१. बच्चे पर अपना अधिकार नहीं जमाएं; अपितु उनके साथ मित्रता का व्यवहार करें ।
२. प्रत्येक कृत्य करने के लिए प्रेम से कहें ।
३. कहते हुए अपने कृत्य का निरीक्षण करें ।
४. बच्चों से अधिक अपेक्षा होती है, उसे अल्प करें, उससे बच्चों को एवं हमें किसी को भी तनाव नहीं आएगा ।
५. बच्चों की दृष्टि में धन की अपेक्षा प्यार का अधिक महत्त्व होता है; इसे निरंतर ध्यान में रखें ।
६. अपना अधिकाधिक समय बच्चों के साथ व्यतित करें ।
७. बच्चों की सभी समस्याएं शांतिपूर्वक सुनें ।
८. स्वंय से चूक होनेपर भी उसे बच्चों के सामने स्वीकार करें ।
९. प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है इस कारण अभिभावक अपने बच्चे की तुलना कभी भी किसी अन्य बच्चे के साथ नहीं करें ।
१०. बच्चों के सामने उनके विषय में नकारात्मक बातें नहीं करें । (‘तुझे कुछ समझ में नहीं आता, तुझे नहीं आता, तुझसे नहीं होगा, तू कब शांत होगा ?, इससे मुझे अधिक तनाव आता है’, ऐसी नकारात्मक भाषा का प्रयोग करने से बच्चों के बालमनपर परिणाम होने से उनके मन के समीप जाना अर्थात उनसे निकटता साधना कठिन होजाता है ।)
११. घर में आए अतिथि के सामने (मेहमानों के सामने) बच्चों के अपराध बताए जाते हैं । उनके समक्ष बताने की अपेक्षा बच्चों को ही प्रेम से बताए ।
१२. अपना बच्चा क्या नहीं करता, यह कहने की अपेक्षा वह अच्छी तरह क्या कर सकता है, यह अन्योंको बताएं; किंतु उनकी (बच्चों की) अस्वाभाविक प्रशंसा नहीं करें ।
१३. बच्चों की ओर से भी सदैव सीखने की स्थिति में रहें ।
१४. अभिभावक स्वयं देवता की भक्ति करें, साथ ही अपना आचरण बच्चों के सामने आदर्श रखें; तो बच्चे भी उनका अनुकरण करेंगे ।
१५. ‘बच्चों का पालनहार मैं नहीं, अपितु भगवान हैं ’, इसका भान रखें । (इससे तनाव नहीं आता ।) उपर्युक्त पद्धतियों के अनुसार आचरण करनेपर, अदर्श राष्ट्र की स्थापना हेतु, निश्चित ही हम एक उत्तम पीढी की रचना कर सकते है।
– श्री. गिरीजय प्रभूदेसाई