‘विश्व ही एक रंगभूमि है’, शेक्सपियर के इस प्रसिद्ध वाक्य के संदर्भ में एक मानसशास्त्री कहता है, ‘‘घर ही प्राथमिक रंगभूमि है । वहां कौन से पात्र को कैसे निभाना है, यह बच्चे सीखते हैं ।’’ घर का वातावरण तथा सदस्य, विशेषरूप से बच्चे के माता-पिता ही उसके मानसिक स्वास्थ्य को आकार देने के मुख्य कारण/स्तंभ होते हैं । एक मानसोपचार विशेषज्ञ कहते हैं, ‘‘ बच्चों की समस्याएं अर्थात बच्चों के समस्यायुक्त माता-पिता !’’ ऐसे समय बच्चे के माता-पिता को ही मानसोपचार की अधिक आवश्यकता होती है । माता-पिता तथा घर के वरिष्ठ सदस्य इनके गलत विचार एवं आचरण, साथ ही गलत भावनाओं का परिणाम बच्चे के मनपर ज्ञात-अज्ञात रूप में निरंतर होता रहता है । बच्चे को मानसोपचार की आवश्यकता न हो; इस हेतु प्रतिबंधक उपायों की दृष्टि से माता-पिता का व्यक्तित्व अच्छा होना महत्वपूर्ण होता है । बच्चों के साथ आचरण करते समय तथा उनके घरेलू मानसोपचारों की दृष्टि से कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक होता है ।
बच्चों को प्रेम तथा आधार की आवश्यकता होना
बच्चे के मन में ‘माता-पिता का मुझपर बहुत प्रेम है, उनको हमारी आवश्यकता है तथा हमें उनका आधार है, इस प्रकार की भावना उत्पन्न हो, ऐसा आचरण माता-पिता को रखना चाहिए, बीच-बीच में उन्हें अपने निकट लेना, उनको अकेला छोडकर बहुत समय घर से बाहर न रहना इत्यादि बातें होनी चाहिए । एक से अधिक बच्चे होनेपर ‘दायां-बायां’ ऐसा कभी भी नहीं करना चाहिए । दो बच्चोंमें ३ वर्षो से अधिक अंतर हो, तो बडे बच्चे की ओर तनिक अधिक ध्यान देना चाहिए ।
माता-पिताद्वारा बच्चों के समक्ष लडनेपर उनको निराधार प्रतीत होना
माता-पिता को बच्चों के समक्ष नहीं लडना चाहिए । ‘घर का वातावरण दूषित हुआ है’, यह उनको तुरंत प्रतीत होता है तथा उनके मन में ‘माता-पिता का आधार हमें प्राप्त होगा अथवा नहीं’, ऐसी आशंका उत्पन्न होती है । अभिभाव को, बच्चों को अनुशासित बनाने के लिए आवश्यकता होनेपर दंड देना भी आवश्यक !
बच्चों को प्यार से ही अनुशासित बनाना चाहिए; किंतु अनुशासन का विपर्यास/मिथ्या ज्ञान नहीं होने देना चाहिए ।
यदि विपर्यास/मिथ्या ज्ञान हुआ तो समस्याएं उत्पन्न हुर्इं ही समझें । चूक ध्यान में आने हेतु तुरंत दंड देना आवश्यक ! : बच्चों से अयोग्य कृत्य होनेपर तुरंत उसे ध्यान में लाकर दंड भी देना चाहिए । उस समय माता को ‘ङ्गीक है, सायंकाल पिताजीके घर आनेपर उनको तुम्हारा कृत्य बताऊंगी’, ऐसा कहना उचित नहीं । पिताजी के घर आनेपर उनकेद्वारा विलंब से दिए गए दंड के कारण ‘चूक का अर्थ दंड’, यह समीकरण उनके मन में उत्पन्न नहीं होता तथा बच्चे पुन: चूक को करते रहते हैं ।
दंड में नियमितता होनी चाहिए !
किसी समय चूक के संदर्भ में दंड देना, किसी समय चूक की अनदेखी करना, ऐसा नहीं करना चाहिए ।दंड में मतभेद न हों ! : दंड का स्वरूप तथा उसे दें अथवा नहीं, इस विषय में माता-पिता तथा घर के अन्य वरिष्ङ्ग सदस्यों में मतभेद हों, तब भी एक सदस्य दंड दे रहा हो तो अन्यों को बीच में नहीं पडना चाहिए । जो मतभेद होंगे, उनको बच्चों के साथ अपरोक्ष बातचीत कर के सुलझाने चाहिए, अन्यथा इन मतभेदों को सुनकर योग्य क्या तथा अयोग्य क्या, इस विषय में बच्चों के मन में संभ्रम उत्पन्न होता है ।
– आधुनिक वैद्या (डॉ.) श्रीमती कुंदा आठवले (संदर्भ : आकाशवाणीपर किया हुआ भाषण,खिस्ताब्द १९८८)