रामानुजाचार्य शठकोपस्वामीजी के शिष्य थे । स्वामीजी ने रामानुजजी को ईश्वर प्राप्ति का रहस्य बताया था । परंतु उसे किसी को न बताने का निर्देश दिया था; किंतु रामानुजजी ने अपने गुरु की इस आज्ञा को नहीं माना, उन्होंने ईश्वर प्राप्ति का जो मार्ग बताया था, उस पूर्ण ज्ञान को उन्होंने लोगों को देना प्रारंभ किया । यह ज्ञात होनेपर शठकोपस्वामीजी बहुत क्रोधित हुए । रामानुजजी को बुलाकर वे कहने लगे, ‘‘ मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर तू साधना का रहस्य प्रकट कर रहा है । यह अधर्म है, पाप है । इसका परिणाम क्या होगा तुझे ज्ञात है ?’’
रामानुजजी ने विनम्रता से कहा, ‘‘ हे गुरुदेव, गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करने से शिष्य को नरक में जाना पडता है ।’’ शठकोपस्वामीजी ने पूछा, ‘‘ यह ज्ञात होते हुए भी तुमने जान बूझकर ऐसा क्यों किया ?’’
इसपर रामानुजजी कहने लगे, ‘‘ वृक्ष अपना सब कुछ लोगों को देता है । क्या उसे कभी इसका पश्चात्ताप प्रतीत होता है ? मैंने जो कुछ किया, उसके पीछे लोगों का कल्याण हो, लोगों को भी ईश्वर प्राप्ति का आनंद प्राप्त हो, यही हेतु है । इसके लिए यदि मुझे नरक में भी जाना पडे, तो मुझे उसका तनिक भी दुख नहीं होगा ।’’
रामानुजजी की, समाज को ईश्वर प्राप्ति की साधना बताने की, लालसा को देखकर स्वामीजी प्रसन्न हुए । उन्होंने रामानुजजी को अपने निकट लिया, उनको उत्तमोत्तम आशीर्वाद दिए तथा उनको समाज में सत्य के ज्ञान का प्रचार करने हेतु बडे प्रेम से भेजा ।
बच्चो, रामानुजजी ने समाज को ईश्वर प्राप्ति की साधना बताई । उनकी इस लालसा से स्वामीजी उनपर प्रसन्न हुए, इसी प्रकार हमें भी ज्ञान बांटना चाहिए ।