पहाडों की वादीयों मनोरमय वातावरण में बसा हुआ नंदनगरी अर्थात नंदुरबार इस शहर नगर का अतित से परिचय व्यापारीयोंकी वसाहत निवासस्थल के रूप में ही है । इस गांव में एक व्यापारी के घर १९२६ में शिरीषकुमार का जन्म हुआ । उसके सहित उसके पांच मित्रों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों का बलिदान किया । इससे इस गांव का नाम सर्वत्र देश के कोने-कोने में पहुंचा । अभी कहां वर्तमान में नंदुरबार लगभग एक लाख जनसंख्या का छोटासा गांव नगर है ।यहां परस्परों को परिचित तथा स्नेह जाननेवाले लोग हैं । घरोंघरों से चलनेवाला व्यापार तथा लेन-देन इस महत्व को जानकर अनेक वरिष्ठ यात्रियोंने इस गांव को भेंट दी है । प्रसिद्ध यात्री ट्वेनियर ने १६६० में धनवान तथा समृद्धनगरी इन शब्दों में नंदुरबार का वर्णन किया है, अपितु नंद नामक एक गौले राजा के द्वारा इस गांव का निर्माण करने की दंतकथा है । ऐन-ए-अकबरी (वर्ष १५९०) में नंदुरबार नगर का उल्लेख किला होनेवाला तथा सुबक घरों से सजा हुआ शहर सुदृढ किला तथा सोदर्यक्रत गृहों से उल्लेखित किया गया ऐसा है ।
नंदुरबार में बाला शंकर इनामदार नामक एक व्यापारी थे । उनका तेल का व्यापार था । उनको पुत्र न होने के कारण वह कुछ दुखी थे । उन्होंने पुत्रप्राप्ती हेतु दूसरा विवाह किया । परन्तु उनको कन्याप्राप्ती हुई । इस कन्या का उन्होंने पुष्पेंद्र मेहता इनको सौंप दी के साथ विवाहकर दिया । १९२४ में पुष्पेंद्र एवं सविता इन का विवाह हुआ ।तथा २८ दिसंबर १९२६ में इस दंपती को, मेहता वंश में शिरीषकुमार का जन्म हुआ । इस समय में देश के अन्य गांवो एवं शहरों नगरो के अनुसार ही नंदुरबार का वातावरण स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा से भारित हुआ ओतप्रोत था । स्वतंत्रता की प्राप्ती के लिए सामान्यों को क्या करना होता है, तो हाथ में तिरंगा ध्वज लेकर पदयात्रा, मशालयात्रा निकालनी होती है । देशप्रेम से ओतप्रोत घोषणाएं देनी होती हैं! नंदुरबार में ऐसे कार्यो में मेहता परिवार का भी समावेश था । आयु के अनुसार शिरीष भी विद्यालय में शिक्षा हेतु जाने लगा था तथा उसपर महात्मा गांधी एवं सुभाषचंद्र बोस इनका अत्यंत प्रभाव था । उस समर्य वंदे मातरम तथा भारत माता की जर्य ऐसा जयघोष करनेवाले किसी को भी पुलिस गिरफ्तार कर सकते थे ।
नहीं नमशे, नहीं नमशे! (नहीं झु्केंगे , नहीं झु्केंगे)
महात्मा गांधीजी ने ९ अगस्त ९४२ में भारतीयों को अंग्रेजों के विरूद्ध ‘चले जाव’ अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन का आदेश दिया । इसके उपरांत गांवोगावों में पदयात्राएं, ब्रिटीशों को चेतावनीयां दी जाने लगीं । कुल मासभर के उपरांत, ९ सितंबर १९४२ के दिन नंदुरबार में निकली पदयात्रा में आठवीं कक्षा में पढनेवाले शिरीष ने भाग लिया था । गुजराती मातृभाषा हो बोलनेवाले शिरीषने पदयात्रा में घोषणाएं देना आरंभ किया, ‘नहीं नमशे, नहीं नमशे’, ‘निशाण भूमी भारतनु’ । भारत माता का जयघोष करते हुए यह यात्रा गांव से जा रही थे । गांव के मध्यस्थानपर इस यात्रा को पुलिस ने रोका । शिरीषकुमार के हाथ में ध्वज था । पुलिस ने इस यात्रा को विसर्जित करने का आहवान किया । इन बालकों ने उस आवाहन को न मानकर ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम्’ का जयघोष निरंतर आरंभ ही रखा । अंतत: पुलिस ने गोलाबारी आरंभ की । एक पुलिस अधिकारी ने इस फेरी में उपस्थित बालिकाओं की दिशा में बंदूक का निशाना लगांया । तब एक तेजस्वी बालक ने उसे सुनाया, ‘गोली मारनी है तो मुझे मार! ‘ इस वीरश्री का संचार हुआ बालक था, शिरीषकुमार मेहता! उस क्रोधित अधिकारी की बंदूक से छूटीं एक, दो, तीन गोलियां शिरीष की छाता वक्षस्थल पर बैठी लगी तथा वह उस स्थानपर ही गिर पडा । उसके साथ पुलिस की गोलीबारी में लालदास शहा, धनसुखलाल वाणी, शशिधर केतकर, घनश्यामदास शहा यह अन्य चारों भी वीरगति को प्राप्त हुए ।