संत सावता माली संत ज्ञानदेव के समय के एक प्रसिद्ध संत थे । उनका जन्म इ. स. १२५० का है तथा उन्होंने इ. स. १२९५ में देह त्यागी । अरण-भेंड यह सावता माली का गांव है । सावता माली के दादाजी का नाम देवु माली था, वे पंढरपुर के वारकरी थे । उनके पिता पूरसोबा तथा माता धार्मिक वृत्ति के थे, पूरसोबा खेती के व्यवसाय के साथ ही भजन-पूजन करते । पंढरपुर की वारी करते ।
कर्म करते रहना यही खरी ईश्वर सेवा है एसी सीख सावता माली ने दी । वारकरी संप्रदाय के एक ज्येष्ठ संत के रूप में उनकी कीर्ति है । वे विट्ठल के परम भक्त थे । वे कभी भी पंढरपुर नहीं गए । ऐसा कहा जाता है कि, स्वयं विट्ठल ही उनसे मिलने उनके घर जाते थे । प्रत्यक्ष पांडूरंग ही उनसे मिलने आए । वे कर्ममार्गी संत थे ।
उन्होंने अध्यात्म तथा भक्ति, आत्मबोध तथा लोकसंग्रह, कर्तव्य तथा सदाचार का हूबहू संबंध जोडा । उनका ऐसा विचार था कि, ईश्वर को प्रसन्न करना हो तो जप, तप की आवश्यकता नहीं तथा कहीं भी दूर तीर्थयात्रा के लिए जाने की आवश्यकता नहीं; केवल अंत:करण से ईश्वर का चिंतन करने तथा श्रद्धा हो तो ईश्वर प्रसन्न होते हैं एवं दर्शन देते हैं ।
सावता माली ने ईश्वर के नामजप पर अधिक बल दिया । ईश्वरप्राप्ति के लिए संन्यास लेने अथवा सर्वसंगपरित्याग करने की आवश्यकता नहीं है । प्रपंच करते समय भी ईश्वर प्राप्ति हो सकती है ऐसा कहनेवाले सावता महाराजजी ने अपने बाग में ही ईश्वर को देखा ।
कांदा मुळा भाजी । अवघी विठाबाई माझी ।।
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सावता महाराजजी ने पांडूरंग को छुपाने के लिए खुरपी से अपनी छाती फाडकर बालमूर्ति ईश्वर को हृदय में छुपाकर ऊपर उपरने से बांधकर भजन करते रहे । आगे संत ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडूरंग को ढूंढते सावता महाराजजी के पास आए, तब उन की प्रार्थना के कारण पांडूरंग सावतोबा की छाती से निकले । ज्ञानेश्वर एवं नामदेव पांडूरंग के दर्शन से धन्य हो गए । सावता महाराज कहते हैं – भक्ति में ही खरा सुख तथा आनंद है । वहीं विश्रांति है ।
सांवता म्हणे ऐसा भक्तिमार्ग धरा ।
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