जन्म : २३ जुलाई १९०६, भाबरा
शौर्यपूर्ण समर्पण : २७ फरवरी १९३१, इलाहाबाद
चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्यभारत के झाबुआ तहसील के भाबरा गांव में हुआ था । उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी एवं माता का नाम जगदानीदेवी था । बनारस में संस्कृत का अध्ययन करते समय १४ वर्ष की आयु में उन्होंने कानूनभंग आंदोलन में योगदान दिया था । तब वे इतनी अल्प आयु के थे, कि उन्हें पकडनेपर उनके हाथों में हथकडियां नहीं बैठ पाई थीं ! ब्रिटिशन्यायप्रणालीद्वारा इस अल्पायु बच्चे को १२ कोडों का अमानवीय दंड दिया गया था । इन कोडों के कारण आजाद के मन का क्षोभ अधिक बढ गया। अहिंसा के तत्त्वोंपर उनका विश्वास पूर्णरूप से समाप्त होगया । मन से वे स्वतंत्रता सेनानी बन गए । काशी के श्री. प्रणवेश मुखर्जीद्वारा उन्हें क्रांति की दीक्षा प्रदान की गयी थी । सन १९२१ से १९३२ तक जो भी क्रांतिकारी आंदोलन, प्रयोग एवं योजनाएं क्रांतिकारी गुटद्वारा रची गई थीं,उनमें चंद्रशेखर आजाद अग्रणी थे ।
सांडर्स की हत्या कर चंद्रशेखर आजाद भागे एवं भूमिगत स्थिति में अनेकविध भेस बदलकर एक उदासी साधु के सेवक बन गए । साधुजी के पास ढेर सारी संपत्ति थी एवं आजाद संपत्ति के वारिस बनने वाले थे । परंतु वे मठ के मनमा ने व्यवहार से असंतुष्ट थे । इसलिए उन्होंने यह नाटक करना छोड दिया । इसके पश्चात वे झांसी में निवास करने लगे थे ।यहां उन्होंने मोटर चलाना, पिस्तौल से गोली मारना एवं अचूक लक्ष्यभेद की शिक्षा ग्रहण की ।
काकोरी कट-कारस्थान से ही मृत्यु उनके सामने थी ।यह होते हुए भी, अन्य स्वातंत्रसेनानियों को अभियोग से मुक्त कराने की योजना में वे व्यस्त थे । गहराई से विचार न करनेवालों के लिए उन्हें ऐसा लगताथा मानो उन्होने क्रांतिकार्य से संन्यास ले लिया हैं ।
‘आप अपने प्रभाव का उपयोगकर भगतसिंह आदि स्वातंत्रसेनानियों को मुक्त करवाएं । ऐसा करनेपर हिंदुस्थान की राजनीति को अलग दिशा प्राप्त होगी ।’ ऐसा संदेश आजाद ने गांधी-आयर्वीन समझौते के समय गांधीजी को भेजा था । परंतु गांधीजीद्वारा इस संदेश को अस्वीकार किया गया । फिर भी आजादद्वारा स्वातंत्रसेनानियों की मुक्ति के लिए अथक प्रयास किए गए थे ।‘मैं जीवित होते हुए अंग्रेजों के हाथ कदापि नहीं आउंगा’, यह उनकी प्रतिज्ञाथी । अपने अंतिमकाल में वे २७ फरवरी १९३१ को इलाहाबाद के आल्फ्रेड उद्यान में घुस गए । पो. अधीक्षक नाट बाबरद्वारा उन्हें यहां आते देख उनपर गोली चलायी गयी जो उनकी जांघपर लगी । परंतु उसी क्षण आजादने नाट बाबरपर गोली मारकर उसका एक हाथ निष्क्रिय कर दिया । फिरवे घिसटकर एक जामुन के पेड के पीछे छिप गए तथा वहां के हिंदुस्तानी सिपाहियों की ओर चिल्लाकर बोले, ‘अरे सिपाही भाइयो, तुम लोग मेरे ऊपरगोलियां क्यों बरसा रहे हो ? मैं तो तुम्हारी आजादी के लिए लड रहा हूं ! कुछ समझो तो सही !’ उन्होंने वहां के अन्य उपस्थित लोगों से कहा, ‘इधर मत आओ! गोलियां चल रही हैं ! मारे जाओगे ! वंदे मातरम् ! वंदे मातरम् !’
जब अपनी पिस्तौल में अंतिम गोली बची, तब उन्होंने पिस्तौल अपने माथेपर लगायी तथा पिस्तौल का घोडा दबाया ! उसी क्षण उनकी नश्वर प्राण पखेरू उड गए ।नाट बाबरने कहा, ‘मैंने ऐसे पक्के लक्ष्यवेधी अल्प ही देखे हैं !’
पुलिस उनकी निष्प्राण देह में संगिनी घुसेडकर उनकी मृत्यु के प्रति आश्वस्त हुई (उनकी मृत्यु की निश्चिती कीयी गई ।)। आल्फ्रेड उद्यान में एक आतंकी मारा गया, ऐसा अप्रचार कर, सरकारद्वारा उनका शव वहीं जलाने का प्रयत्न किया गया । परंतु पंडित मालवीय एवं श्रीमतीकमला नेहरूद्वारा यह षडयंत्र रोककर उनकी आधी जली हुए देह की चिता बुझाकर हिंदू परंपरा के अनुसार पुनः अंतिम संस्कार किया गया । २८ फरवरी को उनकी अंतिमयात्रा निकालकर एक विराट सभा में समस्त नेताओंद्वारा उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई ।