श्री माणिक प्रभू का जन्म निजामशाही के बसव कल्याण के निकट लाडवंती नामक छोटे से गांव में हुआ था । उनका बचपन बसव कल्याण में व्यतीत हुआ । उनका संपूर्ण जीवन विलक्षण चमत्कारों से भरा हुआ दिखाई देता है ।
बचपन में वे अकेले ही भयंकर घनघोर जंगलों में घूमते थे । वृक्षलताओं के सान्निध्य में, हिंसक पशुओं की संगत में दिन व्यतीत करते थे । देवस्थानों में, तीर्थक्षेत्र में वे घूमते । वे पाठशाला नहीं गए; परंतु वे बचपन में बडे बडे पंडितों से गहन विषयोंपर चर्चा करते जिससे वे विद्वान दंग रह जाते । हिंदी, मराठी, कन्नड, तेलंगी, उर्दू, फारसी इत्यादि भाषाओंपर उनका बचपन से ही प्रभुत्व था । इन भाषाओं में उनकेद्वारा रचित पद हृदयस्पर्शी हैं । योगसामर्थ्य एवं ज्ञानसंपदा प्राप्त करने के लिए उनके पास अनेक महान लोग आते थे । आयु के बीसवें वर्ष से माणिक प्रभू संपूर्ण भारत में घूमे । अंत में हुमणाबाद के निकट घने जंगल के एक बेलपत्री के वृक्ष के नीचे वे निवास करने लगे ।
श्रीपाद श्रीवल्लभ, नृसिंह सरस्वती, माणिक प्रभू, स्वामी समर्थ, सांईबाबा, गजानन महाराज सभी दत्तावतारी माने जाते हैं ।
अक्कलकोट में बाबा सबनीस नामक व्यक्ति रहते थे । उनके परिवार का देहांत हो जाने के कारण वे उदि्वग्न थे । मनःशांति प्राप्त हो इसलिए वे हुमणाबाद में माणिक प्रभू के दर्शन करने गए । वहां जानेपर सबनीसजी को माणिक प्रभू के निकट तीन मूर्तियां बैठी हुई दिखाई दीं । माणिक प्रभूने सबनीसजी को उन तीन मूर्तियों का दर्शन करने के लिए कहा । उन तीनों में से एक यतिराज की ओर उंगली दिखाते हुए माणिक प्रभूने कहा, ‘‘आगे से यही तुम्हारे गुरु हैं ।’’
सबनीसजी उनके दर्शन करने लगे, वैसे ही जिनकी ओर माणिक प्रभूने उंगली दिखाई थी वे यतिराज सबनीसजी को बोले, ‘‘तुम कसाई हो ! अक्कलकोट जाओ, हम भी आएंगे!” मैं अक्कलकोट का हूं यह इन्हें कैसे ज्ञात हुआ ? सबनीसजी को इस बात का आश्चर्य हुआ । उसी प्रकार वृद्ध मातोश्री मुझे मत जाओ, ऐसा कह रही थी, उनकी इच्छा के विरुद्ध आया इसलिए यतिराजने मुझे कसाई कहा है, यह सबनीसजी के ध्यान में आया ।
सबनीसजी के अक्कलकोट आनेपर श्री स्वामी समर्थजी के दर्शन करने गए, तो माणिक प्रभूने जिन यतिराज को ‘तुम्हारे गुरु’ कहकर उल्लेख किया वे ही स्वामी समर्थ हैं यह देखते ही सबनीसजी गदगद हो गए तथा उन्होंने समर्थजी के चरण पकड लिए । स्वामी समर्थजीने सबनीसजी को आनंद तथा समाधान प्रदान किया ।
माणिक प्रभू जगद्गुरू थे । विश्वोद्धार का महान कार्य उन्होंने किया । अनेक साक्षात्कारी संत उनसे भक्तिमार्गद्वारा आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य प्राप्त कर सकें, इस हेतु महान सत्पुरूष मार्गदर्शन हेतु जाते थे । वे साक्षात परमेश्वर ही थे । कोई भी धर्म तथा संप्रदाय दूसरे को छोटा न समझें, उसमें से अच्छी बातों का सत्वांश ग्रहण करने का उदार दृष्टिकोन विश्व के समक्ष रखकर सकलमत सांप्रदाय की उन्होंने रचना की । आत्मसात किए गए कार्य नियम से चले, उसकी उन्होंने व्यवस्था की । छ: माह पूर्व माणिक प्रभूने अपना समाधि का दिन अर्थात एकादशी का पुण्य दिन निश्चित किया था । हजारों श्रद्धालुओं को वे दत्तावतार ईश्वर होने की उनके समाधी स्थानपर प्रतीती आती है ।